घर परिवार- 5
यह एक वास्तविकता है कि अधिकांश अवसरों पर बड़ों के हस्तक्षेप और छोटों की अनुभवहीनता, युवा दंपति में मतभेदों का कारण बनती है।
कई बार ऐसा भी होता है कि विवाहित जोड़े में से किसी एक की अपने परिवार से, सीमा से अधिक लगाव भी मतभेद का कारण बन जाता है । इस लिए विवाह के बाद पति पत्नी दोनों को संतुलन बनाए रखना चाहिए जो निश्चित रूप से थोड़ी सूझ बूझ और हालात को समझ कर संभव हो सकता है अन्यथा यह भी हो सकता है कि एक की निर्भरता दूसरे को भ्रांति में डाल दे और फिर परिवारों के प्रति प्रेम व लगाव के प्रदर्शन की प्रतिस्पर्धा शुरु हो जाए जो किसी भी वैवाहिक जीवन को तबाह कर सकती है।
पति व पत्नी की स्वाधीनता सामाजिक विकास का एक मापदंड है। स्वाधीन विचार रखने वाले लोग, अपनी योग्यताओं और कमज़ोरियों को भली भांति जानते हैं और यह पहचान, फैसला लेने की उनकी क्षमता को बढ़ाती है। अलबत्ता स्वाधीनता के यह अर्थ नहीं है कि उन्हें सलाह मशविरे की आवश्यकता नहीं होती। सच्ची स्वाधीनता यह है कि मनुष्य अपने उद्देश्य को केवल दूसरों की बातों पर विश्वास करने की वजह से न छोड़े बल्कि लोगों से सलाह व मशविरा करे और फिर अपनी बुद्धि का प्रयोग करते हुए फैसला करे। जीवन में सफलता और स्वाधीनता में गहरा संबंध है। स्वाधीन लोग, कोई काम करने के लिए, अधिक आत्म विश्वास के स्वामी होते हैं और वह दूसरों से अनुमति मिलने का इंतेज़ार नहीं करते । स्वाधीन होने का यह अर्थ है कि आप में रिस्क लेने की और नये नये अनुभव करने का अधिक साहस है और आप अधिक क्षमता के साथ दूसरों की आशा के अनुरुप स्वंय को सिद्ध कर सकते हैं।
यदि आप को हमेशा यह आशा रहेगी कि दूसरे लोग, आप की स्वाधीनता को औपचारिकता दें तो शायद कभी आप स्वाधीनता का आनंद न उठा पाएं। असल में कोई भी दूसरा व्यक्ति आप की स्वाधीनता को उस समय तक औपचारिकता नहीं देता जब तक आप स्वंय उसे के साथ अपनी स्वाधीनता सिद्ध न करें। स्वाधीन होने के लिए केवल विचारों में स्वाधीनता ही पर्याप्त नहीं होती बल्कि कई अन्य चीज़ों में स्वाधीनता भी ज़रूरी होती है और जब युवा कमाई जैसे बहुत से क्षेत्रों में अपने परिवार पर निर्भरता से दूर हो जाए तब उसे जीवन साथी चुनना चाहिए ताकि वह एक अच्छा दांपत्य जीवन गुज़ार सके।

इस चर्चा में इ्सलामी जगत में परिवार के आधार और ईरान में परिवार के महत्व व भूमिका जैसे बिन्दुओं पर ध्यान देंगे। ईरान में परिवार की एक स्पष्ट विशेषता पूरी सामाजिक व्यवस्था से उसका संबंध है। ईरान में लोग, परिवार को , समाज का आधार होने की वजह से , बेहद अहम मानते हैं। पूरे ईरान में किये गये अध्ययनों से पता चलता है कि परिवार का महत्व सब से अधिक है। ईरानी परिवार, समाज की महत्वपूर्ण इकाई होने के साथ साथ धार्मिक व इस्लामी भी होता है और परिवार के लोगों के मध्य संबंधों को धर्म के नियमों के अनुसार परिभाषित किया जाता है।
इस्लाम में परिवार की सब से महत्वपूर्ण विशेषता, उसका उद्देश्यपूर्ण होना है। इस्लामी विचार धारा के अनुसार, विवाह का उद्देश्य, शारीरिक आवश्यकता की पूर्ति ही नहीं है। कुरआने मजीद की आयत के अनुसार, मनुष्य को सभी प्राणियों पर वरीयता प्राप्त है और ईश्वर ने मनुष्य को सम्मान दिया है और उसे अपना उत्तराधिकारी बनाया है। मनुष्य में चिंतन की शक्ति है और उसकी बुद्धिमत्ता, यौन संबंधी मामलों में भी उसके काम आती है और बुद्धिमान मनुष्य अपनी यह इच्छा भी बुद्धि के नियमों को ध्यान में रखते हुए पूरी करताह है। इस आधार पर इस्लाम में विवाह का उद्देश्य, यौनेच्छा की पूर्ति से आगे है।
इ्सलाम ने मनुष्य को आदेश दिया है कि वह सांसारिक मोह माया के जाल में न फंसे और अपने हर काम में यहां तक कि खाने पीने में भी इस संसार को ईश्वर से निकटता का साधन मात्र समझे। इस आधार पर एक धार्मिक व्यक्ति परिवार के गठन में भी ईश्वर की इच्छा को नज़र में रखता है और वास्तव में वह ईश्वरीय दूत की जीवन शैली अपनाना चाहता है । उसके लिए परिवार एक पवित्र संबंध और घर एक पवित्र स्थल होता है जहां वह सूझ बूझ के साथ ईश्वरीय लक्ष्यों को ध्यान रख कर एेसी संतान का प्रशिक्षण कर सकता है जो आगे चल कर समाज के महत्वपूर्ण और प्रभावशाली सदस्य बनें और मानवीय समाज को आगे बढ़ाने में अपनी भूमिका निभाएं। इस आधार पर ईरानी परिवार, इस्लामी नियमों पर आधारित होता है और इसके साथ ही वह समाज का भी अटूट व महत्वपूर्ण भाग होता है।

ईरान में परिवारों की धार्मिकता, परिवार में पहले बच्चे के जनम के साथ ही स्पष्ट रूप से नज़र आने लगती है। अली ने तीन साल पहले ही शादी की है। अब उनके घर में पहले बच्चे का जनम हुआ है और पूरे घर में चहल पहल है। यह लोग दक्षिणी खुरासान प्रान्त के रहने वाले हैं। उनके मात पिता भी उनके घर पहुंच चुके हैं। वह अपने बच्चे को अपने पिता को देते हैं ताकि वह बच्चे के कानों में दुआएं और अज़ान व इक़ामत कहें इस तरह से नवजात शिशु अपने जीवन के आरंभिक क्षणतं में ही इ्सलामी व धार्मिक स्वरों और नियमों को सुन लेता है जिससे बच्चे में शांति उत्पन्त होती है। दक्षिणी खुरासान में, नवजात शिशु के जन्म के छठें दिन , बच्चे का नाम रखा जाता है। बच्चे का नाम , बच्चे के माता पिता या फिर दादा दादी रखते हैं और इसके लिए कुरआने मजीद की मदद ली जाती है। अली और उनकी बीवी ने कुछ नामों का चयन किया है और उन नामों को पर्चियों पर लिख कर उन्हें कुरआने मजीद के पन्नों के बीच में रख दिया इसके बाद परिवार के बड़े से कहते हैं कि वह कुरआन खोल कर एक नाम का चयन करें , फिर जो नाम निकलता है, बच्चे का नाम वही रख दिया जाता है। बीरजंद क्षेत्र के विभिन्न भागों में प्रायः लोग अपने बच्चों का नाम ईश्वरीय दूतों के नाम पर रखते हैं। बच्चे के जनम के सातवें दिन अली के घर में जश्न होता है और सब लोग बधाई देते हैं और बच्चे को दुआएं देते हैं।
पति पत्नी का एक दूसरे से व्यवहार वास्तव में एक कला है जिसे सीखना पड़ता है।
वैवाहिक जीवन का आधार, परस्पर सम्मान होता है । इ्सलाम ने पति पत्नी के रिश्ते को मज़बूत रखने के लिए दोनों के लिए अधिकार विशेष किये हैं और एक दूसरे के प्रति कर्तव्यों का निर्धारण किया है क्योंकि ई्श्वर ने जहां अधिकार रखा है वहीं उस अधिकार के बदले कुछ कर्तव्य भी रखे हैं। कुरआने मजीद की कई आयतों में पति व पत्नी के मध्य संबंधों के लिए " मारूफ़" अर्थात अच्छा जैसे शब्द का प्रयोग किया गया है। इस शब्द को कुरआने मजीद में कुल 38 बार प्रयोग किया गया है जिनमें से 19 बार महिलाओं के बारे में इस शब्द को प्रयोग किया गया है । उदाहरण स्वरूप सूरए निसा की आयत नंबर 19 में कहा गया हैः पत्नी के साथ स्वीकारीय व अच्छा व्यवहार करो। इस सच्चाई से कोई इन्कार नहीं कर सकता कि प्रेम व अच्छा व्यवहार ही वह एकमात्र बंधन है जो पति पत्नी को एक दूसरे से हर हाल में जोड़ रख सकता है हज़रत अली अलैहिस्सलाम कहते हैं कि भलाई करके दिलों पर राज किया जा सकता है। यदि इस प्रकार के संबंध , परिवार का आधार बने तो फिर कोई भी तूफान उस परिवार को हिला नहीं सकता। हज़रत अली अलैहिस्सलाम अपनी पत्नी हज़रत फातेमा ज़हरा सलामुल्लाह अलैहा के बारे में कहते हैं कि, मैं जब भी उनके चेहरे को देखता था, मेरा सारा दुख दूर हो जाता था और अपनी पीड़ा भूल जाता था।