Mar १६, २०१६ १७:४४ Asia/Kolkata

मौजूदा सलफ़ीवाद के अर्थ में, चरमपंथी विचारधारा वाला वह बड़ा वर्ग आता है जिसमें सबके सब धर्मशास्त्र, आस्था और राजनीति तथा सामाजिक उत्पत्ति की दृष्टि से एक जैसे नहीं हैं।

मौजूदा सलफ़ीवाद के अर्थ में, चरमपंथी विचारधारा वाला वह बड़ा वर्ग आता है जिसमें सबके सब धर्मशास्त्र, आस्था और राजनीति तथा सामाजिक उत्पत्ति की दृष्टि से एक जैसे नहीं हैं। मौजूदा दौर के सलफ़ीवाद में आस्था की नज़र से विगत के युगों से अधिक विविधता है। सलफ़ीवाद के इतने अर्थ निकाले गए हैं कि इस शब्द में विभिन्न विचारधाराएं शामिल हैं और इसका दायरा बहुत बड़ा हो गया है। इसलिए आज सलफ़ीवाद अकेले कोई विशेष अर्थ नहीं देता बल्कि संयुक्त शब्द से मिल कर वास्तविक अर्थ देता है, जैसे तकफ़ीरी सलफ़ीवाद, प्राचारिक सलफ़ीवाद, जेहादी सलफ़ीवाद और राजनैतिक सलफ़ीवाद उल्लेखनीय हैं। विभिन्न विचारधाराओं पर सलफ़ीवाद के फ़िट बैठने के कारण कभी ऐसी विचारधाराओं को सलफ़ीवाद से जोड़ा जाता है जो विषय-वस्तु की नज़र से आम सलफ़ीवाद की श्रेणी में आती है न कि गतिविधियों की शैली की दृष्टि से।

इन गुटों को सलफ़ी कहने का कारण, इस्लामी जगत के पश्चिम से प्रभावित बुद्धीजीवियों के मुक़ाबले में इस्लामी मूल्यों के बारे में उनका दृष्टिकोण, या इस्लामी जगत पर पश्चिमी संस्कृति के प्रभाव को पहले से रोकने की उनकी कोशिश है। मौजूदा परिस्थिति मौजूदा सलफ़ीवाद पर दो तरफ़ा रूप से प्रभावी रही है। सलफ़ीवाद का एक गुट वह है जिसने आधुनिकतावाद और आधुनिक प्रौद्योगिकी से प्रभावित होकर नई परिस्थिति को स्वीकार कर लिया और वे है अपने पारंपरिक विचारों से पीछे हट गया है।

 इस गुट ने विकास को आदर्श बनाते हुए आधुनिकतावाद को स्वीकार किया है। जबकि चरमपंथी गुट, प्रौद्योगिकीय प्रगति और मानव जीवन की शैली में बद्लाव पर प्रतिक्रिया स्वरूप अभी भी अपने पारंपरिक दृष्टिकोण को बचाए हुए हैं और मौजूदा दौर की परिस्थिति से सीधे या अप्रत्यक्ष रूप से टकरा रहे हैं।

   

सलफ़ियों के बीच एक महत्वपूर्ण बहस समाज में महिला के स्थान और उसकी भूमिका का विषय है। इस संदर्भ में सलफ़ियों के बीच विचारों में अति पाई जाती है। मिसाल के तौर पर सऊदी अरब की सरकार जो वहाबी सलफ़ीवाद की सबसे बड़ी प्रतिनिधि समझी जाती है, महिलाओं के संबंध में पश्चिम के दृष्टिकोण को स्वीकार करती है। इस अर्थ में कि सिर्फ़ पवित्र मस्जिदुल हराम और मस्जिदुन्नबी में महिलाओं के लिए हेजाब को ज़रूरी मानती लेकिन जद्दा शहर में महिलाओं के हेजाब के विषय को गंभीरता से नहीं लिया जाता या सऊदी अरब के सरकारी टेलीविजन के कार्यक्रमों में महिलाएं बेहेजाबी के साथ बहुत नज़र आती हैं। यह ऐसी हालत में है कि सऊदी अरब में महिलाओं को गाड़ी चलाने की इजाज़त नहीं है। कुल मिलाकर सऊदी अरब में वह्हाबियों के क्षेत्र में महिलाओं को दूसरे दर्जे का इंसान समझा जाता है और समाज में महिलाओं के स्थान की परिभाषा पैग़म्बरे इस्लाम द्वारा लाए गए इस्लाम की शिक्षाओं से बहुत भिन्न है। मौजूदा दौर में सलफ़ीवाद के राजनैतिक दृष्टि से ज़्यादा सक्रिय होने के कुछ अहम कारण हैं। इन सबसे अहम कारणों में एक ईरान में इस्लामी क्रान्ति की सफलता भी है।

ईरान की इस्लामी क्रान्ति को इस्लामी जगत में इस्लामी जागरुकता की प्रक्रिया में निर्णायक मोड़ समझा जाता है। इस्लामी क्रान्ति पहली धार्मिक क्रान्ति थी जिससे शताब्दियों बाद इस्लामी सरकार का गठन हुआ और इसका नेतृत्व धार्मिक हस्ती के हाथ में आया। ईरान की इस्लामी क्रान्ति का इस्लामी आंदोलनों पर सीधा प्रभाव पड़ा और इसने इस्लामी क्रान्ति की संस्कृति मुसलमानों में फैलायी। सलफ़ीवाद ने, जो इस्लामी देशों में इस्लामी क्रान्ति के प्रभाव के फैलने से बहुत भयभीत था, इस्लामी देशों पर इस्लामी क्रान्ति के प्रभाव को सीमित करने की बहुत कोशिश की। सलफ़ीवाद ने ईरान की इस्लामी क्रान्ति को इस्लामी क्रान्ति के बजाए एक रैडिकल शिया क्रान्ति के रूप में पहचनवाने की कोशिश की। सलफ़ीवाद की नज़र में ईरान की इस्लामी क्रान्ति ऐसी क्रान्ति है जो पूरी दुनिया में शिया धर्म को फैलाना चाहती है और सुन्नी संप्रदाय की दुश्मन है।

 इस प्रकार के प्रचार का लक्ष्य सुन्नी संप्रदाय को इस्लामी क्रान्ति के ख़िलाफ़ उकसाना और उसे इस्लामी क्रान्ति के दुश्नम के तौर पर खड़ा करना था। यही कारण है कि बहुत से सलफ़ीवादी गुट इस्लामी क्रान्ति के बाद वजूद में आए। इन गुटों ने दूसरे देशों में इस्लामी क्रान्ति के प्रभाव को रोकना अपना लक्ष्य बनाया और इसी बहाने वे अन्य इस्लामी देशों में शियों से सीधे तौर पर टकराए।

 

सलफ़ीवाद के सक्रिय होने का एक और कारण यह था कि अमरीका ने इसे, अस्सी के दशक के शुरु के वर्षों में अफ़ग़ानिस्तान के पूर्व सोवियत संघ द्वारा अतिग्रहण के समय, पूर्व सोवियत संघ से निपटने के लिए एक हथकंडे के तौर पर इस्तेमाल किया था। पश्चिम अफ़ग़ानिस्तान के अतिग्रहण को भारतीय उपमहाद्वीप और मध्यपूर्व में कम्यूनिज़्म के विस्तार के तौर पर देखता था। इस बीच अमरीका अपने सामने दो ख़तरे देख रहा था।

 एक इस्लामी क्रान्ति की सफलता थी जिसने मध्यपूर्व में अमरीका की शक्ति व प्रभाव के लिए चुनौती खड़ी कर दी थी तो दूसरी चीज़ अमरीका के साथ पूर्व सोवियत संघ की विस्तारवादी नीति थी जिसने दक्षिण एशिया में शक्ति के संतुलन को बदल दिया था। पूर्व सोवियत संघ की विस्तारवादी नीति के कारण अफ़ग़ानिस्तान का अतिग्रहण हुआ था। इस बीच मध्यपूर्व में पारिवारिक शासन इस्लामी क्रान्ति के बाद, अपनी स्थिति को अपनी जनता के निकट ख़तरे में देख रहा था। ये पारिवारिक शासन मध्यपूर्व में अमरीका के घटक हैं। इस स्थिति में अफ़ग़ानिस्तान में नास्तिकतावाद के ख़िलाफ़ जेहाद शीर्षक के तहत पूर्व सोवियत संघ के ख़िलाफ़ संघर्ष, अरब देशों में चर्चा का विषय बना हुआ था। हालांकि अरब देशों में वास्तविक अत्याचार उन सरकारों के कारण हैं जिन पर विशेष परिवारों का लंबे वर्षों से क़ब्ज़ा है।

इन अरब देशों से हज़ारों की संख्या में अरब जवानों को पाकिस्तान में कैंपों में भेजा गया। अकेले सऊदी अरब से 12000 से ज़्यादा जवान, जो शासन विरोधी थे, पाकिस्तान में ट्रेनिंग कैंप पहुंचे जिन्होंने ‘अरब- अफ़ग़ान’ नामक प्रक्रिया को वजूद दिया। ये वे लोग थे जिन्हें लंबे समय तक अफ़ग़ानिस्तान में रहने के कारण दो राष्ट्रीयता वाला कहा जाने लगा। इस काम से सऊदी अरब, ट्यूनीशिया और लीबिया की सरकारों ने अपने यहां मौजूद संकट को बाहर भेज दिया।

दूसरी ओर अमरीका ने जो क्षेत्र में पूर्व सोवियत संघ की गतिविधियों से बहुत चिंतित था, इस बल से सबसे ज़्यादा फ़ायदा उठाया। उसने आई एस आई के ज़रिए इन लड़ाकों को आधुनिक हथियार पहुंचाए ताकि वे अमरीका के बजाए साम्यवादियों से लड़ें। यही कारण था कि ये लड़ाका गुट वित्तीय व हथियारों की नज़र से बहुत शक्तिशाली थे।

अफ़ग़ानिस्तान का अतिग्रहण ख़त्म होने और पूर्व सोवियत संघ की लाल सेना के बाहर निकलने के साथ ही अफ़ग़ानिस्तान में नास्तिकों से लड़ने का विषय भी ख़त्म हो गया किन्तु एक और मुश्किल वजूद में आयी। दूसरे शब्दों में नास्तिकों के ख़िलाफ़ सलफ़ीवाद अपने रास्ते से हट गया और पूरे इस्लामी जगत में अनेक चरमपंथी गुटो के वजूद में आने का कारण बना जो दुश्मन से लड़ने के बजाए सांप्रदायिकता के भंवर में फंसा और मुसलमानों की हत्या करने लगा। पाकिस्तान में अलक़ाएदा और चरमपंथी प्रक्रियाओं के जड़ पकड़ने का राज़ इसी में निहित है। इसके बाद से अलक़ाएदा के रूप में चरमपंथी सलफ़ीवाद के प्रचार में वह्हाबियत ने और गंभीर रोल निभाया। सलफ़ीवाद की सबसे स्पष्ट मिसाल वह्हाबी संप्रदाय है।

 इस प्रकार का सलफ़ीवाद मज़बूत वित्तीय स्रोत और मस्जिदुल हराम व मस्जिदुन्नबी पर क़ब्ज़ा करने के कारण हज और उमरे जैसे स्वर्णिम अवसर को आज दुनिया में तकफ़ीरियत व चरमपंथी सलफ़ीवाद के विस्तार के लिए इस्तेमाल करता है और इस काम में उसे आले सऊद और अमरीका का समर्थन हासिल है।

पूर्व सोवियत संघ की पराजय के बाद, अमरीका को बजाए निशाना बनाने के इस्लामी जगत और शीयों के ख़िलाफ़ सबसे ज़्यादा उंगलियां उठायी जा रही हैं। वह्हाबी सलफ़ीवाद शिया क्रेसंट या शिया मध्यपूर्व जैसी बातों सहित विभिन्न हथकंडों से निगाहों को फ़र्ज़ी दुश्मन की ओर मोड़ना चाहता है और शिया तथा विभिन्न इस्लामी संप्रदायों को एक दूसरे से निकट करने वाले बुद्धिजीवियों को इस्लामी जगत के लिए सबसे बड़ा ख़तरा दर्शाना चाहता है। वह्हाबी सलफ़ीवाद शिया फ़ोबिया के ज़रिए अपने बिखर चुके कैंपों को फिर से जोड़ने की कोशिश कर रहा है।

 इस्लामी जगत में जहां जहां अशांति या षड्यंत्र दिखाई दे रहा है वहां वह्हाबी सलफ़ीवाद का असर अच्छी तरह देखा जा सकता है।


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