Jul ०७, २०२२ १४:२८ Asia/Kolkata

पवित्र हज के संस्कारों को आज हज़रत इब्राहीम के हज के तौर पर जाना जाता है, यह केवल एक इबादत नहीं है, बल्कि यह पूरी दुनिया के मुसलमानों के बीच एकता और एकजुटता के लिए किए जाने वाले प्रयासों का अभ्यास है।

सूरे तूर की शुरुआती आयतों में आया है कि (गवाह है तूर पर्वत, और लिखी हुई किताब; फैले हुए झिल्ली के पन्ने में और बसा हुआ घर; और ऊँची छत; और उफनता समुद्र कि तेरे रब की यातना अवश्य घटित होकर रहेगी जिसे टालनेवाला कोई नहीं; जिस दिन आकाश बुरी तरह डगमगाएगा;  और पहाड़ चलते-फिरते होंगे;  तो तबाही है उस दिन, झुठलानेवालों के लिए;  जो बात बनाने में लगे हुए खेल रहे है जिस दिन वे धक्के दे-देकर जहन्नम की ओर ढकेले जाएँगे कहा जाएगा), "यही है वह आग जिसे तुम झुठलाते थे)। इमाम सज्जाद अलैहिस्सलाम से रिवायत है कि से मुराद वही घर है कि जिसकी पवित्र क़ुरआन में क़सम खाई गई है। यह उस समय शुरू हुआ जब फ़रिश्तों ने पृथ्वी पर मानव ख़िलाफ़त पर आपत्ति जताई और ख़ुद को मनुष्यों की तुलना में पृथ्वी पर ख़िलाफ़त के योग्य माना क्योंकि वे हमेशा अपने ईश्वर के आज्ञाकारी होते हैं। उस समय अल्लाह ने उनका उनकी अज्ञानता की ओर ध्यान केंद्रित कराया और कहा कि मैं वह जानता हूं कि जो तुम नहीं जानते हो।

अल्लाह द्वारा कही गई बात के बाद फ़रिश्तों को यह एहसास हुआ कि उनका मालिक उनकी बातों की वजह से उनसे नाराज़ हो गया है, इसीलिए उन्होंने अल्लाह अपनी ग़लती की माफ़ी मांगी और उसके प्रकोप से बचने की प्रार्थना की। इस बीच दयालू अल्लाह ने उनपर अपनी रहमत नाज़िल की और आसमान के नीचे एक घर बनाया ताकि वे वहां जाकर उसकी परिक्रमा अर्थात तवाफ़ करें। उस समय अल्लाह ने फ़रिश्तों को यह आदेश दिया कि वह ज़मीन पर एक घर बनाएं, कि जिसका उल्लेख सूरे तूर में बैते मामूर के नाम से किया गया है। ताकि जो भी इंसान ज़मीन पर पैदा हो वह उस घर का तवाफ़ करे जैसे कि फ़रिश्तों ने किया है। ताकि अल्लाह की रहमत उन तक पहुंचे और उसके प्रकोप से सुरक्षित रहें। यही कारण है कि पवित्र काबा हमेशा से एक ऐसा स्थान रहा है कि जहां इंसान अल्लाह से अपने दिल की बात करता है उससे मदद मांगता है। लेकिन यह ईश्वरीय परंपरा इतिहास के अलग-अलग दौर में भटकती रही है, यही कारण है कि अल्लाह ने उन भटके हुए लोगों को सही रास्ते पर लाने के लिए हर दौर में अपना एक दूत भेजा ताकि लोगों को सही रास्ते की ओर ला सकें। हज़रत नूह, हज़रत इब्राहीम, हज़रत मूसा, हज़रत ईसा और हज़रत मोहम्मद मुस्तफ़ा (स) यह सभी ईश्वरीय दूत मानवता को अंधविश्वास और भ्रम से बचाने की कोशिश की है, ताकि इंसान शैतानी पंजों से दूर रहे और ईश्वर की रहमतों से नज़दीक हो जाए।

हज़रत नूह (अ) ने बहुत लंबे समय तक इंसानों को सही रास्ते पर ले जाने की कोशिश की, लेकिन उनके समय के अधिकांश लोग गुमराह और भटके हुए थे। उस ज़माने में एक भीषण और विशाल तुफ़ान ने पूरी ज़मीन को अपने चपेट में ले लिया था, गुमराह और भटके हुए लोगों को उनके कर्मों की उसने सज़ा दी। तुफ़ान के समाप्त होने के बाद ज़मीन पर एक बार फिर से जीवन ने शुरुआत की, मोमिन और अच्छी पीढ़ी के लोग पृथ्वी के अलग-अलग हिस्सों में फैल गए, लेकिन इस बीच शैतान ने अपना काम जारी रखा और धीरे-धीरे फिर से लोगों को बहकाने में कामयाब होने लगा, देखते ही देखते शैतान ने एक बार फिर से धरती पर अंधविश्वास और अंधकार को फैला दिया। उस ज़माने में कि जब हज़रत इब्राहीम (अ) को ज़मीन पर पैग़म्बर बनाया गया तब उस समय एक बार फिर इंसानों में अनेकेश्वरवाद की ओर रुझान बढ़ चुका था। लोग अल्लाह को छोड़कर छोटे ख़ुदाओं और मूर्तियों की उपासना करने लगे थे। ऐसे ईश्वर की उपासना जिन्हें वे अपने हाथों से पत्थर और लकड़ियों के ज़रिए बनाते थे। हज़रत इब्राहीम ने पत्थर के झूठे ख़ुदाओं की मूर्तियों को तोड़ा और फिर से अल्लाह के घर पवित्र काबे का निर्माण किया। ताकि एक ऐसा स्थान हो कि जहां इंसान अल्लाह की इबादत कर सके। हज़रत इब्राहीम और उनके बेटे हज़रत इस्माईल पहले ऐसे इंसान थे कि जिन्होंने एहराम पहना था और हज के संस्कारों को अंजाम दिया था कि जिसका अल्लाह ने आदेश दिया था।

इस्लाम से पहले ईश्वरीय किताबों के मानने वाले, जिनमें हज़रत मूसा (अ) और हज़रत ईसा (अ) के मानने वाले शामिल हैं, काबे को हमेशा एक पवित्र स्थल के रूप में ही मानते थे। यहां तक कि उस समय की ईरानी जनता भी पवित्र काबे की ज़ियारत करने जाया करती थी और इस पवित्र स्थान पर मंहगे-मंहगे और मूल्यवान तोहफे चढ़ाया करती थी। इस्लाम के आगमन से कई शताब्दियों पहले, मक्का के बुज़ुर्गों ने काबे के चारों ओर मूर्तियां रखीं, जो धीरे-धीरे हज की रस्मों का हिस्सा बन गईं थीं। इसके अलावा, कई वर्षों के दौरान कई अन्य ग़ैर इस्लामी रस्मों ने भी इस पवित्र स्थल पर अपना रास्ता बना लिया था और जब ईश्वर के अंतिम दूत पैग़म्बरे इस्लाम हज़रत मोहम्मद मुस्तफ़ा अल्लाह की ओर से (स) अरब की ज़मीन पर पैग़म्बर के रूप में भेजे गए तब यह पूरी ज़मीन अज्ञानता, अंधविश्वास और मूर्तिपूजा लोगों के जीवन का अभिन्न अंग बन चुकी थी। लेकिन मक्का की विजय के बाद, पैग़म्बरे इस्लाम (स) अपने साथियों की मदद से और विशेष रूप से अपने प्रिय चचेरे भाई, उनके उत्तराधिकारी हज़रत अली (अ) की मदद से पवित्र काबे को मूर्तियों और बुतों से पूरी तरह से पाक साफ़ कर दिया। उन्होंने लोगों के विचारों से अंधविश्वास को दूर किया और मुसलमानों को उसी प्रामाणिक हज़रत इब्राहीम (अ) के तरीक़े से हज की रस्में सिखाईं। तब से, हर साल इस्लामी कैलेंडर के अंतिम महीने ज़िल्हिज्जा के पहले दशक में, दुनिया भर के मुसलमान अंतिम पैग़म्बरे की तरह पवित्र हज के संस्सकारों को अंजाम देने के लिए पवित्र शहर मक्का की यात्रा करते हैं।

अल्लाह पवित्र क़ुरआन के सूरे "हज" में हज का परिचय कराने के बाद, हज के संस्कारों को अपनी निशानियां बताता है और इनको अंजाम देने वालों को अपना ख़ास बंदा क़रार देता है। जैसा कि हमने कार्यक्रम के आरंभ में कहा कि हज केवल एक इबादत नहीं है, बल्कि यह पूरी दुनिया के मुसलमानों के बीच एकता और एकजुटता के लिए किए जाने वाले प्रयासों का अभ्यास है। हज जहां अल्लाह के सामने विनम्रता और उसकी बंदगी का इज़हार है वहीं मुसलमानों की एकता और भाईचारे की निशानी भी है। इस महा धार्मिक सम्मेलन में अमीर-ग़रीब, श्वेत-अश्वेत, सब एक साथ हैं। किसी भी क़बीले, नस्ल और राष्ट्रीयता के मुसलमान एक उद्देश्य और एक समान लक्ष्य के साथ सभी एक ही काम अंजाम देते हैं और वह है अल्लाह की इबादत और उसके द्वारा बताए गए हज के संस्कार। हज इंसानी ज़िन्दगी का स्तंभ और ऐसे अहम संदेश व पाठ पर आधारित है कि जिसमें इंसानी ज़िन्दगी के व्यक्तिगत व सामाजिक आयाम शामिल हैं। हज इस्लामी जगत के बीच एकता के प्रतीक होने के साथ-साथ मुसलमानों के बीच एकता को नुक़सान पहुंचाने वाले हर कारण को रोकने और मतभेद पैदा करना विशेषकर शिया-सुन्नी के बीच फूट डालने वालों के मुंह पर तमाचा है।

पैग़म्बरे इस्लाम ने अपने जीवन के अंतिम हज में मुसलमानों को भाई चारे और एकता का आह्वान किया तथा एक दूसरे के अधिकारों का हनन करने से मना किया और कहा हे लोगो! मेरी बात सुनो शायद इसके बाद मैं तुमसे इस स्थान पर भेंट न करूं। हे लोगों! तुम्हारा जीवन और धन एक दूसरे के लिए आज के दिन और इस महीने की भांति उस समय तक सम्मानीय हैं जब तुम ईश्वर से भेंट करोगे और उन पर हर प्रकार का अतिक्रमण हराम है। अब मुसलमानों के विभिन्न गुट व दल इस्लामी जगत के प्रतिनिधित्व के रूप में सऊदी अरब के पवित्र नगर मक्का और मदीना गए हैं ताकि इस्लामी इतिहास की निर्णायक एवं महत्वपूर्ण घटनाओं की याद ताज़ा करें। पैग़म्बरे इस्लाम की अनुशंसाओं को याद करें और एक दूसरे के साथ भाई चारे व समरसता के साथ उपासना की घाटी में क़दम रखें। विशेषकर इस वर्ष कि जब इस्लामी जागरुकता व चेतना तथा मुसलमानों की पहचान की रक्षा, बहुत महत्वपूर्ण विषय हो गई है। इस बात में कोई संदेह नहीं है कि इस्लामी जागरुकता हज के मौसम में मुसलमानों के एक स्थान पर एकत्रित होने का एक प्रतिफल है। इस आधार पर इस्लामी जागरुकता को मज़बूत करने के लिए हज का मौसम एक मूल्यवान अवसर है जो विभिन्न धर्मों व सम्प्रदायों के लोगों के मध्य एकता व वैचारिक समरसता से व्यवहारिक होगा। इस्लाम एक परिपूर्ण धर्म के रूप में मनुष्य की समस्त आवश्यकताओं पर ध्यान देता है और वह मनुष्य की समस्त प्राकृतिक आवश्यकताओं की पूर्ति करने वाला है। इस्लाम ने मनुष्य के अस्तित्व की पूर्ण पहचान के कारण महान ईश्वर ,मनुष्य और मनुष्यों के एक दूसरे के साथ संबंध के बारे में विशेष व्यवहार व क़ानून निर्धारित किया है। हज और उसके संस्कार इसी कार्यक्रम में से हैं जो मनुष्य की प्रगति व विकास में प्रभावी हो सकता है।  हज का सुपरिणाम हर प्रकार के व्यक्तिगत, जातीय और वर्गिय भेदभाव से मुक्ति है। जिसे हमे हमेशा याद रखना चाहिए।

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