Jun १३, २०१६ १२:२६ Asia/Kolkata

तकफ़ीरी सलफ़ीवाद, जेहादी सलफ़ीवाद, प्राचारिक सलफ़ीवाद, राजनैतिक सलफ़ीवाद और सुधारवादी सलफ़ीवाद, यह सलफ़ीवाद की पांच मुख्य शाखाएं हैं।

तकफ़ीरी सलफ़ीवाद, जेहादी सलफ़ीवाद, प्राचारिक सलफ़ीवाद, राजनैतिक सलफ़ीवाद और सुधारवादी सलफ़ीवाद, यह सलफ़ीवाद की पांच मुख्य शाखाएं हैं।

 

 सलफ़ीवाद की वैचारिक व आस्था संबंधी विचारधाराओं के बारे में पिछली चर्चाओं से कुछ बिन्दु निकाले जा सकते हैं। पहला बिन्दु यह है कि सलफ़ीवाद का अर्थ, आम और समान नहीं और इसकी विभिन्न विचारधाराओं के मध्य पूर्णरूप से विरोधाभास पाया जाता है। दूसरा यह कि यद्यपि सलफ़ीवाद के रूप में पहचानी जाने वाली विभिन्न विचारधाराएं, सभी के सभी वैचारिक दृष्टि से प्रचलित सलफ़ीवाद की श्रेणी में नहीं आतीं।

 

 इनमें से विभिन्न विचारधाराएं अपने इतिहास के दौरान रूढ़ीवादी विचारधाराओं में परिवर्तित हो गयी हैं और वहाबी सलफ़ीवाद ने उसे राजनैतिक व धार्मिक रेडिकलिज़्म के मार्ग पर लगा दिया जबकि अतीत में व्यवहारिक रूप से कम से कम ऐसा नहीं था। वैचारिक व आस्था के आधारों पर सलफ़ीवाद की समीक्षा के बाद हमने विभिन्न भौगोलिक क्षेत्रों में सलफ़ीवाद के उदाहरणों पर चर्चा करने का इरादा किया है।

 

 

भारतीय उपमहाद्वीप, मुसलमानों की बड़ी जनसंख्या वाला एक महत्वपूर्ण केन्द्र है। यद्यपि अतीत में मिस्र, इस्लामी विचार धाराओं के पोषण का केन्द्र था किन्तु प्राचीन काल में भारतीय उप महाद्वपीप भी चरमपंथी या सुधारवादी विचारधाराओं का केन्द्र रहा है। भारतीय उपमहाद्वीप में सलफ़ीवाद की जड़ों का पता लगाने के लिए 18वीं ईसवी शताब्दी और भारतीय उपमहाद्वीप के वरिष्ठ धर्मगुरु शाह वलीयुल्लाह मुहद्दिस देहलवी की ओर पलटना पड़ेगा। शाह वलीयुल्लाह, धर्मशास्त्र, वादशास्त्र, साहित्य और हदीसों सहित विभिन्न विषयों में निपुण थे।

 

18वीं शताब्दी में इस्लामी जगत में एक समय में एक साथ दो विचारधाराएं, धर्म को भ्रांतियों से दूर रखने और धर्म को पुनर्जिवित करने के नारे के साथ सामने आई। एक वहाबी विचारधारा मुहम्मद बिन अब्दुल वह्हाब के नेतृत्व में नज्द और हेजाज़ क्षेत्र में शुरु हुई और वहीं विकसित हुई। दूसरी विचारधारा का नाम देहलवी थी जो भारतीय उपमहाद्वी के क्षेत्र में अस्तित्व में आई और इस क्षेत्र के मुसलमानों के बीच यह विचारधारा विकसित हुई।

 

 शायद शाह वलीयुल्लाह ने हेजाज़ और नज्द के धार्मिक केन्द्रों में कुछ समय तक ज्ञान प्राप्त किया और हो सकता है कि उसी समय मुहम्मद बिन अब्दुल वह्हाब भी उन्हीं धार्मिक केन्द्रों में ज्ञान प्राप्त करता हो, यह भी हो सकता है कि दोनों सहपाठी हों किन्तु इस बात के साक्ष्य नहीं मिले हैं कि उन दोनों की मुलाक़ातें हुई या वे एक दूसरे के संपर्क में थे। सलफ़ीविचारधारा में वलीयुल्लाह देहलवी और मुहम्मद बिन अब्दुल वह्हाब के मध्य मूलभूत व आधारभूत अंतर पाये जाते थे जिसकी ओर हम शाह वलीयुल्लाह के विचारों की समीक्षा के बाद संकेत करेंगे।

 

 

 

शाह वलीयुल्लाह देहलवी का काल, भारत में ब्रिटिश साम्राज्यवाद की उपस्थिति का काल था। एक ओर हिंदुओं और भारतीय उपमहाद्वीप के अन्य स्थानीय धर्मों की पथभ्रष्ट विचारधाराएं, मुसलमानों को ख़तरे में डाल रही थीं और दूसरी ओर ब्रिटिश साम्राज्यवाद, भारतीय उपमहाद्वीप से मुसलमानों की संस्कृति व सभ्यता को उखाड़ फेंकने के प्रयास में था। शाह वलीयुल्लाह मुहद्दिस देहलवी ने धर्म के पुनर्जीवित के लिए हदीसवाद की शैली का सहारा लिया।

 

 उनका मानना था कि धर्म के पतन और धर्म में भ्रांति के पैदा होने का मुख्य कारण, हदीसों के स्रोतों से दूरी है और इस प्रकार उन्होंने भारतीय उपमहाद्वीप के मुसलमानों के मध्य एक बार फिर हदीसों पर नज़र रखने को जीवित करने का प्रयास किया। वे भी इब्ने तैमिया से प्रभावित थे और तौहीद अर्थात एकेश्वरवाद के मुद्दे पर कट्टरपंथी दृष्टिकोण रखते थे। उनकी नज़र में, ईश्वर के नेक बंदों ग़ैर लोगों से अपनी मांगों को पूरा करने के लिए दुआ करना, तथा बीमारियों या आपदाओं को दूर करने के लिए मनौती या मन्नत मानना, ईश्वर के अतिरिक्त दूसरे के नाम की क़सम खाना और इस प्रकार की अन्य बातें अनेकेश्वरवाद की श्रेणी में आता है।

 

इस प्रकार के व्यवहार ने उनको भारत में मौजूद सूफ़ी मत के मुक़ाबले में ला खड़ा किया। अलबत्ता, तौहीद या एकेश्वरवाद और अनेकेश्वरवाद की चर्चा के बारे में उनका दृष्टिकोण व हदीसवाद, उनके तर्क विरोधी होने के अर्थ में नहीं है। वह हदीसों की समीक्षा और धार्मिक स्रोतों के लिए इजतेहाद या धार्मिक नियमों के निकालने के लिए तर्क वितर्क को स्वीकार करते थे और उनका मानना था कि मुजतहिद या इस्लामी धर्मगुरु, नई परिस्थितियों का सामना होने पर पूर्वजों के मार्गों पर कटबद्ध रहने के बजाए उपयोगी ढंग से नये उत्तर खोज सकते हैं। इन सबके बावजूद वे इजतेहाद को मूल विषयों से हटकर धर्म के अन्य मामलों में ही मानते थे और आस्था संबंधी मामलों में उनकी दृष्टि में बुद्धि का कोई महत्व नहीं होता था।

 

 

 

उनका मानना था कि लोगों को आस्था संबंधी मामलों में अपने पूर्वजों की आस्थाओं पर अमल करना चाहिए और उनकी सुन्नत या चरित्र का अनुसरण करना चाहिए। उन्होंने उन मामलों को बयान करने से परहेज़ किया जिन्हें प्राचीन धर्मगुरुओं ने निराधार बताया था। शाह मुहद्दिस देहलवी की दृष्टि में जो चीज़ सबसे महत्वपूर्ण थी वह इस्लामी धर्मों को एक दूसरे से निकट करने का प्रयास था। उनकी दृष्टि में सुन्नी समुदाय के चार धार्मिक पंथों की विचारधाराओं में मतभेद, बहुत थोड़ा और विदित है जो क़ुरआन और सुन्नत का अध्ययन करने से दूर होने योग्य है। यही कारण है कि वह सुन्नी समुदाय के चारों धार्मिक पंथों अर्थात हनफ़ी, हंबली, मालेकी और शाफ़ेई के अनुसरण को वैध समझते थे।

 

 

 

आस्था संबंधी मामलों में भी वह इस प्रयास में थे कि सूफ़ी मत में प्रचलित दो मतों अर्थात इब्ने अरबी के दर्शनशास्त्र से प्रभावित वहदते वजूद मत और भारत के वरिष्ठ धर्मगुरु शैख़ अहमद सरहिंदी के वहदते शहूद मत को मिला दें ।

 

 उनका मानना था कि इन दो पंथों में मतभेद, आंशिक है और सिद्धांतों व अन्य मामलों में दोनों की ही आस्थाएं संयुक्त हैं। एक अन्य ध्यान योग्य बिन्दु जो उन्हें अन्य सलफ़ियों से पूरी तरह अलग करता है वह सूफ़ीवाद है। अपने पूर्वजों की भांति उनका भी यही मानना थ कि धर्म, शरीअत और तरीक़त दो भागों से मिलकर बना है और इनमें से कोई भी एक अकेले ही मनुष्य के कल्याण और उसकी कामयाबी को सुनिश्चित नहीं कर सकते। यही कारण है कि वे भी भारतीय उपमहाद्वीप के बहुत से धर्मगुरुओं की भांति, शरीअत और धार्मिक संस्कारों के अतिरिक्त सूफ़ी मत पर भी प्रतिबद्ध रहते हैं। शाह वलीयुल्लाह देहलवी, तरीक़ते नक़शबंदी के अनुयायी थे और उनके इस मत ने उनको वहाबी सलफ़ीवाद के मत से पूर्ण रूप से अलग कर दिया।

 

 

 

शाह वलीयुल्लाह मोहद्दिस देहलवी के सहपाठी मुहम्मद बिन अब्दुल वह्हाब ने कड़ाई से सूफ़ी मत का विरोध किया और सूफ़ी मत और परिज्ञान के क्षेत्र में सक्रिय वरिष्ठ धर्मगुरूओं को पथभ्रष्ट और पथभ्रष्ट करने वाला बताया। शाह वलीयुल्लाह ने अपने विस्तृत और दो पंथों को एक करने की दृष्टि के बावजूद शीया मुसलमानों की अनदेखी की। उन्होंने अपनी पुस्तक “क़ुर्रतुल एनैन फ़ी तफ़ज़ीलिश्शेख़ैन” में शिया मुसलमानों को पथभ्रष्ट बताया है। उनका कहना था कि शिया, पवित्र क़ुरआन के पुष्ट होने पर आस्था नहीं रखते और पैग़म्बरे इस्लाम के अंतिम दूत होने को नहीं मानते।

 

 अलबत्ता कुछ लोगों ने शिया मुसलमानों के बारे में उनके दृष्टिकोणों को संतुलित दिखाने का प्रयास किया और इस संबंध में उनके बेटे शाह अब्दुल अज़ीज़ देहलवी की बातों को प्रमाण स्वरूप पेश करते हैं और कहते हैं कि उनके पिता ने शियों के काफ़िर होने पर कभी भी फ़त्वा नहीं दिया। किन्तु उपर्युक्त प्रमाणों के दृष्टिगत ऐसा प्रतीत नहीं होता। प्रत्येक दशा में शियों के विरोध में उनके दृष्टिकोणों के बावजूद उन्होंने व्यवहारिक रूप से शियों से संघर्ष नहीं किया और शियों की हत्या का फ़त्वा नहीं दिया।

 

 

 

भारतीय उपमहाद्वीप के क्षेत्र में शाह वलीयुल्लाह देहलवी के विचारों ने बहुत अधिक प्रभाव डाला। इस प्रकार से कि बाद की शताब्दियों में भी मुसलमानों के कई पंथों ने उनके दृष्टिकोण स्वीकार किये। शाह वलीयुल्लाह देहलवी के पुत्र शाह अब्दुल अज़ीज़ देहलवी, तथाकथित सलफ़ीवाद के विचारों से बहुत अधिक निकट हुए। अपने पिता से अधिक उनका रुझहान हदीसवाद की ओर था और उनके निकट भी तर्कवाद का बहुत ही कम महत्व था।

 

 शाह वलीयुल्लाह देहलवी का आंदोलन, शाह अब्दुल अज़ीज़ देहलवी के काल में चरमपंथ की ओर अग्रसर हो गया। शाह अब्दुल अज़ीज़ देहलवी के सलफ़ीवाद की एक अन्य विशेषता, उनके काल में सलफ़ीवाद की विचारधारा में राजनीति का दाख़िल होना है।  यह विचारधारा प्रत्यक्ष रूप से सिखों और ब्रितानियों से संघर्ष के मैदान में प्रविष्ट हो गयी। शाह अब्दुल अज़ीज़ ने “दारुल इस्लाम” और “दारुल कुफ़्र” नामक दो बातों से लाभ उठाते हुए ब्रितानियों की उपस्थिति के कारण भारत को “दारुल कुफ़्र” बताया और कहा कि हर मुसलमान का दायित्व है कि वह या तो इन लोगों से संघर्ष करे या यहां से पलायन कर जाए। उन्होंने सैयद अहमद बरेलवी नामक एक राजनेता के साथ मिलकर मुजाहेदीन आंदोलन नामक संस्था का गठन किया।

 

 

 यह आंदोलन सुव्यवस्थित और सशस्त्र था जिसकी गतिविधियां 1824 से 1891 तक अपने चरम पर थीं। इस गुट ने सिखों को जो मुग़ल साम्राज्य के कमज़ोर होने के बाद सत्ता में पहुंचे थे और मुसलमानों के क्षेत्रों पर क़ब्ज़ा कर चुक थे, पराजित कर दिया और उनको इन क्षेत्रों से निकाल दिया और पेशावर को विजय कर लिया। अलबत्ता 1891 में सिखों ने एक बार फिर ब्रितानियों की सहायता से एक शक्तिशाली सेना द्वारा इस नगर पर नियंत्रण कर लिया और उन्होंने सैयद अहमद बरेलवी और शाह वलीयुल्लाह देहलवी के पोते शाह इस्माईल देहलवी सहित इस आंदोलन के बहुत से नेताओं की हत्याएं कर दीं।

 

 

खेद की बात यह है कि मानो शाह अब्दुल अज़ीज़ ने शियों से शत्रुता अपने पिता से विरासत में ली थी और वह अपने विरोध को शैक्षिक झगड़ों, निराधार आरोपों तथा तुच्छ बातों तक खींच ले गये। उन्होंने “तोहफ़ए इस्ना अशरिया” नामक पुस्तक में अपनी समझ में शिया मुसलमानों की कड़ी आलोचना की। खेद की बात यह है कि यह पुस्तक बहुत ही ओछे विचारों से युक्त है। वरिष्ठ शिया धर्मगुरु मीर हामिद हुसैन मूसवी के अनुसार, इस पुस्तक में शियों की आस्थाओं और उनके दृष्टिकोणों को विशेषकर बारह इमामों के मानने वाले शिया मुसलमानों को, उनकी समस्त आस्थाओं और कर्मों को, शास्त्रार्थ की शैली से हटकर तुच्छ व ओछी भाषा में बयान किया गया है, उन पर निराधार आरोप लगाये गये है, यह किताब झूठ और गढ़ी हुई बातों से भरी पड़ी हैं और इस किताब में शियों के बारे में जो बातें कही गयीं हैं उनका शिया मुसलमानों से दूर दूर तक कोई नाता नहीं है।

 

 

 

शाह वलीयुल्लाह देहलवी के बाद 19वीं शताब्दी में देवबंदी मत अस्तित्व में आया। देवबंदी मत, शाह वलीयुल्लाह देहलवी और शाह अब्दुल अज़ीज़ देहलवी के विचारों का मिश्रण है।

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