Dec ३१, २०१८ १३:५० Asia/Kolkata

यह एक सच्चाई है कि फ़िलिस्तीन की नई पीढ़ी के फ़िल्म निर्माताओं के लिए किसी भी विषय पर फ़िल्म बनाने के लिए अपनी भूमि के इतिहास व वर्तमान पर नज़र करना ज़रूरी है।

यही वजह है कि डाक्यूमेन्टरी फ़िल्मों सहित ऐतिहासिक दस्तावेज़ फ़िलिस्तीनी जनता, उसकी संस्कृति, इतिहास और पहचान के बारे में शोध करने के लिए सबसे अहम स्रोत समझे जाते हैं। जो चीज़ फ़िलिस्तीनी सिनेमा के विश्व स्तर पर अपनी पहचान बनाने में सहायक साबित हुयी है वह डाक्यूमेन्टरी फ़िल्म और इस क्षेत्र में सक्रिय फ़िल्म निर्माता हैं।

तेहरान थीअटर के नए दौर के पहले कार्यक्रम में डाक्यूमेन्टरी फ़िल्म "द वान्टेड-18" दिखायी गयी। 75 मिनट की इस फ़िल्म में पहले इन्तेफ़ाज़ा आंदोलन में फ़िलिस्तीनी जनता के ख़िलाफ़ ज़ायोनियों की गतिविधियों का हास्यसास्पद रूप में वर्णन किया गया है।

"द वान्टेड-18" डाक्यूमेन्टरी फ़िल्म के निर्देशक आमिर शूमली, निर्माता सईद अन्दोनी और पटकथा लेखक पॉल कोवन हैं। यह जवान फ़िलिस्तीनी निर्देशक जो कुवैत में पैदा हुआ और रामल्ला में रहता है, उन कठिनाइयों व मुसीबतों का वर्णन करता है जो फ़िलिस्तीनियों पर 1987 के पहले इन्तेफ़ाज़ा आंदोलन के समय गुज़री।

फ़िल्म की कहानी एक गांव के निवासियों के बारे में हैं जो उस समय आसानी से ज़ायोनी शासन के उत्पादों से आवश्यकतामुक्त थे। अस्ल कहानी यह है कि बैतलेहम के पूरब में स्थित बैत साहूर गांव में फ़िलिस्तीनियों के एक गुट ने ज़ायोनी शासन से 18 गाय ख़रीदी और एक कोआप्रेटिव कंपनी की बुनियाद रखी जिसका नाम था "इन्तेफ़ाज़ा मिल्क" इस गांव के लोग ज़ायोनियों की वस्तुओं से आवश्यकतामुक्त हो गए और उन्होंने ज़ायोनी वस्तुओं का बहिष्कार किया।

बैत साहूर गांव के निवासियों द्वारा इस्राईली उत्पाद के बहिष्कार के बाद यह मामला ऐसा राजनैतिक रूप अख़्तियार कर गया कि ज़ायोनी शासन ने 18 गायों को गांव वालों से लेने का फ़ैसला किया। "द वान्टेड-18" फ़िल्म इन्तेफ़ाज़ा आंदोलन के प्रत्यक्षदर्शी की बात से शुरु होती है जिसमें एनिमेशन के रूप में गायों को बात करते हुए दिखाया गया है। इसी तरह इस फ़िल्म में भूतपूर्व ज़ायोनी प्रधान मंत्री इस्हाक़ रॉबिन की तस्वीर भी दिखायी गयी है जो बैत साहूर गांव को लोगों को ज़ायोनी शासन को टैक्स न देने पर बल प्रयोग की धमकी देते हैं।

उस समय ज़ायोनी सेना को यह आदेश दिया गया था कि वह इन 18 गायों को पकड़ ले क्योंकि ये गाय ज़ायोनी शासन की सुरक्षा के लिए ख़तरा हैं। एक प्रत्यक्षदर्शी इस घटना का वर्णन करते हुए बताता है कि किस तरह इस गांव के लोग गाय को ज़ायोनी सैनिकों की निगाहों से छिपाकर भगाने और उन्हें छिपाने में सफल हुए।        

आमिर शूमली ने इस डाक्यूमेन्टरी में प्रतिरोधी विचार की सफलता को बहुत ही सुदंर व रोचक ढंग से पेश किया है क्योंकि बैत साहूर गांव के निवासियों का ज़ायोनी शासन को इस बात के मद्देनज़र कि वह फ़िलिस्तीनियों का प्रतिनिधित्व नहीं करता, टैक्स देने से मना करना, ज़ायोनियों के इस गांव का नाकाबंदी करने का कारण बनता है। यह गांव नाकाबंदी की वजह से अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर इतना मशहूर हो जाता है कि संयुक्त राष्ट्र संघ में ज़ायोनी शासन के इस क़दम को अमानवीय कहा गया और यह घटना पूरी तरह राजनैतिक रूप अख़्तियार करती है।

"द वान्टेड-18" डाक्यूमेन्टरी फ़िल्म वर्ष 2014 में पहली बार टोरन्टो फ़िल्म फ़ेस्टिवल में दिखायी गयी, उसके बाद मोन्ट्रियाल, अबू ज़हबी, कारताज और ट्रैवर्स फ़ेस्टिवल में इसे इनाम मिला। फ़िलिस्तीनियों ने इस फ़िल्म को 88वें ऑस्कर में अपने प्रतिनिधि के रूप में चुना, हालांकि यह पहले से स्पष्ट था कि इस फ़िल्म को कोई इनाम नहीं मिलेग "द वान्टेड-18" के निर्देशक ने वर्षों रामल्ला में ज़िन्दगी गुज़ारी है और अपनी फ़िल्म को अमरीका के मानवाधिकार फ़िल्म फ़ेस्टिवल भी भेजी है। लेकिन इस्राईलियों ने इस फ़िल्म के निर्देशक को अमरीकी वीज़ा हासिल करने के लिए बैतुल मुक़द्दस जाने से रोक दिया और कहा कि शूमली इस्राईल की सुरक्षा के लिए ख़तरा हैं।

 

विगत से अब तक फ़िलिस्तीन की सभी फ़िल्में राजनैतिक विषय पर केन्द्रित थीं क्योंकि क्षेत्र में अस्थिरता व अशांति की वजह से सिर्फ़ वही लोग फ़िल्म बना सकते थे जो राजनैतिक संगठनों से जुड़े होते थे। ऐसे संगठन जो फ़िलिस्तीनियों की आज़ादी और एक स्वाधीन सरकार से संपन्न होने की अपनी राजनैतिक अकांक्षाओं के प्रचार के लिए क़दम उठाते थे। पिछले कुछ साल से फ़िलिस्तीनी सिनेमा की स्थिति आशाजनक हुयी है जिसमें इस भूमि के अलया सुलैमान और हानी अबू असद जैसे मशहूर लोगों का योगदान है। विगत में फ़िलिस्तीन के सिनेमा उद्योग पर मिस्र और अरब जगत के दूसरे देशों की छाप पड़ी हुयी थी लेकिन पिछले 15 साल के दौरान सांस्कृतिक पुनर्जागरण होने से फ़िलिस्तीन की नई पीढ़ी के फ़िल्म निर्माताओं ने फ़िलिस्तीन को दुनिया को पहचनवाया। ये वे लोग हैं जिन्होंने अपने वतन के उतार-चढ़ाव से भरे इतिहास, वर्षों के संघर्ष, अशांति और राजनैतिक संघर्ष का अनुभव किया है और उसी अनुभव की बुनियाद पर मूल्यवान फ़िल्में बनायी हैं। ये फ़िलिस्तीनी फ़िल्म निर्माता दुनिया के मशहूर निर्देशकों के साथ प्रतिस्पर्धा करते हुए, अपने व्यक्तिगत अनुभव को चौंकाने वाली कहानियों के सांचे में चित्र का रूप देने के लिए ज़रूरी आत्मविश्वास से संपन्न हैं और उनकी कोशिश है कि डाक्यूमेन्टरी की जगह अलंकार के ज़रिए इस अनुभव को दुनिया के सामने पेश करें।

हालांकि पश्चिम में फ़िलिस्तीनी सिनेमा के ज़्यादातर दर्शक अल्या सुलैमान, रशीद मिशरावी और तौफ़ीक़ अबू बक्र जैसे निर्देशकों की फ़िल्मों से फ़िलिस्तीन को जानते हैं जबकि फ़िलिस्तीन में फ़िल्म निर्माण का इतिहास बीसवीं ईस्वी के आरंभ की ओर पलटता है।

लगभग 60 के दशक में फ़िलिस्तीनियों ने फ़िल्म का निर्माण ख़ुद करना शुरु किया। उससे पहले तक अतिग्रहित फ़िलिस्तीन और इस भूमि के लोगों के संघर्ष के बारे में लगभग 100 फ़िल्में बनीं लेकिन ये सब फ़िल्में फ़िलिस्तीन में नहीं बल्कि सीरिया, लेबनान, इराक़, अलजीरिया और ट्यूनिस जैसे अरब देशों में बनीं। इसलिए यह कहा जा सकता है कि 1968 फ़िलिस्तीन के सिनेमा जगत के इतिहास और आत्मनिर्भर होने के लिए निर्णायक वर्ष समझा जाता है।

शुरु में फ़िलिस्तीन में ऐसी फ़िल्में बनती थीं जिनमें शरणार्थी कैंपों में फ़िलिस्तीनी शरणार्थियों की मुसीबतों, इस्राईलियों के अत्याचार और उनके ख़िलाफ़ सशस्त्र संघर्ष की ज़रूरत को दर्शाया जाता था। फ़िलिस्तीनी सिनेमा की अहम फ़िल्में 1973 से 1977 के वर्षों में बनीं जिनमें कुछ डाक्यूमेन्टरी फ़िल्में फ़िलिस्तीन की पारंपरिक कलाओं और इस सरज़मीन के कलाकारों के बारे में थीं। वास्तव में 80 के दशक के अंतिम वर्षों में फ़िलिस्तीनी अपनी फ़िल्मों के लिए अंतर्राष्ट्रीय इनाम जीतने में सफल हुए।

1987 तक लगभग 52 फ़िल्में फ़िलिस्तीनी शरणार्थियों द्वारा बनायी गयीं और उसी साल इन्तेफ़ाज़ा जनांदोलन शुरु होने की वजह से फ़िल्म निर्माण का केन्द्र बदल कर ग़ज़्ज़ा और पश्चिमी तट हो गया। मशहूर फ़िलिस्तीनी निर्माता मीशल ख़लीफ़ा ने 1987 में फ़िल्म "वेडिंग इन गलिली" बनाकर सुलैमान और मिशरावी जैसे नए पीढ़ी के निर्देशकों के लिए मार्ग समतल किया। यह फ़िल्म दुनिया भर में मशहूर हुयी। बाद में हना इल्यास और हानी अबू सईद ने शरणार्थी कैंपों के जीवन के बारे में फ़ीचर फिल्म और डाक्यूमेनटरी फ़िल्म बनाकर मिशरावी के मार्ग को जारी रखा। हालांकि इसमें फ़िलिस्तीनियों की मुसीबतों और उन पर होने वाले अत्याचार के वर्णन के लिए हास्यप्रद भाषा का इस्तेमाल हुआ।

हालांकि फ़िलिस्तीनी राष्ट्र की संस्कृति के सभी आयाम पर जिसमें सिनेमा भी शामिल थे, राजनीति और राजनैतिक आकांक्षा छायी हुयी थी, ज़ायोनियों के उल्लंघन को वैसा ही जवाब देना और फ़िलिस्तीनियों के संबंध में पश्चिम के दृष्टिकोण को बदलना, उन फ़िल्म निर्माताओं की आकांक्षा थी जो फ़िलिस्तीन और फ़िलिस्तीन के सिनेमा के बारे में अलग छवि दुनिया के सामने पेश करना चाहते थे। निर्देशकों की नई पीढ़ी ने ख़ुद को इस आकांक्षा के लिए समर्पित कर दिया ताकि शरणार्थी के रूप में अपने व्यक्तिगत जीवन के अनुभव को दुनिया के राष्ट्रों के सामने पेश करें। इस बीच अग्रिम पंक्ति में ऐसी महिला निर्देशक भी थीं जिन्होंने राष्ट्रवादी भावना से प्रेरित पुरुष प्रधान सिनेमा के सामने चुनौती खड़ी कर दी थी ताकि एक फ़िलिस्तीनी महिला के जीवन के बारे अपने दृष्टिकोण को दुनिया के सामने पेश करें।         

इस बात का उल्लेख भी ज़रूरी लगता है कि हालिया वर्षों में डिजिटल प्रौद्योगिकी के उदय से फ़िलिस्तीनी फ़िल्म निर्माताओं को काफ़ी मदद मिली है। लेकिन अतिग्रहित फ़िलिस्तीनी क्षेत्रों में फ़िल्म निर्माण के लिए ज़रूरी उपकरण व सुविधाएं बड़ी मुश्किल से मिलती हैं। जो फ़िल्म निर्माता वीडियो फ़िल्म के लिए डिजिटल सिस्टम का इस्तेमाल करना नहीं चाहते, वे अपनी फ़िल्म उत्पादन के बाद विदेश और ज़्यादातर योरोप भेजने पर मजबूर थे जिसकी वजह से फ़िल्म की लागत बढ़ जाती है और इसी वजह से आज़ाद फ़िल्म निर्माताओं का काम  कठिन हो जाता है। मिसाल के तौर पर हालिया तीन दशक में जो पूंजि और बजट इससे पहले राजनैतिक संगठन डाक्यूमेन्टरी फ़िल्म के निर्माण पर ख़र्च करते थे, वह कम हो गया और ज़्यादातर पूजिपति फ़ीचर फ़िल्म के निर्माण में पूंजिनिवेश करते हैं।

डाक्यूमेन्टरी फ़िल्म से जुड़ी एक समस्या उसके दर्शक हैं, क्योंकि जो फ़िल्में फ़िलिस्तीन में बनीं और बनती हैं, उनके पास वास्तव में राष्ट्रीय दर्शक नहीं होते। पिछले कुछ दशकों के दौरान फ़िलिस्तीन में अशांति की वजह से बहुत से सिनेमा हॉल बंद हो गए और इस फ़िलिस्तीन में फ़िल्म वितरण के सिस्टम के अच्छे न होने की वजह से फ़िलिस्तीनी फ़िल्म कभी भी राष्ट्रीय दर्शकों से मज़बूत संपर्क बनाने में सफल नहीं हो पायीं। यही वजह है कि इन दिनों फ़िलिस्तीन के भीतर बनने वाली ज़्यादातर फ़िल्में पश्चिमी फ़िल्म फ़ेस्टिवल में दिखाई जाती हैं।

इन सब बातों के बावजूद फ़िलिस्तीनी सिनेमा जो ज़ायोनी अतिग्रहणकारियों के चंगुल से रिहाई के लिए राष्ट्रीय संघर्ष से प्रेरित है, अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर नई पहचान बनाने और अपनी राजनैतिक छवि से निकलने की कोशिश कर रहा है। इन दिनों फ़िलिस्तीनी फ़िल्म निर्माता ने चाहे वे डाक्यूमेन्टरी फ़िल्म के हों या फ़ीचर फ़िल्म के, शरणार्थी, अधिकार के हनन और जंग के माहौल में जीवन जैसे मुद्दों को अपनी फ़िम्म की विषय वस्तु बनायी है ताकि अंतर्राष्ट्रीय मंच पर अपनी जगह बनाएं और ज़ायोनियों के अस्ली चेहरे को दुनिया वालों के सामने लाएं। 

 

 

 

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