क़ुरआन ईश्वरीय चमत्कार-991
सूरए क़मर आयतें, 33 से 42
आइए सबसे पहले सूरए क़मर की आयत संख्या 33 से 35 तक की तिलावत सुनते हैं,
كَذَّبَتْ قَوْمُ لُوطٍ بِالنُّذُرِ (33) إِنَّا أَرْسَلْنَا عَلَيْهِمْ حَاصِبًا إِلَّا آَلَ لُوطٍ نَجَّيْنَاهُمْ بِسَحَرٍ (34) نِعْمَةً مِنْ عِنْدِنَا كَذَلِكَ نَجْزِي مَنْ شَكَرَ (35)
इन आयतों का अनुवाद हैः
लूत की क़ौम ने भी डराने वालों को झुठलाया [54:33] तो हमने उन पर कंकर भरी हवा चलाई मगर लूत के परिवार को हमने सुबह तड़के ही बचा लिया [54:34] यह (नजात) हमारी तरफ़ से नेमत थी, हम शुक्र करने वालों को ऐसा ही बदला दिया करते हैं। [54:35]
सूरह अल-क़मर में चौथी क़ौम जिसके बुरे अंजाम का ज़िक्र किया गया है, वह क़ौम-ए-लूत है जिसने पैग़म्बरों की चेतावनियों को नज़रअंदाज़ किया। इस क़ौम में पुरुषों के बीच समलैंगिक संबंध एक आम बुराई बन चुकी थी, उनके पैग़म्बर हज़रत लूत अलैहिस्सलाम ने बार-बार इस गंदी आदत की बुराई और इसके भयानक नतीजों के बारे में चेतावनी दी, लेकिन वे नहीं माने। बजाय इसके कि वे हज़रत लूत की समझदारी भरी बातों को मानते, उन्होंने उन्हें शहर से निकाल देने और उनकी नसीहतों से छुटकारा पाने की साजिश रची।
तब अल्लाह ने उन पर एक भयानक आंधी और तूफ़ान भेजा, जिसने रेगिस्तान के बड़े-बड़े पत्थरों और रेत को आसमान में उछाल दिया और फिर वह सब एक साथ उस बदकार और गुनहगार क़ौम पर गिरा दिया गया। नतीजतन, वे सब और उनके घर रेत और पत्थरों के नीचे दब गए और सब के सब मिट गए। हालाँकि, अज़ाब आने से पहले अल्लाह ने हज़रत लूत को हुक्म दिया कि वे अपने परिवार को लेकर सिवाय अपनी पत्नी के, जो काफिरों के साथ मिल गई थी, शहर से निकल जाएँ ताकि वे अज़ाब से बच जाएँ।
इन आयतों से हमने सीखाः
चेतावनी देना हर पैग़म्बर का फ़र्ज़ रहा है, लेकिन ज़्यादातर लोग इन चेतावनियों को नज़रअंदाज़ कर देते हैं और सबक नहीं लेते।
अल्लाह का इंसाफ़ यह है कि अज़ाब आने पर ईमान वालों को बचा लिया जाता है ताकि नेक और बदकार साथ-साथ नष्ट न हों।
पैग़म्बरों की दावत को मानना और अल्लाह के हुक्मों का पालन करना एक तरीक़ा-ए-शुक्र और शुक्राना है, जो दुनिया में ही नेमतों और अज्र का सबब बनता है।
अब आइए सूरए क़मर की आयत संख्या 36 से 40 तक की तिलावत सुनते हैं,
وَلَقَدْ أَنْذَرَهُمْ بَطْشَتَنَا فَتَمَارَوْا بِالنُّذُرِ (36) وَلَقَدْ رَاوَدُوهُ عَنْ ضَيْفِهِ فَطَمَسْنَا أَعْيُنَهُمْ فَذُوقُوا عَذَابِي وَنُذُرِ (37) وَلَقَدْ صَبَّحَهُمْ بُكْرَةً عَذَابٌ مُسْتَقِرٌّ (38) فَذُوقُوا عَذَابِي وَنُذُرِ (39) وَلَقَدْ يَسَّرْنَا الْقُرْآَنَ لِلذِّكْرِ فَهَلْ مِنْ مُدَّكِرٍ (40)
इन आयतों का अनुवाद हैः
और (लूत ने) उनको हमारी पकड़ (अज़ाब) से भी डराया था मगर उन लोगों ने डराने के बारे में ही में बहस की। [54:36] और उनसे उनके मेहमान (फ़रिश्ते) का (कुकर्म के लिए) मुतालबा किया तो हमने उनकी ऑंखें अन्धी कर दीं, (और मैने कहा) मेरे अज़ाब और डराने का मज़ा चखो [54:37] और सुबह सवेरे ही उन पर अज़ाब आ गया जो किसी तरह टल ही नहीं सकता था [54:38] तो मेरे अज़ाब और डराने के मज़े चखो [54:39] और हमने तो क़ुरान को नसीहत हासिल करने के वास्ते आसान कर दिया तो कोई है जो नसीहत हासिल करे [54:40]
हज़रत लूत अलैहिस्सलाम लगातार अपनी क़ौम को उनके बुरे कामों के भयानक अंजाम से आगाह करते रहे, लेकिन उन लोगों ने उनकी बातों पर संदेह किया और उन्हें बेबुनियाद बताया। यहाँ तक कि जब अल्लाह के फ़रिश्ते ख़ूबसूरत नौजवानों के रूप में हज़रत लूत के घर पहुँचे, तो कुछ बदमाश और बेहया लोगों ने, जो हद से ज्यादा गिर चुके थे, हज़रत लूत से मेहमानों को उनके हवाले करने की माँग की!
अल्लाह के हुक्म से उन बदकारों की आँखों की रोशनी छिन गई, लेकिन न तो ख़ुद उन्होंने और न ही उनकी क़ौम ने इस खुली सज़ा से कोई सबक़ लिया। वे न केवल अपने काम पर नहीं पछताए, बल्कि हज़रत लूत की जान लेने की ठान ली। तब अल्लाह ने रातों-रात हज़रत लूत और उनके परिवार को सुरक्षित निकाल लिया, और सुबह होते ही उस बदकार क़ौम को तबाह कर दिया।
इन आयतों से हमने सीखाः
अल्लाह पहले अपने पैग़म्बरों के ज़रिए लोगों को समझा-बुझाकर हुज्जत पूरी करता है, फिर इनकार करने वालों को सज़ा देता है।
जब समाज में बुराइयाँ और फसाद इतना बढ़ जाए कि उनकी बुराई महसूस ही न की जाए, तो नेक और ईमानदार लोगों के घर भी बदमाशों और गुनहगारों से सुरक्षित नहीं रहते।
क़ुरआन कोई इतिहास की किताब नहीं है, लेकिन यह पिछली क़ौमों के हालात बयान करता है ताकि लोग सबक़ लें और सच्चाई को आसानी से स्वीकार कर सकें।
अब सूरए अल-क़मर की आयत नंबर 41 और 42 की तिलावत सुनते हैं,
وَلَقَدْ جَاءَ آَلَ فِرْعَوْنَ النُّذُرُ (41) كَذَّبُوا بِآَيَاتِنَا كُلِّهَا فَأَخَذْنَاهُمْ أَخْذَ عَزِيزٍ مُقْتَدِرٍ (42)
इन आयतों का अनुवाद हैः
और बेशक फ़िरऔन के पास भी डराने वाले आए [54:41] (लेकिन उन लोगों ने) हमारी कुल निशानियों को झुठलाया तो हमने उनको (सख़्त अज़ाब के ज़रिए) पकड़ा जिस तरह एक शक्तिशाली पकड़ा करता है। [54:42]
इस सूरे में पांचवीं क़ौम जिसका बुरा अंजाम बताया गया है, वह फ़िरऔन की क़ौम है। ये लोग फ़िरऔन को ही ख़ुदा समझते थे और उसके हर हुक्म को बिना सवाल किए मानते थे। फ़िरऔनी लोगों ने बनी इस्राईल को ग़ुलाम बना लिया था और उन पर बहुत ज़ुल्म ढाते थे।
हज़रत मूसा अलैहिस्सलाम फ़िरौन और उसके दरबारियों को एक अल्लाह की इबादत की दावत देने और बनी इस्राईल को आज़ाद कराने के लिए फ़िरऔन के पास गए। अल्लाह के हुक्म से उन्होंने फ़िरऔन और उसके लोगों के सामने कई मोजिज़े दिखाए। लेकिन उन्होंने हक़ को मानने और ज़ुल्म व कुफ़्र से बाज़ आने की बजाय, हज़रत मूसा और उनके साथियों को मार डालने का फ़ैसला किया। तब अल्लाह ने उन सभी ज़ालिमों को नील नदी में डुबोकर हलाक कर दिया।
इन आयतों से हमने सीखाः
ज़ालिम और बाग़ी हुक्मरानों की पैरवी करना और उनसे सहमत होना, इंसान को उनके दुनिया व आख़िरत के बुरे अंजाम में शरीक बना देता है।
अल्लाह के मोजिज़े लोगों को समझाने और उन पर हुज्जत पूरी करने के लिए होते हैं। लेकिन जो लोग मोजिज़े को अपनी आँखों से देखकर भी इनकार करें, वे दुनिया में ही अज़ाब में फंस जाते हैं।
पूरी दुनिया में सिर्फ़ अल्लाह की ताक़त ही अजेय है। इंसान की ताक़त चाहे कितनी भी बड़ी क्यों न लगे, अल्लाह की ताक़त के सामने बिल्कुल कमज़ोर और बेकार है।