Feb ०९, २०१६ ०२:०० Asia/Kolkata

तकफ़ीरी आतंकवाद का इस्लामी शिक्षाओं से कोई लेना-देना नहीं है।

तकफ़ीरी आतंकवाद का इस्लामी शिक्षाओं से कोई लेना-देना नहीं है। इस्लाम की शिक्षाएं तो लोगों को इंसान बनाने और उसे बुरी इच्छाओं के चंगुल से बचाने के लिए हैं। पिछले कार्यक्रम में हमने सुन्नी संप्रदाय के चार मतों में से एक हंबली मत के बारे में चर्चा की थी। इस बात का भी उल्लेख किया था कि वह्हाबी, तकफ़ीरी प्रक्रिया के सिलसिले की एक कड़ी के रूप में अपने विचारों का आधार अहमद बिन हंबल के विचार को बताते हैं। हंबली मत में चूंकि पैग़म्बरे इस्लाम की हदीसों अर्थात कथनों और पवित्र क़ुरआन की आयतों के विदित अर्थ को ही आधार माना जाता है इसलिए सलफ़ियों के लिए ख़ुद को इस मत से जोड़ने के लिए उचित पृष्ठिभूमि मुहैया हो गयी। इसलिए सलफ़ियों के पास ख़ुद को अहमद बिन हंबल से जोड़ने के सिवा कोई और चारा नहीं है।

 

 

हालांकि ख़ुद सलफ़ियों में भी कई शाखाएं हैं और वह्हाबी भी उसी की एक शाखा है। सलफ़ियों की विभिन्न शाखाओं के बारे में आपको बताएंगे किन्तु इस कार्यक्रम में आपको सलफ़ियों की आस्था और अहमद बिन हंबल के विचार के बीच संबंध का उल्लेख करेंगे। अहमद बिन हंबल के बहुत से अनुयाइयों का यह मानना है कि वह्हाबी तकफ़ीरियों के विचार का अहमद बिन हंबल के विचारों से कोई संबंध नहीं है। हंबली मत के धर्मगुरुओं ने वह्हाबी सलफ़ियों के ख़िलाफ़ कि जो इब्ने तैमिया के विचारों पर आधारित सलफ़ी मत का क्रम है, अनेक किताबें लिखी हैं। अगर अहमद बिन हंबल और सलफ़ियों के वैचारिक आधार पर उचटती नज़र डालें तो इन दोनों मतों के दृष्टिकोण में स्पष्ट अंतर दिखाई देगा। दोनों दृष्टिकोणों के बीच पहला अंतर इस वास्तविकता में निहित है कि हर दौर में सलफ़ियों में सबसे बड़े दुश्मन ख़ुद हंबली रहे हैं। बरबहारी के दौर में, हंबलियों ने ख़ुद उसका विरोध किया। सातवीं हिजरी क़मरी में जब इब्ने तैमिया ने सलफ़ी मत की बुनियाद रखी तो हंबली धर्मगुरुओं ने उनका विरोध किया। बारहवीं हिजरी में जिन लोगों ने सबसे पहले मोहम्मद बिन अब्दुल वह्हाब का विरोध किया वह ख़ुद उनके बाप और भाई थे और वे ख़ुद हंबली मत के अनुयायी थे। यहां तक कि मोहम्मद बिन अब्दुल वह्हाब के भाई सुलैमान बिन अब्दुल वह्हाब ने उनके विचारों के ख़िलाफ़ एक किताब लिखी जिसका नाम ‘अस्वाएक़ुल इलाहिया’ है। इस प्रकार हम देखते हैं तो इतिहास में हंबली ही सलफ़ी विचारों के सबसे बड़े विरोधी रहे हैं।

 

 

 

दूसरा अंतर यह है कि अहमद बिन हंबल ने ‘अहले हदीस’ मत के चरमपंथी दृष्टिकोण को संतुलित किया। अहले हदीस अपने मत का आधार मुसलमानों के तीसरे ख़लीफ़ा हज़रत उस्मान के मत को बताते थे। इसी प्रकर अहमद बिन हंबल ने विभिन्न संप्रदायों को व्यवस्थित किया। सलफ़ी विचार ने न सिर्फ़ यह कि इस्लामी संप्रदायों के बीच फूट की आग को भड़काया बल्कि हंबली मत के भीतर भी फूट डाल दी। जिस वक़्त अहले हदीस का एक समूह मुसलमानों के चौथे ख़लीफ़ा, पैग़म्बरे इस्लाम के दामाद, हज़रत अली को गाली देता था उस वक़्त अहमद बिन हंबल ने इसका कड़ाई से विरोध किया। अहमद बिन हंबल ने ख़तरों के बावजूद पैग़म्बरे इस्लाम के पवित्र परिजनों का समर्थन किया और सुन्नी संप्रदाय के बीच उनके स्थान को बयान किया। यह ऐसी हालत में है कि सलफ़ी मत पूरी तरह अलग दिशा में आगे बढ़ा और उसने अहमद बिन हंबल की उन हदीसों को नक़ली कहा जो हज़रत अली अलैहिस्सलाम और उनके परिवार के सदस्यों के उच्च स्थान को बयान करती थीं। इसी प्रकार सलफ़ियों ने पैग़म्बरे इस्लाम के पवित्र परिजनों पर झूठे आरोप लगाए। हालांकि हंबली मत के विचारों में ईश्वर के साकार होने का उल्लेख मिलता है लेकिन उस हद तक नहीं जितना इस संदर्भ में सलफ़ी मत के विचारों में उल्लेख मौजूद है। दूसरे शब्दों में सलफ़ी मत ने पवित्र क़ुरआन की आयतों का विदित अर्थ निकालने में सबको पीछे छोड़ दिया। इसी प्रकार इब्ने तैमिया और मोहम्मद बिन अब्दुल वह्हाब के विचारों में ऐसी बातें मौजूद हैं जो अहमद बिन हंबल के विचारों में मौजूद नहीं हैं। जैसे ईश्वर से प्रार्थना में पैग़म्बरे इस्लाम और उनके पवित्र परिजनों की दोहाई देना और पैग़म्बरे इस्लाम के उच्च स्थान को गिराना।

 

 

ये वे बाते हैं जो अहमद बिन हंबल के विचारों में मौजूद नहीं हैं। इन विचारों को सलफ़ियों ने गढ़ा है। इस बात में शक नहीं कि अगर अहमद बिन हंबल ज़िन्दा होते और सलफ़ी-तकफ़ीरी विचारों को देखते तो उनसे ख़ुद को अलग कर लेते। सलफ़ी मत हर प्रकार के चिंतन मनन के ख़िलाफ़ है। सुन्नी संप्रदाय के विचारक सामिर इस्लामबुली, सलफ़ी मत की व्याख्या में कहते हैं कि सलफ़ी मत ने चूंकि पवित्र क़ुरआन और पैग़म्बरे इस्लाम के आचरण व कथन की समझ को पैग़म्बरे इस्लाम के अनुयाइयों की समझ पर निर्भर कर दिया है इसलिए वे वैचारिक संकीर्णता का शिकार हो गए हैं। अगर किसी सलफ़ी से बात करे तो इब्ने तैमिया के अंदाज़ में बात करेगा और निरंतर आपसे पूर्वजों की बात का हवाला देगा। वे अपने मत में बुद्धि को शामिल नहीं करते बल्कि पैग़म्बरे इस्लाम और महापुरुषों के कथनों को आधार मानते हैं इसलिए वे शास्त्रार्थ से भागते हैं और सिर्फ़ उसी बात को मानते हैं जिसके बारे में ठोस आधार हो।

सलफ़ी, पूर्वजों को विश्वसनीयता दिलाने के लिए, सभी आयाम से उन्हें स्रोत दर्शाने की कोशिश करते हैं। सलफ़ी इस बात की कोशिश करते हैं पूर्वजों के सभी कर्म, व्यवहार और कथन को मौजूदा दौर के लिए आदर्श क़रार दें और आने वाली पीढ़ी से हर प्रकार के चिंतन मनन की क्षमता को ख़त्म कर दें।

सलफ़ी मत का मानना है कि पैग़म्बरे इस्लाम के निष्ठावान अनुयाइयों और इन अनुयाइयों के अनुसरणकर्ताओं के कथन और व्यवहार को राजनैतिक, सामाजिक, आर्थिक और आस्था सहित सभी क्षेत्रों में, आदर्श समझना चाहिए। चरमपंथी सलफ़ियों का मानना है कि पूर्वजों की शैली में किसी प्रकार का फेर-बदल वर्जित है।

 

 

सलफ़ अर्थात पूर्वजों के अनुसरण के बारे में प्रसिद्ध सुन्नी धर्मगुरु अबू हामिद ग़ज़ाली का मानना है, “जो कुछ पैग़म्बरे इस्लाम से हम तक पहुंचा, उसे आंख बंद करके अपना लिया, जो कुछ पैग़म्बरे इस्लाम के साथियों से हम तक पहुंचा उसमें से कुछ अपनाया और कुछ छोड़ दिया लेकिन जो कुछ पैग़म्बरे इस्लाम के साथियों का अनुसरण करने वालों से हम तक पहुंचा, उसके बारे में यह समझना चाहिए कि वह भी आदमी हैं और हम भी आदमी हैं।”

सुन्नी संप्रदाय और सलफ़ियों के बीच सलफ़ अर्थात पूर्वजों के संबंध में पहला अंतर उनका अनुसरण करने की ‘सीमा’ को लेकर है। सलफ़ी सुन्नी संप्रदाय की सभी सीमाओं को पार कर गए और नया दृष्टिकोण पेश किया। सलफ़ अर्थात पूर्वजों के अनुसरण को शीया भी मानते हैं लेकिन शर्त के साथ और वह शर्त यह है कि हर पूर्वज का अनुसरण नहीं किया जा सकता बल्कि उनका अनुसरण जो सदाचारी हैं। सुन्नी संप्रदाय के विपरीत वे पैग़म्बरे इस्लाम के सभी साथियों को न्यायी मानते हैं जबकि शीयों की नज़र में पैग़म्बरे इस्लाम के कुछ साथियों ने ऐसी ग़लतियां की हैं कि वे न्याय की सीमा से बाहर निकल गए, इसलिए पैग़म्बरे इस्लाम के सभी साथियों को न्यायी नहीं माना जा सकता और इसी प्रकार उनका आंख बंद करके अनुसरण भी नहीं किया जा सकता। शीया संप्रदाय पवित्र क़ुरआन की आयतों के हवाले और पैग़म्बरे इस्लाम के साथियों के बीच आपस में हुए झगड़ों के मद्देनज़र यह मानता है कि पैग़म्बरे इस्लाम के साथियों के बीच कुछ पाखंडी भी थे। पवित्र क़ुरआन की बहुत सी आयतों में पैग़म्बरे इस्लाम के कुछ साथियों को फटकार लगायी गयी है। इसलिए जब पैग़म्बरे इस्लाम के सभी साथी न्यायी नहीं थे तो इन साथियों का अनुसरण करने वाले और फिर इन अनुसरण करने वालों का अनुसरण करने वालों का न्यायी होना तो बहुत दूर की बात है। इसके अलावा इन लोगों के अन्यायी होने के बहुत से सुबूत मौजूद हैं। इसलिए शीया संप्रदाय पैग़म्बरे इस्लाम के साथियों के सिर्फ़ उस गुट का अनुसरण करते हैं जिनका अनुसरण पवित्र क़ुरआन की आयतों और पैग़म्बरे इस्लाम के आचरण के साबित होता है और वह पैग़म्बरे इस्लाम के पवित्र परिजन हैं।

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