Jul ०५, २०१७ १२:५२ Asia/Kolkata
  • अफ़ग़ानिस्तान और पाकिस्तान में सांप्रदायिकता फैलाने में अमरीका और ब्रिटेन की जासूसी।

सांप्रदायिता का विषय, ब्रिटेन और उसके बाद अमरीका की ओर से इस्लामी देशों में घुसाया गया है और इस बारे में होने वाले शोध से पता चलता है कि इसमें साम्राज्यवाद की भूमिका देखी जा सकती है।

यद्यपि सांप्रदायिकता के विषय में ब्रिटेन की गुप्तचर संस्था के हस्तक्षेप के विभिन्न प्रमाए मिलते हैं किन्तु इस बारे में ब्रिटेन की ख़ुफ़िया एजेन्सी ने जो महत्वपूर्ण कार्य किया है जिसके आज तक इस्लामी जगत पर विध्वंसक प्रभाव पड़ रहे हैं, वह वहाबी मत का अस्तित्व था। ब्रिटेन ने वर्ष 1710 में अपने माहिर जासूस हमफ़्रे को तुर्की भेजकर इस्लामी जगत को कमज़ोर करने और सांप्रदायिकता फैलाने का पहला क़दम उठाया।  वह व्यापक स्तर पर इस्लामी ज्ञान प्राप्त करने के बाद इराक़ गया और उसके बाद उसने हेजाज़ या वर्तमान सऊदी अरब जाकर मुहम्मद इब्ने वह्हाब से जान पहचान बढ़ाई और वह्हाबी मत का आधार रखा। हमफ़्रे ब्रिटेन का बहुत बड़ा जासूस था जिसे लंदन की ओर से दो महत्वपूर्ण ज़िम्मेदारी दी गयी थी पहली ज़िम्मेदारी उसमानी सरकार के विरुद्ध लोगों को भड़काना और दूसरी धार्मिक पंथ का आधार रखकर मुसलमानों के मध्य मतभेद के बीच बोना था। मुहम्मद इब्ने अब्दुल वह्हाब वह महत्वपूर्ण मोहरा था जिसने मुसलमानों के विरुद्ध ब्रिटिश षड्यंत्रों के क्रियान्वयन में सहायता की। हमफ़्रे की बातों से प्रभावित होकर मुहम्मद इब्ने अब्दुल वह्हाब ने फ़तवा दिया कि यदि किसी ने उसके पंथ को स्वीकार नहीं किया तो वह काफ़िर है और उससे युद्ध करन समस्त मुसलमानों की ज़िम्मेदारी है। इस प्रकार से इस्लामी जगत में पथभ्रष्ट मत वहाबियत के अस्तित्व में आने से बहुत बड़ा मतभेद पैदा हो गया।

ब्रिस्टन विश्व विद्यालय के प्रोफ़ेसर अली ज़ुल्फ़ा ग़ाज़ी ने वहाबी शीर्षक के अंतर्गत 15 अगस्त 1993 में इस्लाम वेबसाइट पर एक लेख लिखा। वह लिखते हैं कि मुहम्मद इब्ने अब्दुल वह्हाब ने एक फ़तवा जारी किया कि जो भी मुस्लमान इब्ने सऊद का विरोधी होगा वह अनेकेश्वरवादी है और यदि किसी ने उसका फ़तवा मानने से इन्कार कर दिया तो उसने धर्म में नई बात घुसा दी अर्थात बिदअत की।

मुहम्मद इब्ने अब्दुल वह्हाब के आले सऊद परिवार से निकट संबंध थे क्योंकि उसने अपने बेटी का विवाह आले सऊद परिवार के किसी लड़के से किया था ताकि वहाबी विचार धारा फैलाने में उसे राजनैतिक और वित्तीय समर्थन प्राप्त हो सके। इस बात के दृष्टिगत कि ब्रिटिश साम्राज्यवाद भारतीय उपमहाद्वीप में वर्षों तक अपना पंजा गड़ाए रहा, उसने इस क्षेत्र में सांमप्रदायिक नीतियों को आगे बढ़ाने के लिए वर्ष 1866 में देवबंदी विचारधारा का आधार रखा। पंथ की दृष्टि से देवबंदी, अहले हदीस और सलफ़ियों के अनुयायी हैं और वे अपनी आस्थाओं में कठोर और अड़ियल होते हैं और बात बात पर झगड़े पर उतर आते हैं । देवबंदीवाद का आधार भारतीय उपमहाद्वीप में सुन्नी और शीया मुसलमानों विशेषकर मुसलमानों में मतभेद पैदा करने के लिए रखा गया और यह समुदाय स्वयं के अतिरिक्त किसी और को मुसलमान ही नहीं मानता था।  इस आधार पर देवबंदीवाद और वहाबियत के संबंध बहुत घनिष्ट हो गये और इसका अर्थ यह हुआ कि सऊदी अरब ने पैसों के ज़ोर पर इस्लामी समाज विशेषकर पाकिस्तान में दो पथभ्रष्ट और गुमराह समुदाय का आधार रख दिया।

भारतीय उपमहाद्वीप के विभाजन, भारत तथा पाकिस्तान और उसके बाद बांग्लादेश के स्वतंत्र होने के बाद देवबंदीवाद और वहाबियत ने पाकिस्तान में अपना अड्डा बना लिया और यह मुस्लिम देश, सिपाहे सहाबा, लश्करे झंगवी जैसे आतंकवादी और कट्टरपंथी गुटों के आस्तित्व में आने तथा कट्टरपंथी धार्मिक स्कूलों और मदरसों का आधार रखे जाने के कारण चरमपंथ और कट्टरपंथ के केन्द्र में परिवर्तित हो गया।

आर्थिक विशेषज्ञ और ब्रिटिश इस्लामिक परिषद में इस्लामी मामलों के विशेषज्ञ मुहम्मद इक़बाल एसारिया इस बारे में लिखते हैं कि यद्यपि विदेशी शक्तियों विशेषकर ब्रिटेन ने इस्लामी जगत में वहाबी और सलफ़ी विचारधारा को पैदा करने में निर्णायक भूमिका अदा की है किन्तु इस प्रकार की विचार धाराएं अमरीका और ब्रिटेन के हस्तक्षेप के साथ अरब तानाशाही सरकारों के पेट्रो डालर के प्रयोग से फैली हैं और इस विचारधारा ने तकफ़ीर और हिंसक शैली से सांप्रदायिकता के फैलाव की भूमिका प्रशस्त की।

अफ़ग़ानिस्तान में सांप्रदायिकता का विषय भी सोवियत संघ की ओर से इस देश के अतिग्रहण के काल से आरंभ हुआ है।  अमरीका की ख़ुफ़िया एजेन्सी सीआईए और ब्रिटेन की एमआई-6 ने सोवियत संघ की सेना से मुक़ाबले के लिए जेहादी गुटों की सहायता के बहाने अफ़ग़ानिस्तान में पैठ बनाने का मौक़ा देखा । इस काल में सीआईए ने अफ़ग़ानिस्तान की तथाकथित स्वतंत्रता के लिए गर्दबाद नामक एक अभियान चलाने के लिए साढ़े तीन सौ अरब डालर विशेष किए जिसके अंतर्गत पाकिस्तान में सोवियत सेना से युद्ध करने के लिए छात्रों को प्रशिक्षण देने के लिए अधिकतर मदरसों का गठन किया गया। इन मदरसों की प्रवृत्ति के दृष्टिगत कि इन मदरसों से पढ़े अधिकतर लोग सऊदी अरब की कट्टरपंथी और वहाबी विचारधाराओं से प्रभावित थे, मदरसों में पढ़ाए जाने वाले विषय भी वहाबियत की शिक्षाओं पर ही आधारित थीं और इस प्रकार यह क्षेत्र कट्टरपंथ और सांप्रदायिकता के विस्तार का केन्द्र बन गया।

अफ़ग़ानिस्तान के अतिग्रहण के समय से ही ब्रिटेन, अमरीका, सऊदी अरब और पकिस्तान की ख़ुफ़िया एजेन्सियों के बीच सांप्रदायिकता को हवा देने के उद्देश्य से संबंध स्थापित हो गये थे। इसका अर्थ यह है कि सांप्रदायिकता का विषय साम्राज्यवादियों के मुक़ाबले में इस्लामी देशों और इस्लामी जगत में मतभेद फैलाने के उद्देश्य से विश्व साम्राज्यवादी शक्तियों की ओर से पेश किया गया है।

लंदन में रहने वाले बहरैन के प्रसिद्ध टीकाकार और अबरार हाऊस संस्था के प्रबंधक डाक्टर सईद शहाबी इस बारे में कहते हैं कि सांप्रदायिकता, धार्मिक विषय से पहले एक राजनैतिक विषय है और वास्तव में सुन्नी समाज के लिए एक चुनौती में बदल चुकी है क्योंकि साम्राज्यवादी देशों ने सुन्नी मुसलमानों को सांप्रदायिकता की आग में झोंक दिया है ताकि लोकतंत्र, मतदान, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और माल की लूटपाट जैसे महत्वपूर्ण विषयों से उनको दूर रख सकें।

इस लक्ष्य को व्यवहारिक बनाने के लिए ब्रिटेन की गुप्तचर संस्था एमआई-6 ने अपने पुराने अनुभव के कारण भारतीय उपहाद्वीप यहां तक कि अफ़ग़ानिस्तान में अमरीका की ख़ुफ़िया एजेन्सी सीआईए का भी नेतृत्व किया। वास्तव में एमआई-6 ने बड़ी चतुराई से समय और स्थान को देखकर मुसलमानों के बीच मतभेद पैदा करने के लिए विभिन्न कार्यक्रम और षड्यंत्र तैयार किए। वर्तमान समय में साम्राज्यवादी सोशल मीडिया, टीवी चैनलों, रेडियो जैसे अन्य आधुनिक उपकरणों का  प्रयोग करके लोगों में मतभेद पैदा करने का प्रयास कर रहा है। इन चैनलों के सेन्टर अधिकतर रियाज़ और लंदन हैं। इसके अतिरिक्त अमरीका और ब्रिटेन ने सांप्रदायिकता को केवल सुन्नी मुसलमानों तक ही सीमित नहीं रखा बल्कि कुछ हल्क़ो का कहना है कि वह शीया मुसलमानों और ईसाईयों में भी सांप्रदायिकता की बीज बोने के लिए यह काली करतूत कर रहा है।

अमरीका की गुप्तचर संस्था ने 2007 में घोषणा की थी कि निकट भविष्य में हम दुनिया के विभिन्न क्षेत्रों में कट्टरपंथी ईसाई देखेंगे। इसका अर्थ यह है कि अमरीका और ब्रिटेन की ख़ुफ़िया एजेन्सियों ने दुनिया के विभिन्न क्षेत्रों में धार्मिक युद्धों को छेड़ने के लिए विस्तृत कार्यक्रम बनाए हैं। आज लश्करे झंगवी और सिपाहे पासदारान जैसे तकफ़ीरी आतंकवादी गुट और वहाबी, हत्याएं और हिंसक कार्यवाहियां तक करता है और इससे पता चलता है कि मदरसों और मस्जिदों के मामले, सड़कों पर होने वाले युद्धों हत्याओं और पवित्र स्थलों पर हमले तक पहुंच गये हैं।

पाकिस्तान के प्रसिद्ध सुन्नी धर्मगुरु मुहम्मद शाह ग़ौरी का मानना है कि उन गुटों की इस प्रकार की सोच जो हर दिन एक नये नाम से सामने आते है, आतंकवादी विचारधारा है और ग़लत शिक्षाओं और प्रशिक्षण के आधार पर बेगुनाह लोगों का जनंसहार होता है।

पाकिस्ता के सुन्नी समुदाय के प्रसिद्ध धर्मगुरु मियां अहमद बरकाती का कहना है कि पाकिस्तान में सांप्रदायिक हिंसाओं और कार्यवाहियों में तेज़ी से वृद्धि, देवबंदी और बरेलवी मुसलमानों के मध्य मतभेद पैदा करने तथा सुन्नी और शीया मुसलमानों को आपस में लड़ाने के लिए अमरीका और ब्रिटेन की नीतियों का परिणाम है जो वहाबी मदरसों की ओर से फैलाया जा रहा है। कट्टरपंथी और सिपाहे सहाबा जैसे आतंकवादी गुटों की ओर से सुन्नत व जमाअत जैसे आम लोगों को पंसद आने वाले नामों का प्रयोग जनमत के ध्यान को हटाने और सुन्नी समुदाय को बदनाम करने के लिए किया जा रहा है।

तकफ़ीरी और आतंकवादी गुटों की ओर से अमरीका और ब्रिटेन की गुप्तचर संस्थाओं द्वारा सऊदी अरब की ओर से सबसे बड़ी मुसीबत खड़ी की गयी है वह तकफ़ीरी आतंकवादी गुट दाइश का गठन है। वास्तव में यह गुट, कट्टरपंथी और आतंकवादी गुट का ही नया रूप है जो नये नाम से मुसलमानों के बीच मतभेद बो रहा है।

भारत की मजलिसे मुशविरते मुस्लेमीन परिषद के प्रमुख, टीककार और विशेषज्ञ डाक्टर जफ़रुल इस्लाम का इस बारे में कहना है कि दाइश अचानक ही भूत की भांति अस्तित्व में नहीं आ गया बल्कि सीआईए के कार्यक्रमों की देन है। यह संस्था उन लोगों को पूरी दुनिया से चुनती है जो कट्टरपंथ और चरमपंथ में आगे होते हैं ताकि लोगों में मतभेद पैदा करने और नफ़रत पैदा करने के लिए प्रयोग कर सकें। सीआईए सांप्रदायिकता फैलाने के लिए इस्लामी जगत, अवैध अधिकृत फ़िलिस्तीन, जार्डन और स्वयं अमरीका में इन लोगों का प्रशक्षिण करती है।

अब तकफ़ीरी आतंकवादी गुट दाइश ने इस्लामी ख़िलाफ़त का दावा पेश किया है और सीरिया और इराक़ में निरंतर पराजय के बाद यह गुट, पाकिस्तान, अफ़ग़ानिस्तान और दक्षिणपूर्वी एशिया के देशों में मतभेद फैलाने और आंतरिक युद्ध आरंभ करने के प्रयास में है। इसीलिए अमरीका और ब्रिटेन की गुप्तचर संस्थाओं से मुक़ाबले के लिए आंतरिक तत्वों की सहायता आवश्यक है और इसके लिए दुनिया के समस्त मुसलमानों को एकता और होशियारी का प्रदर्शन करना होगा।

 

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