Jan ३१, २०१६ १७:०१ Asia/Kolkata

तकफ़ीरी विचारधारा ऐसी प्रक्रिया है जिसका इस्लाम से कोई संबंध नहीं है

तकफ़ीरी विचारधारा ऐसी प्रक्रिया है जिसका इस्लाम से कोई संबंध नहीं है किन्तु वह सबसे नृशंस अपराधों को इस्लाम से जोड़ती है। हम इस कार्यक्रम श्रंख्ला में यह बताना चाहते हैं कि पश्चिमी सरकारों और उनके क्षेत्रीय घटकों का तकफ़ीरी आतंकवाद के नृशंस अपराधों को इस्लाम से जड़ने के पीछे लक्ष्य यह है कि वे ईश्वरीय धर्म इस्लाम की छवि को ख़राब करना चाहते हैं कि जो दुनिया में शांति और न्याय का समर्थक धर्म है। दूसरे ईश्वरीय धर्मों की तरह इस्लाम में भी पैग़म्बरे इस्लाम और उनके उत्तराधिकारियों के स्वर्गवास के बाद, लोगों के सामने ऐसी बातें पेश की गयीं जो इस्लाम की मूल शिक्षाओं के ख़िलाफ़ थीं। पैग़म्बरे इस्लाम सल्ल लाहो अलैहि व आलेही व सल्लम के स्वर्गवास के वक़्त, उनके दामाद और योग्य उत्तराधिकारी हज़रत अली अलैहिस्सलाम कुछ निष्ठावान अनुयाइयों के साथ, पैग़म्बरे इस्लाम के अंतिम संस्कार अंजाम देने में व्यस्त थे तो दूसरी ओर पैग़म्बरे इस्लाम के कुछ अनुयायी जिसमें अंसार और मोहाजिर दोनों शामिल हैं, मदीना नगर से बाहर सक़ीफ़ा बनी साएदा नामक स्थान पर पैग़म्बरे इस्लाम के उत्तराधिकारी के चयन के लिए इकट्ठा थे। यह इस बिन्दु का उल्लेख ज़रूरी है कि मोहाजिर वे लोग थे जो मक्का से मदीना पलायन कर गए थे और अंसार वे थे जिन्होंने पलायन करने वालों को अपने यहां पनाह दी थी। ये लोग ऐसी हालत में सक़ीफ़ा बनी साएदा में इकट्ठा हुए थे कि ख़ुद पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल लाहो अलैहि व आलेही व सल्लम ने अपने अंतिम हज से लौटते वक़्त ग़दीरे ख़ुम नामक स्थान पर सवा लाख हाजियों के सामने हज़रत अली अलैहिस्सलाम को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया था।

 

 

हज़रत अली अलैहिस्सलाम का तीनों ख़लीफ़ाओं और ख़ुद अपनी ख़िलाफ़त के दौर में आचरण, शीया-सुन्नी सहित सारे मुसलमानों के लिए आदर्श बन सकता है। हज़रत अली अलैहिस्सलाम का इस्लाम के उदय के समय से लेकर तीनों ख़लीफ़ाओं हज़रत अबू बक्र, हज़रत उमर और हज़रत उस्मान से लेकर ख़ुद उनकी ख़िलाफ़त तक का व्यवहार, इस बात के लिए स्पष्ट दलील है कि हज़रत अली अलैहिस्सलाम मुसलमानों के बीच आपस में फूट और दुश्मनी को रोकना चाहते है। जैसे हज़रत अली अलैहिस्सलाम का विभिन्न अवसरों पर तीनों ख़लीफ़ाओं को परामर्श देना, न्यायिक मामलों में भाग लेना, ख़लीफ़ाओं के दौर में जंगों में शामिल होना, तीसरे ख़लीफ़ा के दौर में असंतुष्टों को समझाना और तीसरे ख़लीफ़ा की जान की रक्षा के लिए इमाम हसन और इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम को तैनात करना ताकि वे असंतुष्टों को ख़लीफ़ा के आवासवाली इस इमारत में प्रवेश को रोकें। यह सब इस बात की दलील हैं कि हज़रत अली अलैहिस्सलाम मुसलमानों के बीच एकता चाहते थे।

हज़रत अली अलैहिस्सलाम के अलावा, जनता के मार्गदर्शन का ईश्वरीय दायित्व संभालने वाले बाक़ी इमामों का भी यही आचरण था। ये इमाम अपने दृष्टिकोणों को बयान करने के साथ साथ इस बात की भी कोशिश करते थे कि मुसलमानों के बीच मतभेद पैदा न होने पाए। हालांकि इन इमामों के दृष्टिकोण और मुसलमानों के दूसरे धर्मगुरुओं के दृष्टिकोण में मूल अंतर होता था। इस्लामी इतिहास इस बात का गवाह है कि इन इमामों ने कभी भी अपनी बातचीत में अपने विरोधियों के लिए कभी भी ग़लत भाषा का इस्तेमाल नही किया। पूरे इस्लामी इतिहास में मुसलमानों के बीच एकता में विश्वास रखने वाले अच्छे धर्मगुरु भी इसी आचरण को अपनाते रहे हैं। इन सब कोशिशों के बावजूद मुसलमान समाजों में ऐसी विचारधाराएं वजूद में आयीं जो दूसरे इस्लामी मतों को काफ़िर कह कर इस्लामी मतों के बीच मतभेद को हवा देती रहीं। अलबत्ता मुसलमानों के बीच फूट डालने और उन्हें बांटने में ईसाइयों ख़ास तौर पर पश्चिमी सरकारों और उनमें सबसे आगे ब्रिटेन की सरकार के षड्यंत्र का भी हाथ रहा है जिसके बारे में बाद के कार्यक्रम में विस्तार से चर्चा करेंगे।

 

 

इस बात के मद्देनज़र कि आई एस आई एल, अलक़ाएदा और जिब्हतुन नुसरा जैसे तकफ़ीरी आतंकवादी गुट, ख़ुद को सुन्नी संप्रदाय का कहते हैं और इन तकफ़ीरी गुटों का स्रोत वह्हाबी पंथ है, इस कार्यक्रम में सुन्नी संप्रदाय के बीच तकफ़ीरी प्रक्रिया की जड़ का पता लगाने की कोशिश करेंगे।

अहमद बिन हंबल को सलफ़ी विचारधारा का जनक माना जाता है। अहमद बिन हंबल सुन्नी संप्रदाय के धर्मगुरुओं में हैं जिनके नाम पर हंबली मत वजूद में आया। सुन्नी संप्रदाय की चार मुख्य शाखाएं हैं, हनफ़ी, हंबली, शाफ़ेई और मालेकी। समय गुज़रने के साथ साथ इन मतों की भी उपशाखाएं वजूद में आयीं और हर एक की अपनी अपनी आस्था है।

 

सवाल यह उठता है कि अहमद बिन हंबल कौन हैं? अहमद बिन हंबल बिन हेलाल शैबानी मर्वी का 164 हिजरी क़मरी में बग़दाद शहर में जन्म हुआ। उनके पिता सिपाही थे। अहमद बिन हंबल के पैदा होने से पहले ही उनके पिता ख़ुरासान के उपनगरीय इलाक़े मर्व में इस दुनिया से जा चुके थे और उनकी मां गर्भावस्था में बग़दाद चली गयी थीं जहां अहमद बिन हंबल का जन्म हुआ। अहमद बिन हंबल ने 16 साल की उम्र में पैग़म्बरे इस्लाम के कथनों का ज्ञान हासिल करना शुरु किया। उसके बाद अहमद बिन हंबल पैग़म्बरे इस्लाम के कथनों का ज्ञान हासिल करने में ही व्यस्त रहे। पैग़म्बरे इस्लाम के कथन को हदीस कहा जाता है। शुरु में अहमद बिन हंबल बग़दाद में हदीसों का ज्ञान हासिल करते रहे जो उस समय ज्ञान-विज्ञान के फलने फूलने का स्थान था। वह बग़दाद में पैग़म्बरे इस्लाम के कथनों को इकट्ठा करते रहे। उसके बाद उन्होंने वहां से बसरा, कूफ़ा, हेजाज़, यमन और शाम का सफ़र किया। ये शहर उन दिनों मुहददिसों अर्थात पैग़म्बरे इस्लाम के कथनों का ज्ञान रखने वालों का केन्द्र समझे जाते थे। इन शहरों में उन्होंने बहुत से मुहददिसों से हदीसों का ज्ञान हासिल किया जिनमें वकीअ और इस्हाक़ बिन राहविया उल्लेखनीय हैं। अहमद बिन हंबल ने चालीस साल की उम्र तक पैग़म्बरे इस्लाम के कथनों का वर्णन नहीं किया। उसके बाद उन्होंने पैग़म्बरे इस्लाम के कथनों का वर्णन शुरु किया।

अहमद बिन हंबल की सबसे मशहूर किताब का नाम ‘मुस्नद’ है जो 30000 हदीसों का संकलन है। अहमद बिन हंबल के अनुसार, उन्होंने 75000 हदीसों में से 30000 हदीसें चुनकर इस किताब में संकलित की हैं। सुन्नी संप्रदाय के विद्वानों और धर्मगुरुओं ने पूरे इतिहास में मुस्नद को हमेशा उद्धरित किया है। इस किताब की एक विशेषता यह भी है कि इसमें पैग़म्बरे इस्लाम के पवित्र परिजनों की प्रशंसा में बहुत सी हदीसें मौजूद हैं जबकि सुन्नी संप्रदाय में हदीसों को संकलित करने वाले बहुत से लोगों ने इन हदीसों का संकलित नहीं किया। एक रोचक बिन्दु यह है कि ‘मुस्नद’ में ऐसी हदीसों का उल्लेख है जिसकी शीया संप्रदाय के धर्मगुरु भी पुष्टि करते हैं। अहमद बिन हंबल हज़रत अली अलैहिस्सलाम को ख़ुलाफ़ाए राशेदीन में मानता है और उनके हवाले से बहुत सी हदीसें पेश की हैं। अहमद बिन हंबल के विचारों और किताबों को पढ़ने से पता चलता है कि धर्मशास्त्री से ज़्यादा वह मोहद्दिस हैं। उन्होंने कभी भी ख़ुद को धर्मशास्त्री कहलवाना पसंद नहीं किया। धार्मिक विषयों में वह पैग़म्बरे इस्लाम के आचरण और उनके अनुयाइयों के फ़त्वों का अनुसरण करते थे। इसी प्रकार वह उन चीज़ों के बारे में किसी प्रकार की राय नहीं देते थे जिसे इस्लाम ने हलाल और वर्जित घोषित किया है। बताया जाता है कि एक दिन एक व्यक्ति ने अहमद बिन हंबल से हलाल और वर्जित आदेश के बारे में उनकी राय पूछी तो उन्होंने कहा, ईश्वर आपका भला करे किसी और से पूछिए। उस व्यक्ति ने फिर उनसे अपना सवाल दोहराया तो उन्होंने फिर वही जवाब दिया।

 

 

अहमद बिन हंबल की धर्मशास्त्र के विषय पर कोई किताब नहीं है बल्कि इस संदर्भ में उनके कुछ विचार हैं, जिसे अबु बक्र ख़िलाल नामक उनके एक शिष्य ने संकलित किया है। यही कारण है कि विभिन्न दौर में अहमद बिन हंबल के अनुयाइयों की संख्या, धर्म शास्त्र के दूसरे मतों की तुलना में कम रही। चौथी हिजरी क़मरी के दूसरे अर्ध तक हंबली मत दूसरे इस्लामी मतों के जितना नहीं फैला था। बाद की शताब्दियों में यह मत धीरे-धीरे सुन्नी संप्रदाय के तीन अन्य मतों की पंक्ति में शामिल हुआ। इस वक़्त भी इस मत के अनुयाइयों की संख्या कम है।

               

अहमद बिन हंबल पैग़म्बरे इस्लाम के कथनों, उनके फ़ैसलों और पैग़म्बरे इस्लाम के अनुयाइयों के फ़त्वों के आधार पर फ़त्वा देते थे। वह मालिक और औज़ाई जैसे प्रसिद्ध धर्मगुरुओं से अपने फ़त्वे की पुष्टि कराते थे। इसी प्रकार वे पैग़म्बरे इस्लाम के अनुयाइयों का अनुसरण करने वालों की बातों को अपने फ़त्वे का आधार बनाते थे।

 

 

अहमद बिन हंबल पूर्वानुमान से दूर रहते थे सिर्फ़ उन चीज़ों के बारे में फ़त्वा देते थे जो व्यवाहरिक रूप से गुज़र चुकी होती थीं। उनका मानना था कि फ़त्वा ज़रूरत पड़ने पर देना चाहिए। हालांकि के अहमद बिन हंबल की फ़िक़्ह को बहुत कठिन माना जाता है लेकिन फिर उसमें तर्क का प्रभाव दिखाई देता है। शायद यह कहना ग़लत न होगा कि अहमद बिन हंबल के मत की आस्था संबंधी विशेषता, वह चीज़ है जिसने सलफ़ियों को इस बात के लिए प्रेरित किया कि वे ख़ुद को अहमद बिन हंबल का अनुसरणकर्ता कहलवाएं। हंबली मत में हदीसों के विदित रूप पर बल दिया जाना वह विशेषता है जिससे सलफ़ियों को हंबली मत से ख़ुद को जोड़ने का अवसर मिला। सलफ़ी धार्मिक मामलों में धर्मगुरुओं का अनुसरण नहीं करते, यही कारण है कि सलफ़ियों के पास ख़ुद को अहमद बिन हंबल से जोड़ने के अलावा कोई रास्ता नहीं है।

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