Jul ०३, २०१६ १६:०७ Asia/Kolkata

हमने भारतीय उपमहाद्वीप से मिस्र की ओर सलफ़ीवाद के विस्तार पर चर्चा की।

 मिस्र, इस्लामी जगत में सलफ़ीवाद का एक ध्रुव समझा जाता है। अलबत्ता मिस्र में सलफ़ीवाद के अस्तित्व में आना, उस धारण से पूर्णरूप से भिन्न है जो आजकल आम जनमत के स्तर पर आतंकवाद और तकफ़ीरी विचारधाराओं के दृष्टिगत सलफ़ीवाद से ली गयी है। मिस्र के बुद्धिजीवियों ने इस्लामी देशों में उत्पन्न संकट पर प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए इस्लामी शिक्षाओं और उसके मूल्यों की ओर पलटने का सुझाव दिया। यह इस अर्थ में है कि मुसलमानों के पिछड़ेपन और पतन का कारण, धार्मिक शिक्षाओं से उनका मुंह मोड़ लेना है और इसीलिए आवश्यक यह है कि मुसलमान एक बार फिर अपने अतीत पर दृष्टि डालें और अपने धार्मिक मूल्यों को पुनः जीवित करें। दूसरे शब्दों में मिस्र में सलफ़ीवाद, रूढ़ीवाद और अतीतवाद के अर्थ में नहीं था बल्कि मुसलमानों की असली पहचान और वर्तमान स्थिति से लाभ उठाने पर आग्रह के अर्थ में था।

 

 

इस प्रकार से यदि मिस्र में इस्लामवाद की शैली को सलफ़ीवाद का नाम दिया भी जाए तब भी स्पष्ट रूप से सलफ़ीवाद की आस्था, वहाबी तकफ़ीरी सलफ़ीवाद से मूल रूप से भिन्न है। इस विचारधारा के अग्रणी ईरानी बुद्धिजीवी सैयद जमालुद्दीन असदाबादी हैं। सैयद जमालुद्दीन असदाबादी, इस्लामी जगत में धर्मों को एकजुट करने और धर्मों के मध्य एकता पैदा करने वाले आंदोलन के भी अग्रणी रहे हैं। वे इसी प्रकार धार्मिक विचारधारा में सुधार करने में अग्रणी रहे हैं और उन्होंने इस्लामी जगत में एकता और एकजुटता के लिए भरसक प्रयास किये। वे न तो मिस्र में जन्में थे और न ही उन्होंने वहां शिक्षा प्राप्त की थी। उस 9 वर्ष के दौरान जो उन्होंने अलअज़हर विश्वविद्यालय में शिक्षा दी,धार्मिक सुधार के विचार का आधार रखा। मिस्र के एक मुफ़्ती मुहम्मद अब्दोह, सैयद जमालुद्दीन असदाबादी के प्रसिद्ध शिष्यों में से थे। मुहम्मद अब्दोह ने वर्षों की गतिविधियों के दौरान मिस्री जनता के सांस्कृतिक विकास के लिए बहुत प्रयास किया और इस्लामी जगत में एक सुधारक और धर्मों को एकजुट करने वाले नेता के रूप में उभर कर सामने आए। पिछले कार्यक्रम में हमने मुहम्मद अब्दोह के विचारों के बारे में चर्चा की थी। इस कार्यक्रम में हम मुहम्मद अब्दोह के प्रसिद्ध शिष्य रशीद रज़ा के विचारों से अवगत होंगे।

 

 

 

रशीद रज़ा मूल रूप से सीरियाई थे किन्तु शैक्षिक प्रशिक्षण मिस्र में हुआ था। सैयद जमालुद्दीन असदाबादी और मुहम्मद अब्दोह के सुधारवादी और क्रांतिकारी विचारों ने उनपर बहुत अधिक प्रभाव डाला था। रशीद रज़ा, मिस्री बुद्धिजीवियों में वह पहले व्यक्ति थे जिन्होंने ख़िलाफ़त और इस्लामी सरकार के बारे में दृष्टिकोण पेश किया था। उन्होंने अलख़िलाफ़ा इमामतुल उज़मा नाम पुस्तक में इस बात पर विस्तार से चर्चा की कि किस प्रकार वर्तमान समय में ख़िलाफ़त को पुनर्जिवित किया जा सकता है और उसकी प्रवृत्ति के बारे में भी विस्तार से चर्चा की। यह पुस्तक, यद्यपि ऐसी ख़िलाफ़त का चित्रण करती है जिसका होना अधिक संभव नहीं है किन्तु अपने सटीक अर्थ में ध्यान योग्य है। ध्यान योग्य बिन्दु यह है कि वे ख़िलाफ़त के प्राचीन दृष्टिकोणों के  जिसमें इसे स्थाई, सामान्य और अत्याचारी बताया गया है, छोड़कर परिषद और जनता के दृष्टिकोणों को बहुत अधिक महत्व देते हैं।

 

रशीद रज़ा के दृष्टिकोणों को जो चीज़ प्रचलित सलफ़ीवाद से अलग करती है, वह यह वास्तविकता है कि सरकार का प्रमुख या ख़लीफ़ा, समस्त मुसलमानों का नेता होगा, इसमें सुन्नी धर्म के चारों पंथ, बारह इमामों के मानने वाले शिया, ज़ैदी, अबाज़ी इत्यादि सभी शामिल होंगे। वे इसी प्रकार अंतरों को समाप्त करने और आस्थाओं को ज़बरदस्ती एक समान करने के प्रयास में नहीं थे बल्कि कई प्रकार की आस्थाओं को राय की स्वाधीनता का प्रदर्शन मानते हैं। रशीद रज़ा के विचार, भिन्न और अलग अलग हैं। रशीद रज़ा के कुछ विचार उन्हे वहाबी सलफ़ीवाद से निकट करते हैं जबकि उनके कुछ सुधारवादी और मध्यमार्गी विचार उनको उनके गुरू मुहम्मद अब्दोह से निकट करते हैं। वे अपनी आस्थाओं और धार्मिक मान्यताओं में प्रचलित सलफ़ीवाद से निकट होते हैं और धर्मों के मध्य मतभेद को बढ़ा चढ़ाकर मगर शत्रुतापूर्ण ढंग से पेश करते हैं। यही कारण है कि कुछ लोगों ने सैयद जमालुद्दीन असदाबादी और उनके शिष्य मुहम्मद अब्दोह के विचारों को इस्लामवाद तथा नवीनवाद की संज्ञा दी और मुहम्मद अब्दोह के शिष्य रशीद रज़ा के विचारों को पारंपरिक इस्लामवाद बताया। यह कहा जा सकता है कि रशीद रज़ा वह शिष्य है जो अपने गुरू अर्थात अब्दोह की तुलना में अधिक परम्परावादी है। वह एक धड़ा जो रशीद रज़ा के विचारों से बहुत अधिक प्रभावित हुआ, इख़वानुल मुसलेमीन या ब्रदरहुड्स था। मिस्र में इख़वानुल मुसलेमीन आंदोलन 1928 में हसन बन्ना के नेतृत्व में आरंभ हुआ। मिस्र के इख़वानुल मुसलेमीन एक ओर तो रशीद रज़ा के सलफ़ीवादी विचारों से संपन्न हैं और दूसरी ओर वे सैयद जमालुद्दीन असदाबादी की साम्राज्यवादी विरोधी तथा क्रांतिकारी शैली को जीवित करने के प्रयास में हैं।

 

 

इख़वानुल मुसलेमीन के अस्तित्व में आने के उद्देश्य को उस समय इस्लामी जगत में छाये माहौल और स्थिति में तलाश करना चाहिए। हसन अलबन्ना के अनुसार, इस काल में एक ओर मिस्र में मौजूद पार्टियों में पूर्ण रूप से लिबरल व राष्ट्रवादी विचारधाराएं पायी जाती थीं और दूसरी ओर तुर्की में कमाल मुस्तफ़ा अतातुर्क के धर्म विरोधी रुझान, मिस्र के बुद्धिजीवियों और विश्वविद्यालयों पर छाये हुए थे। इन परिस्थितियों में मिस्र के इख़वानुल मुसलेमीन ने अपनी गतिविधियां आरंभ कीं। इस आंदोलन की विशेषता, इसका फैलाव व विस्तार है, इस प्रकार से कि इस विचारधारा ने समस्त इस्लामी देशों में बहुत अधिक प्रभाव डाला और बहुत से इस्लामी देशों में इसकी गतिविधियां आरंभ हो गयीं। अलबत्ता विभिन्न देशों में इख़वानुल मुसलेमीन की गतिविधियां तथा प्रवृत्ति, एक दूसरे से बहुत भिन्न है। जिस चीज़ ने इख़वानुल मुसलेमीन आंदोलन के विस्तार में तीव्रता प्रदान की वह अरबों और ज़ायोनी शासन के मध्य झड़पें थीं। यद्यपि इस्राईल के विस्तारवाद के सामने इस्लामी देश बुरी तरह विफल हो चुके थे, लेकिन इख़वानुल मुसलेमीन आंदोलन का विकास और प्रभाव भी बहुत अधिक फैला।

 

यही कारण है कि इख़वानुल मुसलेमीन के विस्तार को 1967 में अरब सेनाओं की भारी पराजय के बाद जो अरब राष्ट्रवाद के नारे से इस्राईल से युद्ध करने गयीं थीं, देखा जा सकता है। इख़वानुल मुसलेमीन ने अरब इस्राईल युद्ध को मुसलमानों और यहूदियों के मध्य युद्ध की संज्ञा दी और अरबों की पराजय का कारण इस्लाम से दूरी बताया।

 

 

इख़वानुल मुसलेमीन के वरिष्ठ नेता ग़ेज़ाली इस्राईल-अरब युद्ध में अरबों की पराजय के कारण बयान करते हुए कहते हैं कि इस्राईली, अपने शासन को यहूदी गणतंत्र या यहूदी सोशलिस्ट गठबंधन का नाम देने में सफल रहे जबकि कि उनके पड़ोसी अरब देशों ने सत्तासीन परिवार के नाम पर हाशेमी जार्डन या सऊदी अरब रख लिया किन्तु उन्होंने इस्राईल नाम रखा जो धर्म और उसकी विरासत से उनके संबंध का प्रतीक और पवित्र मूल्यों के सम्मान का चिन्ह है।

 

 

इख़वानुल मुसलेमीन के सलफ़ीवाद की प्रवृत्ति, धार्मिक प्रवृत्ति है न कि सांप्रदायिकता वाद और मुस्लिम विरोधी है। इख़वानुल मुसलेमीन के विचारों के स्तंभ को तीन भागों में विभाजित किया जा सकता है।

पहला सिद्धांतः इस्लाम स्वयं में एक संपूर्ण व्यवस्था है और मनुष्य के पैदा होने से उसकी मृत्यु तक के लिए उसके पास कायक्रम हैं।

 

दूसरा सिद्धांतः इस्लाम दो स्रोतों से प्राप्त हुआ है और उसी पर खड़ा है। एक क़ुरआन और दूसरे पैग़म्बरे इस्लाम का आचरण और हदीसें।

तीसरा सिद्धांतः इस्लाम समस्त समय और कालों के लिए अनुकूल है। इख़वानुल मुसलेमीन के यह सिद्धांत पूर्ण रूप से वहाबी सलफ़ीवाद व रूढ़ीवाद से अलग है। इस प्रकार के दृष्टिकोण, धर्म के स्रोत के रूप में सलफ़ या पूर्वजों को केन्द्र नहीं मानते और उनके अनुसार समय और काल का प्रभाव और हस्तक्षेप रहता है।

 

इख़वानुल मुसलेमीन अन्य इस्लाम संप्रदायों को अपना शत्रु नहीं समझते हैं बल्कि साम्राज्यवादियो। को अपना सबसे बड़ा दुश्मन समझते हैं। इख़वानुल मुसलेमीन ने यद्यपि हसन अलबन्ना के नेतृत्व काल में सुधारवादी और शांतिपूर्ण शैली अपनाए रखी किन्तु उनके मारे जाने के बाद, यह आंदोलन सैयद क़ुतुब के काल में अपने क्रांतिकारी रुख़ पर आ गया। अलबत्ता इख़वानुल मुसलेमीन ने अपनी राजनैतिक गतिविधियों के काल में विशेषकर अनवर सादात की हत्या के बाद सत्तासीन व्यवस्था के परिप्रेक्ष्य में प्रतिबंधों और अपने कुछ नेताओं की गिरफ़्तारी के बावजूद अपनी राजनैतिक गतिविधियों को जारी रखने का प्रयास किया। 11 फ़रवरी वर्ष 2011 की क्रांति, इख़वानुल मुसलेमीन के लिए बहुत ही अप्रत्याशित थी। मिस्री युवा, हुस्नी मुबारक की तानाशाही सरकार का तख़्ता उलटने के लिए इख़वानुल मुसलेमीन से बहुत आगे निकल गये। खेद की बात यह है कि ग्यारह फ़रवरी की क्रांति के बाद प्राप्त होने वाली उपलब्धियां, इस राजनैतिक आंदोलन के संस्थापकों के विचारों से बहुत दूर थीं।

 

 उन्होंने ज़ायोनी शासन और सऊदी अरब में सत्तासीन वहाबियों के साथ किसी सीमा का रेखांकन नहीं किया। इसके विपरीत उन्होंने ज़ायोनी शासन और आतंकी वहाबियों के साथ मैत्रीपूर्ण संबंधों की घोषणा कर दी। राष्ट्रपति चुनाव में विजयी होने के बाद मुहम्मद मुर्सी ने तेल अवीव में अपने ज़ायोनी समकक्ष को प्रेम और मित्रता का संदेश भेजा। मुहम्मद मुर्सी ने अपनी पहली विदेश यात्रा के लिए सऊदी अरब का चयन किया और इस यात्रा में शाह अब्दुल्लाह से मुलाक़ात की।

 

यह ऐसी स्थिति में है कि ज़ायोनी शासन और आले सऊद, इख़वानुल मुसलेमीन के दो प्राचीन शत्रु थे और इन्होंने हुस्नी मुबारक की सरकार को बचाने के लिए किसी भी प्रकार के प्रयास से संकोच नहीं किया। उन्होंने 11 फ़रवरी 2011 की क्रांति के बाद भी मिस्री युवाओं के प्रयासों को विफल बनाने और उसे दिगभ्रमित करने का भरसक प्रयास किया। मुहम्मद मुर्सी और इख़वानुल मुसलेमीन ने उन्हीं लोगों से नुक़सान उठाया जिनकी ओर उन्होंने दोस्ती का हाथ बढ़ाया था।

 

 

ज़ायोनी शासन और आले सऊद ने मिस्री जनता की क्रांति को विफल बनाने के लिए मिस्री सैनिकों और धर्म विरोधियों का हर प्रकार का  वित्तीय, राजनैतिक व प्राचारिक समर्थन किया और उन्हें इसमें सफलता भी मिली। एक साल के बाद मुहम्मद मुर्सी को सत्ता से हटा दिया गया और उनके साथ ही इख़वानुल मुसलेमीन के दर्जनों वरिष्ठ अधिकारियों और कार्यकर्ताओं को जेल में डाल दिया गया। इख़वानुल मुसलेमीन को एक आतंकी संगठन घोषित कर दिया गया और उसकी राजनैतिक गतिविधियों को प्रतिबंधित कर दिया गया। इख़वानुल मुसलेमीन ने बग़ैर सोचे समझे फ़ैसलों और मिस्री जनता की समस्याओं का सही समय पर उचित समाधान न करके मिस्री युवाओं की अथाह मेहनत की क्रांति और राजनैतिक अनुभवों व उपलब्धियों को बर्बाद कर दिया।

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