यूरोप में अल्पसंख्यकों के अधिकारों का हनन
प्यू अध्ययन केन्द्र की रिपोर्ट के मुताबिक़, 38 यूरोपीय देशों की सरकारों ने 2015 में धार्मिक अल्पसंख्यकों पर सीमित एवं व्यापक रूप से अत्याचार किए हैं।
अल्पसंख्यकों को ऐसी हालत में निशाना बनाया गया है कि जब 2015 में क़रीब 13 लाख लोगों ने यूरोपीय देशों में शरण की मांग की थी। दूसरे विश्व युद्ध के बाद, यूरोप में शरण लेने वालों की मांग करने वालों की संख्या अभूतपूर्व रूप से बढ़ गई है। इन शरणार्थियों में आधे से अधिक सीरिया, अफ़ग़ानिस्तान और इराक़ जैसे मुस्लिम देशों से संबंध रखते हैं।
इस अध्ययन में सरकारी सतह पर दी जाने वाली यातनाओं से तात्पर्य किसी गुट या व्यक्ति के ख़िलाफ़ उसके धर्म के कारण, अवैध कार्यवाही करना है। इन यातनाओं में धमकी देना, लोगों को ज़बरदस्ती एक दूसरे से अलग करना या उन्हें उनके धार्मिक संस्कारों से रोकना शामिल है। सरकारी सतह पर लोगों के ख़िलाफ़ बल के प्रयोग से संभव है उन्हें व्यक्तिगत रूप से या धार्मिक रूप से नुक़सान पहुंचाया जाए, उन्हें गिरफ़्तार कर लिया जाए और एक स्थान से दूसरे स्थान पर लेकर जाया जाए या उनकी हत्या कर दी जाए।
प्यू की रिपोर्ट में उल्लेख किया गया है कि अल्पसंख्यकों में मुसलमानों को विशेष रूप से यातनाएं दी जा रही हैं, इसलिए कि दूसरे धर्मों को मानने वाले अल्पसंख्यकों, जैसे कि यहूदियों को विशेष अधिकार प्राप्त हैं और यूरोप में किसी सरकार या किसी अधिकारी में इतना साहस नहीं है कि वह उनके बारे में विचार तक व्यक्त कर सके। यूरोप में इस्लामोफ़ोबिया का इतिहास काफ़ी पुराना है और यह सरकारी सतह पर बहुत ही व्यवस्थित ढंग से जारी है। यूरोप में इस्लामी नाम, रंग और इस्लामी वेशभूषा के आधार पर भेदभाव किया जाता है। हिजाब पहनने वाली मुस्लिम महिलाओं को इस प्रकार के भेदभाव का अधिक सामना करना पड़ता है।
पश्चिम में मानवाधिकार संस्थाएं आम तौर पर मुसलमानों की स्थिति को महत्व नहीं देती हैं, लेकिन थोड़े थोड़े समय पर उनकी स्वाधीनता को दर्शाने के लिए यूरोप में मुसलमानों के बारे में रिपोर्ट जारी करती रहती हैं। पांच साल पहले एमनेस्टी इंटरनेश्नल ने अपनी एक रिपोर्ट में उल्लेख किया था कि जो मुसलमान यूरोप में अपने धार्मिक विश्वासों को स्पष्ट करते हैं, उनके साथ काफ़ी भेदभाव किया जाता है। मार्को प्रोलीनी के मुताबिक़, मुसलमान महिलाओं को नौकरी नहीं दी जाती है और मुस्लिम लड़कियों को क्लास में भाग लेने से रोक दिया जाता है, सिर्फ़ इसलिए कि वे अपनी पारम्परिक वेशभूषा यानी हिजाब पहनती हैं। संभव है कि पुरुषों को भी दाढ़ी के कारण, नौकरी से हाथ धोना पड़ जाता है। प्रोलीनी का कहना है कि सरकारी अधिकारी और राजनीतिक पार्टियां भी इस पर रोक-थाम के बजाए, वोटों की ख़ातिर उनके सामने नतमस्तक हो जाती हैं।
एमनेस्टी इंटरनेश्नल की इस रिपोर्ट के मुताबिक़, इस्लाम से संबंधित निशानियों का इज़हार करना, अभिव्यक्ति की आज़ादी का हिस्सा है। यह धार्मिक आज़ादी का भाग भी है और समस्त धर्मों के अनुयाईयों को यह आज़ादी मिलनी चाहिए। लेकिन दुर्भाग्यवश यूरोपीय मुसलमानों को अपने धार्मिक संस्कारों के लिए पूरी तरह से आज़ादी हासिल नहीं है। अभिव्यक्ति की आज़ादी का दावा करने वाले देश विशेष रूप से फ़्रांस, मुसलमानों के अधिकारों को सीमित करने में सबसे आगे हैं।
फ़्रांस ने सबसे पहले स्कूलों में मुस्लिम लड़कियों के हिजाब पर पाबंदी लगाई। उसके बाद फ़्रांस का अनुसरण करते हुए यूरोप के अन्य देशों ने सार्वजनिक स्थानों पर मुसलमान महिलाओं के हिजाब पर प्रतिबंध लगा दिया। उसके बाद स्कार्फ़ और बुर्क़े को निशाना बनाया जाने लगा। यूरोप के अधिकांश देशों ने बुर्क़ा पहनने पर प्रतिबंध लगा दिया है। उन्होंने मुसलमानों के लिए सीमितताएं लगाकर इस्लामी वास्तुकला को भी निशाना बनाया। स्विट्ज़रलैंड में दक्षिणपंथी पार्टियों ने मस्जिदों पर मीनार और गुंबद के निर्माण पर रोक लगा दी। कुछ यूरोपीय देश स्कूलों और मदरसों में अरबी भाषा के पढ़ाने पर प्रतिबंध लगाने का प्रयास कर रहे हैं। हालांकि अरबी क़ुरान और इस्लाम की भाषा है।
यह समस्त प्रतिबंध एक ग़लत धारणा के आधार पर लगाए जा रहे हैं, वह धारणा यह है कि इस्लाम चरमपंथ और हिंसा को बढ़ावा देता है। पश्चिमी देश इस ग़लत धारणा के आधार पर इस्लामोफ़ोबिया को हवा देते हैं और मुसलमानों के साथ भेदभाव को सही ठहराते हैं। यूरोप में आतंकवाद विरोधी क़ानूनों को इस तरह से बनाया गया है कि इससे प्रमुख निशाना मुसलमानों को बनाया जाए। किसी भी छोटी सी आतंकवादी घटना के तुरंत बाद मुसमलानों को निशाना बनाया जाता है और मीडिया इस मुद्दे को ख़ूब उछालता है। एमनेस्टी इंटरनेश्नल ने इसी साल जनवरी के अंत में यूरोप में आतंकवाद विरोधी क़ानूनों की आलोचना करते हुए, इन्हें भेदभावपूर्ण बताया था। इस रिपोर्ट में कहा गया है कि यूरोप में आतंकवाद विरोधी क़ानूनों का उद्देश्य मुसलमानों और शरणार्थियों को निशाना बनाना है, ताकि उनके बीच भय और घृणा उत्पन्न हो।
इस रिपोर्ट को तैयार करने वाली एमनेस्टी इंटरनेश्लन की विशेषज्ञ जूलिया हाल के मुताबिक़, आज भी हम यूरोप में देख रहे हैं कि वार्ता और विचार विमर्श से अधिक एक ऐसी विचारधारा को बढ़ावा दिया जा रहा है, जिसके आधार पर अगर आप मुसलमान, शरणार्थी या अप्रवासी हैं तो आप एक ख़तरा माने जाते हैं। एमनेस्टी इंटरनेश्नल की इस रिपोर्ट में हम यह स्पष्ट करना चाहते हैं कि इस विचारधारा को बढ़ावा देने में यूरोपीय सरकारों की भूमिका भी रही है।
इस बात के दृष्टिगत कि यूरोपीय देशों में शरणार्थियों और अप्रवासियों की अधिकांश संख्या मुसलमानों की है, शरणार्थी विरोधी नीतियों का नुक़सान भी मुसलमानों को अधिक होता है। मुसलमानों के लिए समस्याएं उत्पन्न करने के लिए यूरोपीय पार्टियों के बीच एक प्रतिस्पर्धा सी चल रही है। इसमें दक्षिणपंथी पार्टियां सबसे आगे हैं। फ़्रांस की राष्ट्रीय मार्टा पार्टी और नीदरलैंड की इस्लाम विरोधी स्वतंत्रता पार्टी इसमें अग्रणि हैं। नीदरलैंड की स्वतंत्रता पार्टी के प्रमुख ने देश में मस्जिदों और इस्लामी स्कूलों को बंद करने की मांग की है। वे सड़क पर दिखाई पड़ने वाले हर उस व्यक्ति को सड़कछाप आतंकवादी कहते हैं कि जो देखने में विदेशी लगता हो फ़्रांस के भी एक वरिष्ठ नेता लोपेन ने फ़्रांस में मुस्लिम महिलाओं के हिजाब पर पूर्ण रूप से प्रतिबंध लगाने की मांग की है। फ्रांस की जनता के बीच, मुसलमानों के पाक साफ़ भोजन कि जिन पर हलाल लिखा होता है, काफ़ी लोकप्रिय हैं। दक्षिणपंथी पार्टियों की विचारधारा के विस्तार को देखते हुए, यूरोपीय पार्टियों ने अपना जनादेश हाथ से निकल जाने के भय से मुस्लिम और शरणार्थी विरोधी नीतियों को बढ़ावा देना शुरू कर दिया। व्यवहारिक रूप से यह नीतियां, यूरोप में मुसलमानों के साथ भेदभाव में वृद्धि का कारण बनी हैं। इसलिए कि यूरोपीय सरकारें, इन जातिवादी नीतियों को मुसलमानों के लिए सीमितताएं उत्पन्न करने के लिए इस्तेमाल कर रही हैं।