तकफ़ीरी आतंकवाद-21
हज़रत अली अलैहिस्सलाम और पैग़म्बरे इस्लाम के पवित्र परिजनों के स्थान के बारे में बहुत अधिक सही और ऐसी रवायतें मौजूद हैं जिनकी शीया-सुन्नी बड़े-2 विद्वानों ने पुष्टि की है।
इब्ने तैमया का सारा प्रयास इन सभी सही रवायतों की अनदेखी करना और पैग़म्बरे इस्लाम के पवित्र परिजनों से अपनी शत्रुता को सिद्ध करना था। इब्ने तय्मिया हज़रत अली अलैहिस्सलाम से इस सीमा तक शत्रुता रखता था कि उसने अपनी किताबों में मोआविया और उसके बेटे यज़ीद की प्रशंसा की है। वह यज़ीद जिसने कर्बला में पैग़म्बरे इस्लाम के प्राणप्रिय नाती इमाम हुसैन अलैहिस्लाम, उनके परिवार के सदस्यों और उनके साथियों को भूखे- प्यासे शहीद किया और उनके परिजनों को बंदी बनाया। इब्ने तैमया “फज़ाएलो मोआविया व फी यज़ीद व अन्नहु आलिन यसुब्बो”? शीर्षक के अंतगर्त किताब में दावा करता है कि यद्यपि यज़ीद ने पाप किया है परंतु उसने जो अच्छे कार्य अंजाम दिये हैं उसके कारण उसके पाप माफ़ कर दिये गये हैं। इसी प्रकार वह हज़रत अली अलैहिस्सलाम के मुकाबले में मोआविया की प्रशंसा और उसकी वकालत इस प्रकार करता है जिससे न्यायप्रेमी इंसान हतप्रभ रह जाता है। मोआविया के बारे में उसके समय के मिस्री विद्वान हसन बसरी कहते हैं” मोआविया के अंदर चार विशेषताएं थीं जिनमें से एक विशेषता का होना भी उसकी बर्बादी के लिए काफी थी। पहली बात तो यह थी कि मोआविया, परिषद के गठन के बिना और तलवार के बल पर इस्लामी राष्ट्र का शासक बन गया जबकि सदगुणों से सुसज्जित पैग़म्बरे इस्लाम के साथी, लोगों के मध्य मौजूद थे। ज़ियाद इब्ने अबीह अवेधसंबंध से दुनिया में आया था और यह ज्ञात नहीं है कि उसका पिता कौन है फिर भी मोआविया ने उसे अपने बाप अबू सुफियान का बेटा और उसे अपना भाई बताया। तीसरी बात यह थी कि उसने अपनी मर्जी से सत्ता की बाग़डोर अपने उस दुष्ट पुत्र यज़ीद के हवाले कर दिया जो शराब पीता था, रेशम का कपड़ा पहनता था और वाद्ययंत्र बजाता था। चौथी बात यह थी कि हज्र बिन अदी और उनके साथियों की हत्या कर दी। इब्ने तैमया इसी प्रकार “रासुल हुसैन” नामक किताब में यज़ीद का बचाव करता है। समस्त मुसलमान उसके धर्मभ्रष्ट होने के बारे में एकमत हैं और उसने जो कृत्य अंजाम दिये हैं वे बहुत ही लज्जानक हैं। उसने अपने कुछ ही वर्षों के शासन काल में पैग़म्बरे इस्लाम के प्राणप्रिय नाती इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम को शहीद किया, काबे में आग लगाई, उसे बर्बाद किया और हुर्रा नामक घटना में पवित्र नगर मदीना के लोगों की जान- माल और महिलाओं को अपने सैनिकों के लिए वैध करार दिया। इब्ने तय्मिया यज़ीद के बारे में भी कहता है” यज़ीद का पाप बनी इस्राईल के पाप से अधिक नहीं था। बनी इस्राईल अपने पैग़म्बरों की हत्या करते थे और हुसैन की हत्या भी पैग़म्बरों की हत्या से बड़ा पाप नहीं था।
इब्ने तैमिया ने इस प्रकार की लज्जाजनक चाल से खून से रंगीन यज़ीद के हाथ को उसके समस्त बुरे कृत्यों से पवित्र दिखाने की चेष्टा की है। हुर्रा की घटना में पैग़म्बरे इस्लाम के बहुत से साथी यज़ीद के सैनिकों के हाथों शहीद हो गये और एक हज़ार कुंवारी लड़कियों से बलात्कार किया गया। इब्ने तैमिया के अनुसार यह सब पाप क्षमा कर दिये जायेंगे और उनका कोई विशेष महत्व नहीं है। वह यज़ीद की ओर से वकालत करने के लिए इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम की शहादत का औचित्य इस प्रकार पेश करता है। वह कहता है” इमाम हुसैन ने खुरूज किया यानी यज़ीद के विरोध में आवाज़ उठाई और निकल पड़े इसलिए उनकी हत्या वैध और उनके खून की ज़िम्मेदारी स्वयं उन पर है। विचित्र बात है कि पैग़म्बरे इस्लाम की पावन समाधि का दर्शन करने या उन्हें माध्यम बना कर दुआ मांगने वालों को इब्ने तैय्मिया काफिर कहता है जबकि यज़ीद जैसे धर्मभ्रष्ट इंसान को मुसलमान कहता और उसे बुरे कृत्यों से पवित्र समझता है। इसके मुकाबले में वह हज़रत अली अलैहिस्सलाम के सद्गुणों की अनदेखी करता है और उनका परिचय सत्ता के भूखे व्यक्ति के रूप में करता है और इस मार्ग में वह हदीस की ओर अपने झुकाव की अनदेखी कर देता है। मोआविया और यज़ीद जैसे व्यक्तियों का इस प्रकार समर्थन और उसके मुकाबले में हज़रत अली और इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम जैसे महान हस्तियों के स्थान को कम करके दिखाना इब्ने तैमिया के विचारों के परिप्रेक्ष्य में ही संभव है। अगर मोआविया के सत्ताकाल में पैग़म्बरे इस्लाम के पवित्र परिजनों विशेषकर हज़रत अली की निंदा व आलोचना में हदीसें गढ़ी जाती थीं तो इब्ने तय्मिया के विचारों में सही हदीसों को कमज़ोर और कमज़ोर हदीसों को सही करके पेश करना उसी रास्ते का जारी रहना है। अगर मोआविया के सत्ताकाल में मिम्बरों से हज़रत अली अलैहिस्सलाम को बुरा- भला कहा जाता था तो उसके बाद वैसे हालात न होने के कारण इब्ने तय्मिया की किताबों और उसके विचारों में पैग़म्बरे इस्लाम के पवित्र परिजनों के स्थानों को यथासंभव कम करने का प्रयास किया जाता है।
इस आधार पर इब्ने तैमिया को पहचानने का सबसे अच्छा मानदंड, पैग़म्बरे इस्लाम का वह कथन है जिसमें उन्होंने फरमाया है” हे अली! तुमसे मुहब्बत नहीं करेगा किंतु मोमिन और तुमसे दुश्मनी नहीं करेगा किंतु मिथ्याचारी।
इस्लामी आस्थाओं में संदेह जताने और उन्हें चुनौती देने के बाद सन् 728 हिजरी क़मरी में लंबी बीमारी के पश्चात इब्ने तैमिया दमिश्क़ की जेल में मर गया। सलफ़ीवाद को अस्तित्व देने का मुख्य स्रोत इब्ने तैमिया के भ्रष्ट विचार हैं। इसके विपरीत कि सलफ़ी और वहाबी यह बताने का प्रयास करते हैं कि उनके विचारों का स्रोत अहमद बिन हंबल हैं किंतु वास्तविकता यह है कि उनके विचारों का स्रोत, इब्ने तैमिया के ही विचार हैं जो अहमद बिन हंबल के विचारों से बहुत दूर हैं। इब्ने तैमिया यद्यपि हदीसों के संबन्ध में अहमद बिन हंबल के अनुसरण का दावा करता था किंतु वह हदीसों को हथकंडे के रूप में प्रयोग करता था और वह हर उस हदीस की पुष्टि करता था जो उसके विचारों के अनुरुप होती थी चाहे वह हदीस विश्वसनीयता की दृष्टि से कितनी ही कमज़ोर क्यों न हो। उसी प्रकार वह हर उस हदीस का विरोध करता था जो उसकी विचारधारा के अनुरूप नहीं होती थीं चाहे विशवसनीयता की दृष्टि से सही ही क्यों न हो किंतु वह उसे झूठी हदीस कहता था।
इब्ने तैमिया की विचारधारा का आधार वास्तव में उमवी इस्लाम था। यह वही चीज़ थी जिसका प्रचार-प्रसार शाम में उमवी शासक किया करते थे। इब्ने तैमिया द्वारा अबू सुफियान का समर्थन और उमवी शासकों के बुरे कृत्यों का औचित्य दर्शाना साथ ही पैग़म्बरे इस्लाम विशेषकर हज़रत अली के महत्व को घटना और उनका विरोध यह दर्शाता है कि उसके इस्लाम का आधार उमवी इस्लाम था जबकि अहमद बिन हंबल न केवल पैग़म्बरे इस्लाम को मानते थे बल्कि तरबीअ की विचारधारा का भी प्रचार करते थे। सुन्नी मुसलमानों की विचार धारा के अनुसार तरबीअ का अर्थ हज़रत अली अलैहिस्सलाम को चौथा ख़लीफ़ा मानना है।
इब्ने तैमिया ने इस्लाम के समस्त संप्रदायों का विरोध किया और अपनी भ्रष्ट विचारधारा के माध्यम से मुसलमानों के बीच उस समय मतभेद और मिथ्याचार के बीच बोये जब उनको एकता की नितांत आवश्यकता थी जबकि अहमद बिन हंबल के काल में सुन्नी मुसलमानों के बीच जो आस्थाएं प्रचलित थीं उन्होंने उनका समर्थन किया और उनके बीच संयुक्त आधार रखा। कुल मिलाकर इब्ने तैमिया ने आस्था में अतिवादी विचार धारा की बुनियाद रखी जिसके प्रभाव बारहवीं शताब्दी में मुहम्मद इब्ने अब्दुल वह्हाब के निमंत्रण के रूप में सामने आए। इब्ने तैमिया के जो भ्रष्ट विचार थे वे वहाबी विचारधारा में अधिक उग्र हो गए। अगर इब्ने तैमिया के काल में मुसलमानों को जो काफिर कहा जाता था यदि वह केवल एक विचारधारा तक सीमित था तो अब्दुल वह्हाब के काल में यह सोच व्यवहारिक रूप धारण कर गई और काफिर कहकर बहुत से मुसलमानों का खून बहाया गया। यद्यपि इब्ने तैमिया, मुसलमानों के बीच मतभेद फैलाने में विशेष रूप से सफल नहीं रहा किंतु मुहम्मद बिन वह्हाब इब्ने तैमिया के फूट डालने वाले विचारों की सहायता, आले सऊद की तलवार और ब्रिटेन के समर्थन से मुसलमानों के बीच मतभेद के बीज बोने में सफल रहा। इस प्रकार उसने इस्लामी जगत को बहुत ही गंभीर समस्याओं में फंसा दिया। सातवीं शताब्दी में इब्ने तैमिया ने सलफीवाद की जिस विचारधारा की बुनियाद रखी थी वह उसकी मृत्यु के साथ समाप्त हो गयी थी यद्यपि उसके शिष्यों ने उसे जारी रखने का प्रयास किया किंतु बारहवीं शताब्दी में वही विचारधारा वहाबियत के रूप में सामने आई। वहाबियत का नाम इसके जनक मुहम्मद इब्ने वहहाब के नाम पर रखा गया। उसने ब्रिटेन की सहायता और राजनैतिक शक्ति से ऐसी सरकार का गठन किया जिसका आधार सलफीवाद था। उसने तलवार के बल पर अपनी भ्रष्ट विचारधारा को नज्द और हिजाज़ के क्षेत्रों में फैलाया।