Aug ०६, २०१६ १६:१६ Asia/Kolkata

इब्ने तैमिया ने अतिवादी आस्था की बुनियाद रखी जिसके प्रभाव व परिणाम 19वीं शताब्दी में मोहम्मद बिन अब्दुल वह्हाब के आन्दोलन के रुप में सामने आये।

इब्ने तैमिया ने जिस अतिवादी पंथ की बुनियाद रखी थी वह वहाबी विचारधारा के परिप्रेक्ष्य में और अतिवादी हो गया और अगर इब्ने तैमिया के विचार केवल धारणा के रूप में थे तो यही तकफीरी विचार धारा अब्दुल वह्हाब के काल में व्यवहारिक रूप धारण कर गयी और काफिर होने का लेबल लगाकर बहुत से मुसलमानों का खून बहाया गया। मोहम्मद बिन अब्दुल वह्हाब ने अपने से पहले के धर्मगुरूओं के विपरीत राजनीतिक शक्ति और ब्रिटेन के समर्थन का लाभ उठाकर सलफी विचार धारा के आधार पर एक सरकार की बुनियाद रखी और ताक़त के बल पर अपने भ्रष्ट विचारों को नज्द और हिजाज में फैलाया।

 

मोहम्मद बिन अब्दुल वह्हाब सन् 1115 हिजरी क़मरी में ओईना नगर में पैदा हुए और उनके पिता शेख अब्दुल वह्हाब, हंबली संप्रदाय के धर्मशास्त्री और नगर के न्यायधीश थे। ओईलर, नज्द में रियाज़ से 70 किलोमीटर की दूरी पर स्थित एक क्षेत्र है। मोहम्मद इब्ने अब्दुल वह्हाब के एक अतिवादी समर्थक अलऊसी के कथनानुसार शेख मोहम्मद उसी वर्ष अपने विचारों को सार्वजनिक करने के बाद लोगों, विद्वानों और धर्मगुरूओं को क्रोधित करते थे। कुछ समय बाद वह हज करने के लिए पवित्र नगर मक्का गये और वहां पर हज संस्कारों को अंजाम देने के बाद वह लोगों को शिक्षा देने के लिए पवित्र नगर मदीना गये। वहां वह पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहि व आलेहि व सल्लम की पावन समाधि के पास लोगों को उनसे सहायता मांगने से मना करते थे। उसके बाद वह नज्द और फिर पश्चात बसरा गये। बसरा के लोग और धर्मगुरू जब मोहम्मद बिन अब्दुल वह्हाब के भ्रष्ट विचारों से अवगत हो गये तो उन्हे नगर से निकाल दिया। उसके बाद मोहम्मद इब्ने अब्दुल वह्हाब का जीवन उतार- चढ़ाव से भरा रहा और उनके भ्रष्ट व दिग्भ्रमित विचारों के कारण दसियों व्यक्तियों की हत्या कर दी गयी।

 

18वीं और 19 शताब्दी विशेष शताब्दी है जिसमें मुसलमानों को भारी समस्याओं का सामना करना पड़ा। अगर इस शताब्दी को साम्राज्य की शताब्दी कहा जाये तो अनुचित नहीं होगा। क्योंकि इस शताब्दी में इस्लामी जगत के हर क्षेत्र में साम्राज्य के चिन्हों को देखा जा सकता है। वर्षों पहले से ब्रिटेन भारतीय उपमहाद्वीप में पैर पसार चुका था और उसका सारा प्रयास यह था कि वह भारत में पढ़ाई की व्यवस्था परिवर्तित करके अपने सैनिक वर्चस्व में वृद्धि करे और भारत के इस्लामी व ग़ैर इस्लामी समाज तथा इस देश की आगामी पीढ़ी को पहले से अधिक अपने आधिपत्य में रखे। नेपोलियन बोनापार्ट के नेतृत्व में फ्रांस ने मिस्र, सीरिया और फिलिस्तीन पर कब्ज़ा कर लिया था जबकि रूसी ज़ार कई बार उसमानी साम्राज्य और ईरान पर हमला करके साम्राज्यवादी समझौतों के परिप्रेक्ष्य में अपनी राजनीतिक और भौगोलिक शक्ति में वृद्धि करने के प्रयास में थे।

 

उसमानी साम्राज्यवाद अपनी कमज़ोरी के दौर से गुज़र रहा था। इस प्रकार की स्थिति में इस्लामी जगत कमज़ोरी के काल में था और हर चीज़ से अधिक सहृदयता व समरसता की आवश्यकता थी। इस्लामी जगत को एसी शक्ति की आवश्यकता थी जो समस्त मुसलमानों को एकजुट कर सके और इस्लाम के संयुक्त दुश्मनों के मुकाबले में इस्लामी जगत में एकता की भूमि प्रशस्त कर सके। इस प्रकार की स्थिति में वहाबियत ने न केवल इस्लामी जगत की समरसता में कोई सहायता नहीं की बल्कि मुसलमानों के मध्य फूट और शत्रुता का बीज बो दिया और साम्राज्य के हाथ में हाथ देकर इस्लामी देशों में साम्रज्यवादियों के अधिक से अधिक प्रभाव की भूमि समतल कर दी। इस प्रकार की स्थिति में मोहम्मद इब्ने अब्दुल वह्हाब ने आले सऊद और ब्रिटेन की सहायता से अपने भ्रष्ट विचारों को हिजाज़ क्षेत्र में फैला दिया।

 

जो चीज़ एक व्यक्ति की शैक्षिक योग्यता और उसके व्यक्तित्व को दर्शाती है वह उसकी रचनाएं, उसके उस्ताद और उसके शिष्य होते हैं जिनका संबंध उससे बताया जाता है। मोहम्मद बिन अब्दुल वह्हाब इब्ने तैमिया के विपरीत इन दोनों क्षेत्रों में बहुत कमज़ोर थे। इसका अर्थ यह है कि इब्ने तैमिया एक दक्ष लेखक था और इब्ने क़य्यिम और इब्ने कसीर जैसे लोग उनके शिष्य थे और अपने समय के कुछ प्रसिद्ध लोग उनके गुरू थे परंतु मोहम्मद बिन अब्दुल वह्हाब ने कोई ध्यान योग्य किताब नहीं लिखी है बल्कि उनकी शैक्षिक योग्यता भी संदिग्ध है। जो चीज़ मोहम्मद बिन अब्दुल वह्हाब के प्रभाव के विस्तृत होने का कारण बनी वह केवल तलवार और आले सऊद तथा ब्रिटेन की राजनीतिक शक्ति थी।

 

जो भी धारणा अस्तित्व में आती है वह दो ही सूरत में बाक़ी रह सकती है। पहली बात तो यह है कि जो धारणा हो उसका निमंत्रण देने वाला एक मज़बूत व शक्तिशाली व्यक्ति हो और उसकी शिक्षाएं भी अच्छी व मज़बूत हों। जैसाकि इस्लाम के बारे में इस प्रकार की स्थिति है। जब पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहि व आलेहि व सल्लम ने ईश्वरीय धर्म इस्लाम का निमंत्रण देना आरंभ किया तो वह मज़बूत व महान व्यक्तित्व के स्वामी थे और इस्लाम धर्म की मज़बूत व तर्कसंगत शिक्षाएं इस बात का कारण बनीं कि किसी प्रकार के शक्ति के प्रयोग के बिना तेज़ी से लोगों ने उसे स्वीकार कर लिया और उसने लोगों के दिलों में अपना स्थान बना लिया यहां तक कि जो लोग आज भी इस्लाम को स्वीकार कर रहे हैं वह किसी शक्ति के बल पर एसा नहीं कर रहे हैं बल्कि इस्लाम की तार्किक शिक्षाएं हैं जिनके कारण लोग इसे स्वीकार कर रहे हैं। किसी धारणा को लोगों के मध्य फैलाने का दूसरा तरीक़ा राजनीतिक और आर्थिक शक्ति है। इस शैली का प्रयोग उस धारणा को फैलाने के लिए होता है जिसमें कोई विशेष आकर्षण व रोचकता नहीं होती और वह लोगों की प्रवृत्ति और धार्मिक शिक्षाओं से मेल नहीं खाती । इस प्रकार की धारणा शासकों की शक्ति के बल पर ही फैल सकती है और जब तक शक्ति रहेगी तभी तक वह रहेगी जैसे ही शक्ति समाप्त होगी उस धारणा का भी अंत हो जायेगा।

 

मोहम्मद बिन अब्दुल वह्हाब इस वास्तविकता से पूरी तरह अवगत थे और वह अच्छी तरह जानते थे कि उनकी बातें मुसलमानों के धार्मिक विश्वासों व शिक्षाओं के विरुद्ध हैं इसलिए लोग उनका स्वागत नहीं करेंगे। दूसरी ओर शैक्षिक और नैतिक दृष्टि से भी समाज में एक लोकप्रिय व्यक्ति बनने की विशेषता उनमें नहीं थी जो लोगों को अपनी ओर आकर्षित करे। इसी कारण उन्होंने आरंभ से ही दूसरे अर्थात शक्ति के मार्ग का चयन किया।

 

हिजाज़ के आस- पास के नगरों में मोहम्मद इब्ने अब्दुल वह्हाब को किसी प्रकार की कोई लोकप्रियता प्राप्त नहीं थी और उस समय के समस्त सुन्नी धर्मगुरूओं और विद्वानों ने मोहम्मद इब्ने अब्दुल वह्हाब के भ्रष्ट विचारों के कारण उन्हें अपने यहां से भगा दिया। मोहम्मद इब्ने अब्दुल वह्हाब के भगा दिये जाने और उनकी सत्ता की भूख ने उन्हें दरइया के शासक मोहम्मद बिन सऊद के निकट कर दिया। दोनों ने हिजाज़ के आस- पास के नगरों पर कब्ज़ा करने में एक दूसरे से सहकारिता में बहुत अपराध अंजाम दिये। ब्रिटेन और मोहम्मद इब्ने अब्दुल वह्हाब के मध्य सहकारिता की चर्चा करने से पहले हम संक्षेप में मोहम्मद इब्ने अब्दुल वह्हाब के भ्रष्ट और गुमराह करने वाले विचारों की ओर संकेत कर रहे हैं ताकि यह स्पष्ट हो जाये कि मोहम्मद इब्ने अब्दुल वह्हाब के परिवार में भी उनके भ्रष्ट विचारों को कोई स्वीकार नहीं करता था और उनके भ्रष्ट विचारों के सबसे बड़ा आलोचक व विरोधी स्वयं उनके भाई था।

 

मोहम्मद इब्ने अब्दुल वह्हाब का विश्वास था कि केवल वह और उनके अनुयाइ ही मुसलमान हैं और दूसरे समस्त इस्लामी धर्म के अनुयाइ काफिर व अनेकेश्वरवादी हैं। इसी प्रकार उनका मानना था कि ईश्वर वास्तव में आसमान में बैठा हुआ है और हाथ, पैर, आंख, कान, नाक और शरीर के दूसरे अंग हैं वह ज़बान से लोगों से बात करता है। संक्षेप में यह कि उनका मानना था कि ईश्वर शरीर रखता है और यह वह चीज़ है जिसे कोई भी मुसलमान नहीं मानता और इस आस्था को कुफ्र समझा जाता हैं। इसी प्रकार मोहम्मद इब्ने अब्दुल वह्हाब के क़ब्रों के बारे में कुछ अलग ही विश्वास और आदेश हैं जो उसी से विशेष हैं और किसी धार्मिक तर्क के बिना उन्हीं के आधार के फतवा देता था। क़ब्रों के संबंध में उसका विश्वास यह है कि क़ब्र या उस पर इमारत बनाना और उसके पास दुआ करना और नमाज़ पढ़ना हराम है यही नहीं बल्कि अगर क़ब्र को या क़ब्र पर इमारत बनी है तो उसे ध्वस्त करना और उसकी निशानियों को मिटा देना अनिवार्य है। यहां तक कि पैग़म्बरे इस्लाम की पावन समाधि के बारे में उनका और उनके अनुयाइयों का विश्वास है कि वहां पर जो क़ब्रें हैं उनका देखना मूर्ति देखने के समान है। एक अन्य चीज़ जिसका वहाबी इंकार करते हैं, पैग़म्बरे इस्लाम और उनके पवित्र परिजनों को साधन बना कर दुआ करना है। मोहम्मद इब्ने अब्दुल वह्हाब अपनी किताब कश्फुश्शुबहात में लिखते है” मरे हुए लोगों को साधन बनाना एसी चीज़ का सहारा लेना है जो नहीं है और मरा हुआ व्यक्ति जवाब देने की क्षमता व शक्ति नहीं रखता है।“

 

इसी प्रकार वहाबी पैग़म्बरों और ईश्वरीय दूतों की शिफ़ाअत को अनेकेश्वरवाद समझते हैं। शिफ़ाअत यानी इंसान यह आस्था रखे कि प्रलय के दिन पैग़म्बर और दूसरे ईश्वरीय दूत महान ईश्वर से जिस इंसान के लिए क्षमा याचना करेंगे ईश्वर उसे माफ कर देगा।  

इसी प्रकार वहाबियों का मानना है कि पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहि व आलेहि व सल्लम और उनके पवित्र परिजनों को भविष्य की जानकारी नहीं है चाहे वे जीवित हों या जीवित न हों। पवित्र कुरआन की शिक्षाओं का ग़लत निष्कर्ष निकालने का एक दुष्परिणाम यह है कि मोहम्मद इब्ने अब्दुल वह्हाब समस्त मुसलमानों को काफिर, अनेकेश्वरवादी और अधर्मी कहते है। मोहम्मद इब्ने अब्दुल वह्हाब अपनी किताब कश्फुश्शुबहात में अपने अनुयाइयों को बहस करने का तरीक़ा सिखाते और कहते है” अगर इस तरह कहा जाये तो तुम कहो हे अनेकेश्वरवादी। अगर तुम्हारे सामने वाले पक्ष ने कहा कि इस तरह, उस तरह तब भी तुम उससे कहो हे अनेकेश्वरवादी।

 

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