Feb ०४, २०२५ १७:२७ Asia/Kolkata
  • क़ुरआन ईश्वरीय चमत्कार-927

सूरए ज़ुख़रुफ़, आयतें 85-89

आइए पहले सूरए ज़ुख़रुफ़ की आयत संख्या 85 की तिलावत सुनते हैं,

وَتَبَارَكَ الَّذِي لَهُ مُلْكُ السَّمَاوَاتِ وَالْأَرْضِ وَمَا بَيْنَهُمَا وَعِنْدَهُ عِلْمُ السَّاعَةِ وَإِلَيْهِ تُرْجَعُونَ (85)

इस आयत का अनुवाद हैः

और वही बहुत बरकतों वाला है जिसके लिए सारे आसमान व ज़मीन और दोनों के दरमियान की हुकूमत है और क़यामत की ख़बर भी उसी को है और तुम लोग उसकी तरफ़ लौटाए जाओगे। [43:85]

 

पिछले कार्यक्रम में अल्लाह के माबूद होने के बारे में बात हुई कि पूरी कायनात में कोई भी व्यक्ति या चीज़ इबादत किए जाने के योग्य नहीं है। आसमान के फ़रिश्तों और धरती के सारे इंसानों का माबूद और पूज्य बस अल्लाह है। अब यह आयत कहती है कि इस इबादत की वजह यह है कि पूरी कायनात उसी के अख़्तियार में है। आसमानों और ज़मीन पर और उनके बीच जो कुछ है उस सब पर हुक्मरानी सिर्फ़ अल्लाह की है। इस पूरी कायनात में उसके अलावा किसी का हुक्म नहीं चलता। वही सारी चीज़ों का पैदा करने वाला है और उसी के क़ानून और आदेश इस कायनात में चलते हैं।

दुनिया ही नहीं बल्कि क़यामत भी उसी के हाथ में है। क़यामत के आने का समय भी केवल उसी के इल्म में है। मौत के बाद सब उसी की तरफ़ लौट कर जाएंगे और तुम्हारा सरोकार उसी से है। जो भी दुनिया और आख़ेरत में अपनी क़िस्मत सवांरना चाहता है उसे चाहिए कि उस रास्ते पर चले जिसे अल्लाह ने निर्धारित किया है और बंदे के जिस पर चलने से अल्लाह राज़ी होता है। उसे चाहिए कि उन कामों से दूर रहे जिनसे अल्लाह नाराज़ होता है और अज़ाब का रास्ता खुल जाता है।

इस आयत से हमने सीखाः

दुनिया की शुरुआत और उसका अंत, हम इंसानों की दुनिया और आख़ेरत सब कुछ अल्लाह के हाथ में है।

अल्लाह के अलावा किसी को यह नहीं पता कि दुनिया कब ख़त्म होगी और क़यामत कब आएगी।

 

आइए अब सूरए ज़ुख़रुफ़ की आयत संख्या 86 की तिलावत सुनते हैं,

وَلَا يَمْلِكُ الَّذِينَ يَدْعُونَ مِنْ دُونِهِ الشَّفَاعَةَ إِلَّا مَنْ شَهِدَ بِالْحَقِّ وَهُمْ يَعْلَمُونَ (86)

इस आयत का अनुवाद हैः

और ख़ुदा के सिवा जिनको ये लोग पुकारते हैं वो तो सिफारिश का भी अख़्तियार नहीं रख़ते मगर (हॉ) जो लोग समझ बूझ कर हक़ बात (तौहीद) की गवाही दें और उन्हें ख़ुद पता है।[43:86]

 

लोगों के शिर्क में पड़ जाने की एक वजह यह है कि कुछ लोग यह समझ बैठते हैं कि कुछ चीज़ें और लोग हैं जो दुनिया और आख़ेरत में अल्लाह से उनकी सिफ़ारिश कर सकते हैं और उनके ज़रिए अल्लाह की रहमत उन लोगों को प्राप्त हो सकती है। इसीलिए वे उन चीज़ों या लोगों से मदद मांगते हैं।

यह आयत कहती है कि अल्लाह की अदालत में सिफ़ारिश तो होती है लकिन यह अधिकार उनके पास नहीं जिनके बारे में तुम सोचते हो, उनके पास किसी की कोई सिफ़ारिश करने का कोई अधिकार नहीं है। अल्लाह की बारगाह में केवल उसी की अनुमति से ही कोई सिफ़ारिश की जा सकती है। दरअस्ल सिफ़ारिश का अख़्तियार केवल उनको है जिनका अमल और जिनकी बातें हमेशा हक़ और सत्य पर आधारित रहीं और जो सत्य की राह पर चलने के सिलसिले में अच्छे आदर्श हैं।

जिन लोगों ने अल्लाह की तौहीद को स्वीकार किया है वे हक़ बात के सामने सिर झुका देते हैं और केवल उसी रास्ते पर चलते हैं जिसे अल्लाह ने इंसान के कल्याण के लिए निर्धारित किया है। इन लोगों को पता है कि किन इंसानों की सिफ़ारिश की जानी चाहिए और उन्हें यह भी मालूम है कि अल्लाह ने किन लोगों को सिफ़ारिश का अधिकार दिया है। वे लोग अल्लाह की अनुमति से उनकी सिफ़ारिश करेंगे जो सिफ़ारिश किए जाने योग्य हैं। उनकी सिफ़ारिश से अल्लाह की रहमत के दरवाज़े खुलते हैं।

इस आयत से हमने सीखाः

जिस तरह तौबा अल्लाह के रास्ते की तरफ़ वापस लौटने का रास्ता है उसी तरह शिफ़ाअत या सिफ़ारिश भी लोगों को अल्लाह की जानिब वापस लाने का ज़रिया है मगर यह काम अल्लाह के ख़ास बंदों के ज़रिए अंजाम दिया जाता है।

जो लोग सत्य के रास्ते पर हैं उन्हें चाहिए कि दूसरों की भी मदद करें और उन्हें भी इसी रास्ते पर लाएं, यही अस्ली शिफ़ाअत है।

आइए अब सूरए ज़ुख़रुफ़ की आयत संख्या 87 की तिलावत सुनते हैं,

وَلَئِنْ سَأَلْتَهُمْ مَنْ خَلَقَهُمْ لَيَقُولُنَّ اللَّهُ فَأَنَّى يُؤْفَكُونَ (87)

इस आयत का अनुवाद हैः

और अगर तुम उनसे पूछोगे कि उनको किसने पैदा किया तो ज़रूर कह देगें कि अल्लाह ने फिर (बावजूद इसके) ये कहाँ बहके जा रहे हैं। [43:87]  

पिछली आयत में शिफ़ाअत और सिफ़ारिश की बात की गई अब इसी क्रम को आगे बढ़ाते हुए यह आयत इस बारे में बात करती है कि जब मुशरिक कोशिश करेंगे कि अल्लाह के अलावा कोई और उनकी शिफ़ाअत कर दे। यह आयत इस पर सवाल उठाते हुए कहती है कि तुम जब अल्लाह को दुनिया और अपना ख़ालिक़ समझते हो तो फिर किसी और से सिफ़ारिश की उम्मीद क्यों रखते हो? क्या यह उनकी इबादत तो नहीं है? क्योंकि इबादत तो सिर्फ़ उसकी हो सकती है जिसने इस कायनात को पैदा किया है। तुम यह किस तरह की गुमराही में फंस गए हो? तुम उन चीज़ों और लोगों के सामने सिर झुकाते हो जिनका कोई मरतबा नहीं है। तुम अल्लाह को छोड़कर दूसरों की इबादत करते हो और यह उम्मीद लगाते हो कि वे अल्लाह की बारगाह में तुम्हारी सिफ़ारिश करेंगे?

इस आयत से हमने सीखाः

मुशरिक भी यह मानते हैं कि पैदा करने वाला अल्लाह ही है। उनकी समस्या इस बारे में है कि इंसानों के मामलों का संचालन कौन करता है और उनका पालने वाला कौना है। मुशरिकों को लगता है कि यह काम कुछ बेजान चीज़ें करती हैं और दूसरों को इसमें भागीदार मानते हैं।

तौहीद के अक़ीदे से भटक जाना इंसानी फ़ितरत से दूर होने के अर्थ में है।

आइए अब सूरए ज़ुख़रुफ़ की आयत संख्या 88 और 89 की तिलावत सुनते हैं,

وَقِيلِهِ يَا رَبِّ إِنَّ هَؤُلَاءِ قَوْمٌ لَا يُؤْمِنُونَ (88) فَاصْفَحْ عَنْهُمْ وَقُلْ سَلَامٌ فَسَوْفَ يَعْلَمُونَ (89)

 

इन आयतों का अनुवाद हैः

और हमारे रसूल का यह कहना है कि परवरदिगार यह ऐसी क़ौम है जो हरगिज़ ईमान नही लाएगी। [43:88]    तो तुम उनसे मुँह फेर लो और कह दो कि तुम को सलाम, तो उन्हें अनक़रीब ही (शरारत का नतीजा) मालूम हो जाएगा।[43:89]

यह आयतें जो सूरए ज़ुख़रुफ़ की आख़िरी आयतें हैं तौहीद और शिर्क की बहस के आख़िर में कहती हैं कि रसूले ख़ुदा की दिन रात कोशिशों के बावजूद और उनकी हिदायत के लिए उनसे की जाने वाली बातचीत के बावजूद उनमें कुछ हैं जो ईमान लाने पर तैयार नहीं हुए और न ही आगे भी उनका ईमान लाने का कोई इरादा है। हालांकि वे हक़ को समझ चुके हैं मगर मगर पैग़म्बर की रौशन और हक़ बातें उनके पत्थरीले दिल पर असर नहीं करतीं और वे इन बातों को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं हैं क्योंकि यह बातें उनके दुनियावी फ़ायदों और लज़्ज़तों में रुकावट हैं।

इसलिए अल्लाह अपने पैग़म्बर से कहता है कि तुमने उन पर हुज्जत तमाम कर दी, हक़ और सत्य उन तक पहुंचा दिया, अब उनसे मुंह मोड़ लो, उन्हें उनके हाल पर छोड़ दो उनको यूं ही रहने दो ताकि वे इस ग़लतफ़हमी में न पड़ें कि तुम उनके ईमान लाने के ज़रूरतमंद हो और उन्हें ईमान लाने पर मजबूर करना चाहते हो। उनसे ख़ुदा हाफ़िज़ी कर लो और उन्हें जिस रास्ते पर वे चाहें जाने दो। इसके साथ ही आयतें उन्हें बड़े अर्थपूर्ण अंदाज़ में चेतावनी देती हैं कि वे इस ग़लतफ़हमी में न रहें कि अल्लाह उनसे कोई मतलब नहीं रखेगा बल्कि बहुत जल्द उन्हें पता चलेगा कि उनके कर्मों का क्या अंजाम हैं

इन आयतों से हमने सीखाः

दीनी रहबरों और उपदेशकों को यह उम्मीद नहीं रखनी चाहिए कि सारे लोग ईमान लाएं और हक़ बात को स्वीकार कर लें।

जब विरोधियों पर हुज्जत तमाम हो जाए तो फिर अब उनकी ख़ुशामद करने या उन्हें मजबूर करने की कोई ज़रूरत नहीं है बल्कि उन्हें छोड़ देना चाहिए कि वे अपनी मर्ज़ी से जिस रास्ते का चाहें चयन करें।