तकफ़ीरी आतंकवाद-9
यद्यपि पिछली शताब्दियों के दौरान सलफ़ीवाद के आधार और सिद्धांत बाक़ी रहे हैं किन्तु समय और स्थान की विशेषताओं और परिस्थितियों के अनुसार उसमें ऐसे परिवर्तन अस्तित्व में आते हैं जिससे समकालीन सलफ़ीवाद को पूर्ण रूप से वही पारंपरिक सलफ़ीवाद या क्लासिकल सलफ़ीवाद कहा जा सके।
यद्यपि पिछली शताब्दियों के दौरान सलफ़ीवाद के आधार और सिद्धांत बाक़ी रहे हैं किन्तु समय और स्थान की विशेषताओं और परिस्थितियों के अनुसार उसमें ऐसे परिवर्तन अस्तित्व में आते हैं जिससे समकालीन सलफ़ीवाद को पूर्ण रूप से वही पारंपरिक सलफ़ीवाद या क्लासिकल सलफ़ीवाद कहा जा सके। समकालीन सलफ़ीवाद की पहचान के लिए सबसे पहले हमें उसकी आरंभिक विशेषताओं को पहचाना होगा उसके बाद ही हम इस विचारधारा के अस्तित्व में आने के कारणों को समझ सकेंगे और फिर हम तकफ़ीरी विचारधारा के ध्वजवाहक के रूप में वहाबियत के स्थान को सलफ़ीवाद के विभिन्न धड़ों के बीच से अच्छी तरह पहचान सकते हैं।
आरंभ में सलफ़ीवाद की विशेषताएं जो वर्तमान आस्थाओं, राजनैतिक व कलात्मक माहौल से प्रभावित है, बयान करेंगे और उसके बाद सलफ़ीवाद के विभिन्न धड़ों और गुटों की समीक्षा करेंगे। समकालीन सलफ़ीवाद की विशेषताएं, समय और स्थान की स्थिति की प्रतिक्रिया अनुरूप अस्तित्व में आयी हैं। तत्कालीन सलफ़ीवाद भी पारंपरिक सलफ़ीवाद की ही भांति केवल आस्था संबंधी मत का नाम नहीं है बल्कि इसकी कुछ विशेषताएं भी हैं जो केवल आस्था संबंधी सलफ़ीवाद से उसको अलग करती हैं।
समकालीन सलफ़ीवाद की विशेषताओं में से एक इसकी कोई विशेष परिभाषा और स्पष्ट सीमा का ना होना है। पारंपरिक सलफ़ीवाद की परिभाषा, इस्लाम धर्म की आरंभिक तीन शताब्दियों के मुसलमानों के पूर्ण अनुसरण पर आधारित है। अब प्रश्न यह उठता है कि क्या समकालीन सलफ़ीवाद भी इस्लाम की आरंभिक तीन पीढ़ियों पर आस्था रखने पर विश्वास रखते हैं या उसका यह मानना है कि पवित्र क़ुरआन और पैग़म्बरे इस्लाम के आचरण का अनुसरण किया जाए।
ट्यूनीशिया के इख़वानुल मुसलेमीन संगठन के वरिष्ठ नेता और बुद्धिजीवी राशिद अलग़नूशी सलफ़ीवाद की परिभाषा करते हुए कहते हैं कि यह एक ऐसा रास्ता है जो धार्मिक व आस्था संबंधी अनुसरण को नकारता है और सिद्धांतों की ओर लौटने पर बल देता है। इस प्रकार की अस्पष्ट परिभाषा से समकालीन सलफ़ीवाद का अर्थ गंभीर चुनौतियों में घिर गया है, यहां तक कि स्वयं सलफ़ी लोग भी एक मत के रूप में सलफ़ीवाद के अर्थ को बयान करने में असमर्थ हैं और अब जबकि इस विचारधारा को अस्तित्व में आये वर्षों का समय हो रहा है, इस मत की पुनर्परिभाषा करने और उसकी सीमाओं को निर्धारित करने के लिए विभिन्न बैठकों और कांफ़्रेंसों का आयोजन कर रहे हैं। उदाहरण स्वरूप सऊदी अरब की राजधानी रियाज़ में “सलफ़ीवाद, अर्थ, चरण और परिवर्तन” शीर्षक के अंतर्गत एक कांफ़्रेंस आयोजित हुई जिसमें विभिन्न देशों के बुद्धिजीवियों ने पारंपरिक सलफ़ीवाद के अर्थों में बिखराव और वर्तमान समय में उसके अस्पष्ट होने पर प्रकाश डाला।
डाक्टर अब्दुल्लाह बरीदी के अनुसार, वर्तमान परिस्थितियां, पारंपरिक सलफ़ीवाद की परिभाषा से समन्वित नहीं है और वर्तमान समय का अपना अलग साहित्य है और उसकी अपनी अलग विशेषताएं और आवश्यकताएं हैं।
सलफ़ीवाद के अर्थ से हटकर जिसमें बहुत अधिक अस्पष्टताएं पायी जाती हैं, सलफ़ीवाद के सिद्धांतों में पायी जाने वाली चुनौतियों ने भी उसमें फूट पैदा कर दी है और यह गुट गुट में बंट गया है। उदाहरण स्वरूप, पिछले कुछ दशकों के दौरान बुद्धि व हदीसों पर उनकी नज़र और उनके व्यवहार परिवर्तित हो गये हैं। यह अहमद बिन हंबल की विरासत है और जब सलफ़ीवाद की मुख्य विशेषता समझ में आ गयी तो अब उसे गंभीर प्रश्नों का सामना है।
रियाज़ में इमाम मुहम्मद बिन सऊद विश्व विद्यालय के थियोलॉजी संकाय की एकेडमिक परिषद के सदस्य, मुफ़रेह बिन सुलैमान बिन अब्दुल्लाह अलक़ौसी का कहना है कि सलफ़ीवाद के सामने दो क्षेत्रों में चुनौतियां पायी जाती हैं। पहला इस्लामी बुद्धिवाद और दूसरा पश्चिमी बुद्धिवाद। उनका मानना है कि वर्तमान समय में मुसलमानों के दो गुट इस्लामी बुद्धिवाद का प्रतिनिधित्व करते हैं। वे मुसलमान जो अपने बुद्धिवाद में इस्लामी मतों की विरासत पर भरोसा करते हैं और उनको बुद्धि पर तोलते हैं और दूसरा गुट मौजूद परिस्थितियों और वर्तमान समय में धर्म पर बौद्धिक दृष्टि की आवश्यकता के कारण, बुद्धि का सहारा लेता है। यह गुट बुद्धि से संघर्ष और उसके मुक़ाबले में खड़े होने को रूढ़ीवाद समझता है। उदाहरण स्वरूप, वहाबी सलफ़ीवाद के क्षेत्र में, जब सऊदी अरब की सरकार धर्म को बुद्धि से जोड़ने का प्रयास कर रही है और इस आधार पर उसने विभिन्न कांफ़्रेंसें आयोजित भी की हैं, और गुट अभी भी पूरी शक्ति से बुद्धि के मुक़ाबले में खड़े हैं। यह ऐसी स्थिति में है कि पाकिस्तान के रूढ़ीवादी अहले हदीस, बुद्धि को तनिक भी स्वीकार नहीं करते। एहसान एलाही ज़हीर ने अहले हदीस का एक गुट गठित किया जो बुद्धि का सहारा लेता है। उदाहरण स्वरूप यदि हदीस वास्तविकता तक पहुंचने में अकेले सक्षम नहीं है तो पहचान और जानकारी के एक स्रोत के रूप में हदीस के स्थान को किस प्रकार परिभाषित किया जाए? उसकी विश्वसनीयता की शर्त क्या है? यदि बुद्धि को शैली के स्थान पर स्वीकार कर लिया जाए तो सृष्टि की पहचान में बुद्धिवाद का राज होगा, या पहचान के मामले में, मनमानी व्याख्या और पवित्र क़ुरआन में प्रयोग होने वाले अवास्तविक अर्थ जैसी चर्चाएं बहुत महत्वपूर्ण हो जाएंगी।
यह स्थिति वाद शास्त्र में भी पैदा हो सकती है। यदि अतीत में एकेश्वरवाद, अनेकेश्वरवाद, ईमान, कुफ़्र, शिष्टाचार और धर्म में नई बातें प्रविष्ट करने जैसी चर्चाएं, सलफ़ीवाद से विशेष रही हैं, तो आज यह चर्चाएं गंभीर चुनौतियों का सामना कर रही हैं। उदाहरण स्वरूप वहाबी सलफ़ी विचारधारा में ईमान और कर्म के मध्य संबंध, जो मुसलमानों के अधर्मी होने का कारण बनता है, वर्तमान समय में हर वहाबी गुट इसको स्वीकार नहीं करता, जबकि नवीन सलफ़ी इस विचारधारा से पीछे हट गये और वे इस विचारधारा को रद्द करते हैं या सऊदी सरकार, अन्य मुसलमानों को जोड़ने और अलग थलग पड़ने से रोकने के लिए वहाबियत के पारंपरिक दृष्टिकोणों के प्रति बहुत प्रतिबद्ध नहीं है जबकि कट्टरपंथी वहाबी गुट अपनी पारंपरिक आस्थाओं पर यथावत बल दे रहे हैं और अपने अन्य गुटों का विरोध कर रहे हैं। इसी परिप्रेक्ष्य में जहीमान उतैबी के नेतृत्व में इख़वानुल मुसलेमीन गुट ने यह नारा लगाते हुए कि सरकार, वहाबियों के सच्चे दृष्टिकोणों और आस्थाओं से दिगभ्रमित हो गयी है, सरकार के विरुद्ध विद्रोह कर दिया और वर्ष 1373 में दो सप्ताह तक मस्जिदुल हराम पर क़ब्ज़ा किए रहा।
जो चीज़ें समकालीन आलोचनाओं को पारंपरिक आलोचनाओं से अलग करती हैं, वह मुख्य सलफ़ीवाद के मत पर प्रश्न चिन्ह लगाना है। उदाहरण स्वरूप अतीत में यह गुट सामान्य रूप से ईश्वर के नेक और निकट बंदों को माध्यम बनाकर ईश्वर से दुआ करने वालों और मज़ारों का दर्शन करने वालों पर हमला करता था जबकि आजकल सलफ़ीवाद नामी विचारधारा ही चुनौती का शिकार है। इस संबंध में कुछ लोग “सलफ़” को विशेष काल से संबंधित मानते हैं । कुछ लोग सलफ़ के तर्क की इसलिए आलोचना करते हैं कि मामलों में सलफ़ की नीतियां और दृष्टिकोण, धार्मिक आदेशों पर आधारित नहीं हैं ।
इस मध्य शीया मुसलमान भी बौद्धिक तर्कों और हदीसों के आधार पर यह स्वीकार नहीं करते कि पैग़म्बरे इस्लाम के सभी साथी और उनके बाद आने वाले सभी साथी आदिल अर्थात न्यायी है। सुन्नी समुदाय के अन्य गुट भी, इस प्रकार की विचारधाराओं पर भीषण हमला करते हुए इसे मुसलमानों के मध्य मतभेद फैलाने का कारण मानते हैं। सारे मुसलमान भी सलफ़ीवाद की विचारधारा के जो भीषण रूप से विदितवाद, सीमा से बढ़ जाना, आभासवाद और हदीसवाद है, कट्टर विरोधी हैं।
इस्लाम धर्म से निकल जाने और कुफ़्र का आरोप लगाकर अपने मुसलमान विरोधियों का सफ़ाया करने के लिए सलफ़ियों की हिंसक शैली, सार्वजनिक स्थलों पर भीषण बम धमाके और आतंकी कार्यवाहियों ने सलफ़ीवाद को लोकप्रियता और वैधता के मझधार में फंसा दिया है। उदाहरण स्वरूप वर्तमान समय में “अर्राबेता अलइस्लामिया” नामक वहाबियों के बहुत से कार्यालय जो वित्तीय सहायताओं के बहाने पूरी दुनिया विशेषकर अफ़्रीक़ा के निर्धन देशों में सांप्रदायिता को बढ़ावा देने के लिए सक्रिय थे, अब बंद हो गये हैं। सलफ़ीवाद, मानवीय भावनाओं की परवाह नहीं करता। सलफ़ीवाद की विचारधारा में भावनाओं का कोई स्थान नहीं है और उनका रूखा सूखा और दिखावे का ईश्वरीय भय और उसपर चढ़ी रूढ़ीवाद की भावना ने उसके आकर्षक और लुभावनेपन को कम कर दिया है। यह परिस्थितियां कारण बनी कि यह मत अपने संबोधकों विशेषकर युवाओं को अपने हाथ से गवां रहा है।
वर्तमान समय में सलफ़ीवाद का कोई विशेष, संगठित और व्यवस्थित अर्थ नहीं है और इसमें विभिन्न रुझहान पाये जाते हैं जिनमें से हर एक दूसरे को कभी तो धर्म के निकलने की हद तक अर्थात कुफ़्र तक नकार देते हैं। दूसरे शब्दों में आजकल सलफ़ीवाद से तात्पर्य, कट्टरपंथी विचारधारा पर व्यापक स्तर पर नर्मी बरतना है और कहा जाता है कि इनमें से हर एक वादशास्त्र, आस्था, राजनीति और सामाजिक दृष्टि से समान नहीं हैं। वर्तमान समय में सलफ़ीवाद आस्था की दृष्टि से अतीत के कालों से बहुत भिन्न हो गया है। उदाहरण स्वरूप सलफ़ीवाद मत का अहले हदीस गुट शाह वलीउल्लाह देहलवी के नेतृत्व में अलग हो गया और उसके बाद गुट के कुछ लोगों की आंतरिक गतिविधियों के कारण उसके भीतर भी एक गुट बन गया। इसी प्रकार वर्तमान समय में वहाबी सलफ़ीवाद विभिन्न गुटों की ओर विभाजित हो चुका है जिनमें से हर एक की अपनी अलग ही विशेषताएं हैं और उनको एक अर्थ के अंतर्गत बयान नहीं किया जा सकता। उदाहरण स्वरूप बहुत अधिक कट्टरपंथी व पारंपरिक गुटों से लेकर जैसे मुस्लिम ब्रदरहुड्स जो केवल मुहम्मद बिन अब्दुल वह्हाब की आस्थाओं पर विश्वास रखते हैं, कट्टरपंथी गुट तक में उदारवादी, सेक्युलर और अधर्मी विचारधारा के लोग शामिल होते हैं।