ख़्वाजा अब्दुल्लाह अंसारी-1
ख़्वाजा अब्दुल्लाह अंसारी का पूरा नाम अबू इस्माईल अब्दुल्लाह बिन मंसूर अंसारी था।
ख़्वाजा अब्दुल्लाह अंसारी का पूरा नाम अबू इस्माईल अब्दुल्लाह बिन मंसूर अंसारी था। उनका जन्म दो शाबान सन 396 हिजरी क़मरी को तूस के सीमावर्ती क्षेत्र कोहन्देज़ में हुआ था। ख़्वाजा अब्दुल्लाह अंसारी, पैग़म्बरे इस्लाम के मश्हूर सहाबी अबू अय्यूब ख़ालिद बिन अंसारी के परपौत्र थे। अबू अय्यूब व ही थे जिनके घर मदीने में पैग़म्बरे इस्लाम (स) ठहरे थे।
यह घटना इस प्रकार है कि जब पैग़म्बरे इस्लाम (स) ने मक्के से मदीना हिजरत की और वे मदीना नगर पहुंचे तो सारे मदीनावासी यह चाहते थे कि पैग़म्बरे इस्लाम, उन्ही के घर में विश्राम करें। यह अनुरोध कोई एक व्यक्ति नहीं बल्कि मदीने का हर मुसलमान कर रहा था। इसको देखते हुए पैग़म्बरे इस्लाम ने कहा कि जिस स्थान पर भी मेरा ऊंट रूकेगा मैं वहीं पर विश्राम करूंगा। पैग़म्बरे इस्लाम का ऊंट चलते-चलते अबू अय्यूब अंसारी के घर पर रूक गया और पैग़म्बर ने मदीने में उन्हीं के यहां विश्राम किया। इस प्रकार अबू अय्यूब ख़ालिद बिन अंसारी को विशेष महत्व प्राप्त है। अब्दुल्लाह अंसारी उन्हीं के परपौत्र थे।
अब्दुल्लाह अंसारी के पिता का नाम अबू मंसूर मुहम्मद बिन अली अंसारी था जो एक व्यापारी थे। वे ईश्वरीय भय रखने वाले शालीन और सज्जन व्यक्ति थे। अब्दुल्लाह अंसारी के बचपन में ही उनके पिता का निधन हो गया था। अपना बचपना अब्दुल्लाह अंसारी ने निर्धन्ता में गुज़ारा था। अब्दुल्लाह अंसारी ने बचपन से ही पढाई आरंभ कर दी थी। उन्होंने पवित्र क़ुरआन के दक्ष व्याख्याकारों से शिक्षा ग्रहण की थी। उनके गुरूओं में से एक यहया बिन अम्मार शीबानी थे। वे शीराज़ से हरात गए थे जहां पर वे क़ुरआन की व्याखया पढ़ाया करते थे।
यहया बिन अम्मार शीबानी वे ही हैं जिन्होंने तत्वदर्शियों की शैली को इस्लामी शिक्षाओं के अनुरूप किया था। उनकी यह सोच उनके शिष्यों में भी पाई जाती थी। अब्दुल्लाह अंसारी भी अपने गुरू के इन विचारों से प्रभावित थे। कहते हैं कि मज़बूत स्मरण शक्ति के कारण अब्दुल्लाह अंसारी पर बचपन से ही उनके गुरूओं ने विशेष ध्यान दिया। उन्होंने अपने बचपन में ही पवित्र क़ुरआन हिफ़्ज़ कर लिया था और अपनी आयु के छात्रों में वे सबसे तेज़ थे।
बताते हैं कि अब्दुल्लाह अंसारी ने 4 वर्ष की आयु से पाठशाला जाना आरंभ कर दिया था। 9 वर्ष की आयु में वे शेर कहने लगे थे और इस आयु में उन्हें पैग़म्बरे इस्लाम की बहुत सी हदीसे या उनके कथन याद थे। पैग़म्बरे इस्लाम (स) की हदीसों को संकलित करने में अब्दुल्लाह अंसारी ने बहुत कठिनाइयां सहन कीं। उनका कहना है कि इस मार्ग में मैने विभिन्न प्रकार की समस्याओं का सामना किया।
ख़्वाजा अब्दुल्लाह अंसारी के गुरू, शाफेई पंथ के थे किंतु कुछ समय के बाद उन्होंने हंबली पंथ को स्वीकार कर लिया था। सन 417 हिजरी क़मरी में अब्दुल्लाह अंसारी की आयु 21 वर्ष थी। उस समय वे उच्च शिक्षा ग्रहण करने के उद्देश्य से नेशापूर गए। चौथी और पांचवी शताब्दी हिजरी क़मरी में ख़ुरासान इस्लामी तत्वज्ञान का केन्द्र था। यही कारण है कि उस काल के विद्धान यहां आया करते थे। विश्व के अन्य क्षेत्रों से आने वाले विद्धान, खुरासान में मौजूद बड़े-बड़े पुस्तकालयों से लाभ उठाते थे।
ख़ुरासान में कई विख्यात सूफी हुए हैं जैसे अबू नस्र सेराज, अबूबक्र मुहम्मद केलाबाज़ी, अबु अब्दुर्रहमान सुल्लमी और इमाम अबुल क़ासिम क़शीरी आदि। इस्लामी इरफ़ान को शिखर तक पहुंचाने में इन सूफ़ियों की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। खुरासान की सूफ़ी विचारधारा का मुख्य उद्देश्य, धर्म में फैली हुई कुरीतियों को हटाना था। इसी उद्देश्य से अबूनस्र सिराज और उनके शिष्यों सुल्लमी तथा क़शीरी ने तत्कालीन ख़ुरासान मे विशेष विद्यालय खोले थे। ख़ुरासान में प्रचलित सूफीवाद, उस काल के महान सूफ़ी विद्वानों के कथनों पर आधारित था। ख़्वाजा अब्दुल्लाह अंसारी इसी विचारधारा में पले-बढ़े और अपने जीवन के अन्तिम समय तक इसके प्रति वफादार थे।
अपनी कुशाग्र बुद्धि के कारण अब्दुल्लाह अंसारी ने बहुत ही कम समय में अधिक ज्ञान अर्जित कर लिया था। साथ ही गहन अध्ययन के कारण उनकी गणना उस काल के जानेमाने सूफ़ियों में होने लगी
थी। बहुत से लोगों ने अब्दुल्लाह अंसारी से आध्यात्मिक बातें सीखीं।
अब्दुल्लाह अंसारी ने अपने जीवन का थोड़ा सा भी समय व्यर्थ नहीं गंवाया। वे भोर समय उठते थे और अपना कार्यक्रम आरंभ करते थे जो आधी रात तक चलता था। वे या तो पढ़ते और अध्ययन करते या फिर अपने गुरूओं की सेवा में उपस्थित होकर उनकी शिक्षाओं से लाभान्वित होते थे। इस बारे में वे स्वयं कहते हैं कि मैंने अपनी दिनचर्या को कई भागों में विभाजित कर रखा था। मैं अपना थोड़ा सा भी समय व्यर्थ में नहीं जाने देता था।
वे कहते हैं कि मैं प्रातः उठकर पवित्र क़ुरआन पढ़ता और लंबे समय तक उसके बारे में चिंतन-मनन किया करता था। उसके बाद अपनी पढ़ाई करता था पढ़ाई के बाद रात में पैग़म्बरे इस्लाम के पवित्र कथनों को लिखने का काम करता था। अब्दुल्लाह अंसारी कहते हैं कि कभी-कभी तो ऐसा होता था कि मुझको खाने का भी समय नहीं मिल पाता था और मेरी माता अपने हाथों से मुझको खाना खिलाती थीं। उनका कहना है कि मैं जो कुछ पढ़ता या लिखता था वह बातें मुझको याद हो जाती थीं।
सन 432 हिजरी क़मरी में अब्दुल्लाह अंसारी हज की यात्रा के लिए निकले। मक्के जाते समय वे बग़दाद गए और वहां पर उन्होंने अबू मुहम्मद ख़ेलाल बग़दादी के भाषणों को सुना। हज करने के बाद वापसी में वे तूस, बस्ताम और ख़रक़ान भी गए। ख़रक़ान में उन्होंने अबुल हसन ख़रक़ानी से भेंट की। ख़रक़ानी अपने काल के प्रसिद्ध सूफ़ी थे। अबुल हसन ख़रक़ानी से भेंट का अब्दुल्लाह अंसारी पर बहुत प्रभाव पड़ा। उनसे मिलकर अब्दुल्लाह अंसारी के भीतर मौजूद सूफ़ीवाद की भावना तेज़ी से उमड़ पड़ी। ख्वाजा अब्दुल्लाह अंसारी ने शेख अबूसईद अबुलख़ैर से भी ज्ञान अर्जित किया था।
सूफी विचारधारा के महान गुरूओं से भेंट करने के बाद अब्दुल्लाह अंसारी अपनी मातृभूमि वापस आ गए। उसके बाद उन्होंने अपनी मातृभूमि में रहना आरंभ कर दिया जहां पर वे पढ़ने और पढ़ाने का काम करते थे। उस समय जब मशहूर शाफेई धर्मगुरू इमामुल हरमैन ने इल्मे कलाम का विरोध किया तो उन्होंने उसके खण्डन में एक पुस्तक लिखी। यही कारण है कि उन्हें कई बार जान से मारने की धमकियां दी गईं। बाद में तत्कालीन शासक नेज़ामुल मुल्क ने उन्हें नेशापूर निर्वासित कर दिया। हालांकि नेशापूर में भी उन्हें डराया धमकाया गया और वहां के शासन ने उनकी सुरक्षा के लिए अधिक प्रयास नही किये किंतु वह यह भी नहीं चाहता था कि अब्दुल्लाह अंसारी के कारण नगर में अशांति उत्पन्न हो।
ख़्वाजा अब्दुल्लाह असांरी को शेखुल इस्लाम की उपाधि दी गई थी। उनके शिष्यों की संख्या बहुत थी। आयु के अन्तिम समय में अब्दुल्लाह अंसारी की आखों की रौशनी चली गई थी। 85 वर्ष की आयु में 22 ज़िलहित सन 481 हिजरी क़मरी को शुक्रवार के दिन अब्दुल्लाह अंसारी का निधन हो गया जिन्हें उनकी मातृभूमि में दफ़न किया गया। इस समय भी ख़्वाजा अब्दुल्लाह अंसारी की क़ब्र पर उनके मानने वालों की भीड़ लगी रहती है।