अगर रूस नहीं तो फिर दुनिया में अमेरिका के लिए कौन है सबसे बड़ा ख़तरा? रूस-यूक्रेन युद्ध के बीच भी वॉशिंग्टन अपने टार्गेट पर रखे हुए है नज़र!
(last modified 2022-05-29T13:58:53+00:00 )
May २९, २०२२ १९:२८ Asia/Kolkata
  • अगर रूस नहीं तो फिर दुनिया में अमेरिका के लिए कौन है सबसे बड़ा ख़तरा? रूस-यूक्रेन युद्ध के बीच भी वॉशिंग्टन अपने टार्गेट पर रखे हुए है नज़र!

युक्रेन युद्ध में रूस के ख़िलाफ़ मोर्चेबंदी में अगुवाई कर रहा अमेरिका जिस तरह हिंद प्रशांत क्षेत्र में अपनी सक्रियता और सहयोग के दरवाजे खोल रहा है उससे साफ़ हो गया है कि अमेरिका के लिए रूस से ज़्यादा बड़ा अगर की ख़तरा है तो वह है चीन।

26 मई को अमेरिकी विदेशमंत्री एंटनी ब्लिंकेन ने जॉर्ज वाशिंगटन विश्वविद्यालय में एक भाषण दिया जिसमें उन्होंने बाइडन प्रशासन की चीन को लेकर नीति की दशा, दिशा, और नज़रिया तीनों पर विस्तार से चर्चा की। इस भाषण की सनसनीखेज़ बातों में एक यह रही कि रूस-यूक्रेन युद्ध के शुरू होने के बाद पहली बार ब्लिंकेन ने कहा "पश्चिमी देशों के रूस-यूक्रेन युद्ध में उलझे होने के बावजूद अमेरिका का ध्यान भटका नहीं है। उसे मालूम है कि विश्व व्यवस्था के लिए चीन सबसे बड़ा और दूरगामी ख़तरा है। अमेरिका इस चुनौती का डटकर सामना करेगा।" हालांकि रूस द्वारा यूक्रेन में आरंभ किए गए विशेष सैन्य ऑप्रेशन से पड़ने वाले प्रभाव को झेल रहे यूरोपीय संघ और ब्रिटेन समेत यूरोप के तमाम देशों को अमेरिका की यह बात रास नहीं आई है। वहीं हिन्द-प्रशांत क्षेत्र के लिए यह ख़बर चिंताजनक है, क्योंकि जहां-जहां अमेरिका की नज़र पड़ी है वहां-वहां स्थिति बद से बदतर ही हुई है। यह यूं कहें कि जहां आग न लगती हो वहां आग लगाने का का कार्य अगर कोई सबसे अच्छी तरह से कर सकता है तो वह अमेरिका ही है।

अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन और यूक्रेन के राष्ट्रपति व्लोदिमेर ज़ेलेंस्की

रूस-यूक्रेन युद्ध के शुरू होने के बाद हिंद-प्रशांत के तमाम देशों को यह भी लगने लगा कि यूरोप के साथियों की मदद के लिए नाटो के अगुआ के तौर पर अमेरिका ना सिर्फ युद्ध में बढ़ चढ़ कर हिस्सा लेगा बल्कि शायद अब उसका ध्यान भी यूरेशिया और अटलांटिक की ओर ही रहेगा। हालांकि हाल के दिनों में अमेरिकी गतिविधियों से साफ है कि आर्थिक और सैन्य रूप से दबाव महसूस करने के बावजूद वह हिन्द-प्रशांत क्षेत्र को छोड़ कर कहीं नहीं जा रहा। इस सन्दर्भ में हाल में हुई चार बातों पर गौर कीजिए। पहली बात, आसियान के देशों से बातचीत के दौरान अमेरिका ने संबंधों को लेकर प्रतिबद्धता के साथ-साथ, आसियान की केन्द्रीय भूमिका और अमेरिका के सतत सहयोग पर भी ज़ोर दिया। दूसरी बात, बाइडन प्रशासन ने जापान में क्वाड की बैठक के दौरान इंडो पैसिफिक इकनोमिक फ्रेमवर्क की औपचारिक घोषणा कर दी। तीसरी बात, क्वाड की प्रतिबद्धता, और रूस पर मतभेद पर भी भारत से दोस्ती, साथ ही क्वाड के संयुक्त अभिभाषण में रूस पर ज़्यादा ज़ोर ना देकर हिंद-प्रशांत को केंद्र में रखा। चौथी और अंतिम बात, ताइवान को लेकर अमेरिका के गंभीर और तीखे तेवर

चीन के राष्ट्रपति शी जिंगपिंग और अमेरिका के राष्ट्रपति जो बाइडन

जॉर्ज वाशिंगटन विश्वविद्यालय में ब्लिंकेन के चीन संबंधी भाषण ने इस सिलसिले में पांचवीं कड़ी जोड़ दी है जिसके नतीजे दूरगामी होंगे। अमेरिकी विदेश नीति के जानकारों में आम तौर पर इस बात को लेकर सहमति है कि रिपब्लिकन सरकारों के मुक़ाबले डेमोक्रैट चीन को लेकर ज़्यादा नरमी बरतते हैं। पिछले पांच दशकों में डेमोक्रैट सरकारों ने चीन को अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था से जोड़ने और इस समाजीकरण के ज़रिये चीन के चरित्र को बदलने पर ज़ोर दिया। चीन ने अमेरिका की इस सोच से काफी फ़ायदा उठाया। 90  के दशक में चीन की अच्छे पड़ोसी की नीति और 2000 के दशक में चीन के शांतिपूर्ण विकास के सिद्धांतों ने इस बात को और मज़बूती दी। लेकिन इस बीच अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रम्प की हठधर्मी वाली नीति के बीच नौबत यहां तक आ गई कि अमेरिका और चीन एक लंबे और कष्टकारी व्यापार युद्ध में फंस गए जिसका अंत अभी तक नहीं हुआ है। ट्रम्प के बाद जो बाइडन की सरकार आने के बाद यह माना जाने लगा था कि शायद पिछली डेमोक्रैटिक सरकारों की तरह बाइडन भी चीन पर मिलाजुला रुख ही रखेंगे और ट्रम्प की तरह बिना-सिर पैर की नीतियों को लागू करने की कोशिश नहीं करेंगे। लेकिन हुआ बिल्कुल उसके उल्टा। बाइडन भी ट्रम्प के रास्ते पर चल निकले और चीन समेत कई ऐसे देश कि जिसके बारे में यह आशा व्यक्त की जा रही थी कि बाइडन प्रशासन दुनिया में शांति और वार्ता के साथ दुनिया को युद्ध की नीति से दूर करने की कोशिश करेगा, लेकिन उनके आने के बाद तो इस समय दुनिया तीसरे विश्व युद्ध के मुहाने पर आकर खड़ी हो गई है।  

अमेरिकी विदेश मंत्री एंटनी ब्लिंकेन

कुल मिलाकर अमेरिकी विदेश मंत्री एंटनी ब्लिंकेन का 26 मई का भाषण इसी नीति की एक झलक पेश करता है। वहीं जानकारों का मानना है कि अमेरिका के लिए चीन को अंतर्राष्ट्रीय नियमबद्ध व्यवस्था के लिए ख़तरा और अपनी प्रभुसत्ता के लिए चुनौती बता देने भर से कुछ नहीं होगा। उसे इस चुनौती से निपटने के लिए उसे ठोस, बहुआयामी, और लम्बे समय तक कारगर रहने वाले क़दम उठाने पड़ेंगे। वहीं रूस कभी भी वैश्विक अर्थव्यवस्था, भौगोलीकरण, और उदारवाद का ना बड़ा हिस्सा रहा और ना ही चीन की तरह उसने इससे फ़ायदा उठाया है। चीन आज अमेरिका और पश्चिमी देशों के सहारे ही दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी आर्थिक शक्ति बन सका है। यही वजह है कि रूस के मुक़ाबले चीन को विश्वव्यवस्था से हटा पाना अमेरिका के लिए मुश्किल चुनौती है। वहीं दूसरी बड़ी वजह यह है कि चीन के मुक़ाबले रूस का प्रभावक्षेत्र अब बहुत सीमित है। दुनिया भर में रूस के बहुत दोस्त हैं और चीन के मुक़ाबले तो बहुत ही ज्यादा, लेकिन इनकी मदद से रूस विश्वव्यवस्था का तोड़ ना बनना चाहता है और ना ही बनाना। इसके उलट चीन की कुछ ऐसी ही मंशा है खास तौर पर बेल्ट और रोड परियोजना के दृष्टिकोण से। अमेरिका इस बात से भी वाक़िफ है कि रूस यूरेशिया और यूरोप पर अपना दबदबा बनाने की कोशिश करेगा जहां ब्रिटेन, फ्रांस, और जर्मन जैसी पुरानी यूरोपीय ताक़तें मौजूद हैं। यह कभी रूस के रास्ते को आसान बनने नहीं देंगी। हालांकि हिंद-प्रशांत की शक्तियों जापान, भारत, और आस्ट्रेलिया का हाथ थामे बिना इनका काम नहीं चलेगा। (RZ)

                            * लेखक के विचारों से पार्स टूडे का सहमत होना आवश्यक नहीं है*        

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