Jul १३, २०१९ १३:५६ Asia/Kolkata

1980 के दशक में सद्दाम के बासी शासन द्वारा ईरान पर हमलों और ईरानी राष्ट्र के पवित्र प्रतिरक्षा के आठ वर्षीय काल के दौरान ईरानी जनता की भूमिका पर चर्चा करेंगे।

हमने बताया था कि हुवैज़ा शहर पर बासी शासन के नियंत्रण को रोकने के लिए सैयद हुसैन अलमुल हुदा और उनके सौ से अधिक साथियों की शहादत और हुवैज़ा अभियान की सैन्य व राजनैतिक विफलता तथा उपलब्धियों के बारे में बताया था।

हम ने बताया था कि सैयद हुसैन अलमुलहुदा और उनके 120 साथियों ने किस प्रकार से अंतिम गोली और अपने खून की अंतिम बूंद तक मोर्चे पर वीरता का प्रदर्शन किया था। हुवैज़ा युद्ध, ईरान पर थोपे गये 8 वर्षींय युद्ध का एक अत्याधिक महत्वपूर्ण अध्याय है। कोई एसा ईरानी नहीं है जिसने हुवैज़ा युद्ध का नाम न सुना हो, हुवैज़ा, ईरान की हर पीढ़ी के लिए एक चित परिचित नाम है। हुवैज़ा वह जगह है जहां के बारे में वरिष्ठ नेता आयतुल्लाहिल उज़मा सैयद अली ख़ामेनई ने 11 दिसंबर सन 1996 में इस क्षेत्र के शहीदों की याद में आयोजित एक कार्यक्रम में कहा था कि " आज, शहीदों के मज़ार, उन पर बना गुंबद और इन शहीदों का अध्यात्मिक प्रभाव, ईश्वर की अनन्त शक्ति पर ध्यान देने का साधन है। वरिष्ठ नेता ने हुवैज़ा युद्ध  के बारे में कहा कि युद्ध की पूरी अवधि, रात को उपासना करने और दिन में शेरों की तरह लड़ने वालों की वीर गाथाओं से भरी है और हुवैज़ा के वीरों की कहानी उनमें मुख्य है।

हुवैज़ा युद्ध और इस नगर पर इराक़ी सेना के अधिकार तथा सूसनगेर्द नगर पर क़ब्ज़े में दुश्मन की विफलता के बाद, ईरान इराक युद्ध के मोर्चे पर ठहराव छा गया क्योंकि किसी की समझ में नहीं आ रहा था कि अब क्या किया जाए?  युद्ध के दौरान बक्तरबंद गाड़ियों से हमला और दो पारंपिक सेनाओं के युद्ध का कोई नतीजा नहीं निकला था। बक्तरबंद युद्ध में विफलता, भारी संख्या में जानी नुक़सान और ईरान के पास संसाधनों की कमी की वजह से थी। इस्लामी गणतंत्र ईरान पर प्रतिबंध लागू था और उसे किसी भी देश की ओर से हथियार नहीं बेचे जाते थे जिसकी वजह से ईरान के लिए युद्ध में तबाह होने वाले साधनों के स्थान को भरना संभव नहीं था जबकि सद्दाम सरकार के लिए एसी कोई समस्या नहीं थी, इराक़, बिना किसी आर्थिक व राजनीतिक सीमा के अत्याधुनिक हथियार खरीदता और उन्हें ईरान के खिलाफ प्रयोग करता था। इन हालात में दो सेनाओं के मध्य पारंपरिक युद्ध और बक्तरबंद वाहनों के प्रयोग को दोहराने का अर्थ, इराक़ की वरीयता को स्वीकार करना और पराजय के लिए तैयार होना था।

इस अभियान के दौरान ज़बरदस्त सफलताएं हासिल हुईं जिसके भौतिक परिणाम से अधिक मानवीय व अध्यात्मिक परिणाम अहम थे। इस अभियान के छोटे होने के बावजूद युद्ध के उस कठिन दौर में और देश की हज़ारों किलोमीटर की धरती पर क़ब्ज़ा हो जाने के बावजूद संघर्षकर्ताओं के मनोबल बहुत बढ़ हुआ था। सूसनगर्द नगर और उसके पास चलने वाले अभियान में 200 स्वयं सेवी बलों और सैनिकों ने भाग लिया। इस अभियान में आईआरजीसी और ईरान की सेना के बीच ज़िम्मेदारियों को बराबर विभाजित किया गया था। सेना के तोपख़ाने दस मिनट में बमबारी के लिए तैयार किए गये। यह अभियान सुबह 7 बजकर 30 मिनट पर शुरु हुआ। इस अभियान ने दुश्मनों को हैरान कर दिया था और इसके परिणाम में ईरान की सेना तेज़ी से आगे बढ़ती रही। ईरानी सेना के जवानों ने तेज़ी से आगे बढ़ते हुए दुश्मनों की कई बक्तरबंद गाड़ियां और उनके गोले बारूद के भंडारों को तबाह कर दिया। सेना की इस कार्यवाही में लगभग 100 लोग मारे गये जबकि 68 लोगों को बंधक बनाया गया। इस अभियान में जो चीज़ सबसे अहम और देश की राजनैतिक व सामरिक स्थिति और मोर्चे के हिसाब से महत्वपूर्ण थी वह युद्ध के सामरिक और राजनैतिक बंद गली को तोड़ने के लिए आस्था और विश्वास का पैदा होना था। इस अभियान का नाम हज़रत महदी अलैहिस्सलाम रखा गय था। हज़रत इमाम महदी अलैहिस्सलाम नामक छोटे अहियान में सफलता ने युद्ध में सामरिक और राजैतिक बंद गली को ईरान के हित में समाप्त कर दिया।

ईरान की आईआरजीसी और स्वयं सेवी बलों की रचनात्मकता और पहल, दुश्मन के साथ युद्ध की नई तकनीक की योजना में बदल गयी। वास्तव में इमाम मेहदी के नारे के साथ सूसनगर्द के आसपास होने वाले अभियान के परिणामों से यह सिद्ध होता है कि युद्ध में सैन्य बंद गली को तोड़ना, क्रांतिकारी भावना से और प्रचलित शैलियों से हटकर ही संभव हो सका।

ईरान के स्वयं सेवी बलों और आईआरजीसी के जवानों ने क्रांतिकारी भावनाओं पर आधारित तकनीकी और सीमित संभावनाओं से लाभ उठाते हुए रात के समय हमला करके दुश्मनों को हैरान कर दिया। 17 मार्च 1981 में इमाम महदी अभियान के बाद से 27 सितम्बर 1981 में आबादान का परिवेष्टन तोड़ने तक सात महीन के दौरान ख़ूज़िस्तान के अभियान वाले क्षेत्रों में कम से कम कई सफल और सीमित अभियान चलाए गये।

अलबत्ता यह कुछ अभियान अतिग्रहित क्षेत्रों की व्यापकताको देखते हुए बहुत ही सीमित थे। कुछ अभियान भी दुश्मन को परेशान करने और उनको नुक़सान पहुंचाने के लिए अंजाम दिए गये थे। सैनिक अभियान करने के बाद फ़्रंट लाइन के सैनिकों से भिड़ जाते थे जिसके परिणाम कई सैनिक मारे गये। अतिग्रहित क्षेत्रों में दुश्मनों के पैर उखड़ने, इन क्षेत्रों की पूर्ण स्वतंत्रता और प्रतिरोधकर्ताओं के व्यापक हमलों का क्रम डेढ़ साल तक चलता रहा। इस अवधि में अतिग्रहित क्षेत्रों में अतिग्रहणकारी सैनिकों की उपस्थिति का जारी रहना इस कल्पना पर निर्भर था कि इस्लामी गणतंत्र ईरान की सेना, अतिग्रहित क्षेत्रों पर पुनः नियंत्रण पाने और उनको खदेड़ने की क्षमता नहीं रखती।

इस संबंध में सशस्त्र सेना के अभियान और सूचना विभाग के वरिष्ठ कमान्डर जनरल ग़ुलाम रशीद कहते हैं कि दुश्मन हमारी धरती पर बिना इसके कि हम उसके विरुद्ध कोई सफल अभियान कर सकें या कोई चमत्कारिक कार्यवाही कर सकें, एक साल तक रहा, इस विषय ने दुश्मन को इस परिणाम पर पहुंचा दिया था कि हममें क्षमता ही नहीं पायी जाती और हममें दुश्मनों से अपनी अतिग्रहित धरती को स्वतंत्र कराने की शक्ति नहीं पायी जाती।

जनरल ग़ुलाम रशीद

इस विषय के अतिरिक्त दुश्मन यह आशा भी रखे हुए था कि वह ईरान के भीतरी मोर्चे को अस्थिर कर देगा। वह यह सोच रहा था कि इस अस्थिरता के कारण ईरान में कभी भी संगठित सेना तैयार नहीं हो पाएगी। इसी के साथ इराक़ियों ने आधिकारिक रूप से देश में मौजूद क्रांति विरोधी गुटों से सहयोग की ओर रूझान व्यक्त किया। दिसम्बर 1980 में न्यूयार्क टाइम्ज़ ने लिखा कि इराक़ के राष्ट्रपति सद्दाम हुसैन ने सुझाव दिया था कि वह आयतुल्लाह ख़ुमैनी के पतन के लिए प्रयास के अंतर्गत बिना किसी शर्त के, किसी भी सरकार विरोधी गुट के लाभ सहयोग शुरु कर सकते हैं। इससे पहले वाले कार्यक्रम में हमने इस बिन्दु की ओर संकेत किया था कि विभिन्न रजानैतिक धड़ों को जब यह विश्वास हो गया कि ईरान की तानाशाही व्यवस्था गिरने वाली है इसीलिए वह क्रांति की रेल पर सवार हो गये। ईरान में इस्लामी क्रांति की सफलता से विभिन्न राजनैतिक रुझान रखने वाले सत्ता की प्राप्ति के लिए इस्लामी क्रांति के संस्थापक इमाम ख़ुमैनी से निकट हुए। इन्हीं लोगों में से एक अबूल हसन बनी सद्र था । उसने फ़्रांस में अर्थशास्त्र के विषय से अपनी शिक्षा पूरी की थी। वह पेरिस में इमाम ख़ुमैनी से निकट हुआ था। बनी सद्र, इमाम ख़ुमैनी के साथ हवाई जहाज़ से ही फ़्रांस से तेहरान पहुंचा था। उसने बहुत तेज़ी से स्वयं को इमाम ख़ुमैनी का निकटवर्ती बना लिया। बनी सद्र ने इमाम ख़ुमैनी के निकटवर्ती साथी के रूप में फ़रवरी 1980 के राष्ट्रपति चुनाव में भाग लिया और बहुमत हासिल करके ईरान का पहला राष्ट्रपति बना। राष्ट्रपति चुनाव में बनीसद्र की जीत ने देश में राजनैतिक उथल पुथल और क्रमबद्ध संकट पैदा कर दिए।

अबूल हसन बनी सद्र

इस्लामी क्रांति की सफलता से कुछ समय पहले ही बनी सद्र इमाम ख़ुमैनी के चाहने वालों में शामिल हुए थे। वास्तव में फ़्रांस में इमाम ख़ुमैनी के प्रवास के दौरान बनी सद्र उनके निकट आए थे और इसी वजह से उन्होंने लोकप्रियता हासिल की थी। इसी लोकप्रियता के कारण 1981 में आयोजित हुए पहले राष्ट्रपति चुनाव में बनी सद्र ने सफलता हासिल कर ली थी। हालांकि बनी सद्र के विचारों और इमाम ख़ुमैनी के विचारों में काफ़ी अंतर था।

1980 के अंत में छात्रों ने तेहरान स्थित अमरीकी दूतावास पर निंयत्रण कर लिया था, जिसके बाद ऐसे बहुत से दस्तावेज़ सामने आए जिससे यह रहस्योद्घाटन हुआ कि कौन लोग और राजनीतिक धड़े इस्लामी गणतंत्र के विरोधी हैं और इस्लामी क्रांति को जड़ से उखाड़ फेंकने की साज़िश रच रहे हैं। यही कारण है कि अमरीकी दूतावास जासूसी के अड्डे के रूप में प्रसिद्ध हो गया था। ऐसे लोग और धड़े इस्लामी गणतंत्र के कुछ संवेदनशील विभागों में अपनी पैठ बना चुके थे, लेकिन समय बीतने के साथ साथ उनकी वास्तविकता से पर्दा उठता गया।

तेहरान स्थित अमरीकी दूतावास पर छात्रों के निंयत्रण के बाद, इस्लामी शासन विरोधी समस्त तत्वों एवं राजनीतिक धड़ों ने जब यह देखा कि देश में उनके वजूद को ख़तरा है तो उन्होंने व्यवस्थित रूप से इस्लामी क्रांति से टकारने की रणनीति तैयार कर ली। नई नई इस्लामी व्यवस्था के पतन के लिए इन धड़ों ने अमरीका के साथ सहयोग करना शुरू कर दिया। बनी सद्र के राष्ट्रपति बनने के बाद यह धड़े इस्लामी क्रांति से टकराने के लिए पूर्ण रूप से व्यवस्थित हो गए और यह अवसर इनके लिए बहुत महत्वपूर्ण साबित हुआ।

राष्ट्रपति चुनाव में सफलता के बाद बनी सद्र का मानना था कि इस्लामी क्रांति की सफलता के शोर शराबे और लोगों की भावनाओं से लाभ उठाकर अपने उद्देश्यों और विचारों को आगे बढ़ाना आसान हो जाएगा। बनी सद्र का प्रयास था कि अमरीकी दूतावास पर निंयत्रण के बाद इमाम ख़ुमैनी के पद चिन्हों पर चलने वालों का जो एक वर्ग सामने आया है, उसे रास्ते से हटा दे। लेकिन युद्ध और देश में इमाम ख़ुमैनी का अनुसरण करने वालों की नई स्थिति के कारण बनी सद्र को अपने उद्देश्यों की प्राप्ति में कठिनाईयों का सामना होने लगा। देश में सामरिक अव्यवस्था एवं चीफ़ कमांडर होने के कारण, बनी सद्र इमाम ख़ुमैनी के वफ़ादार एवं क्रांतिकारी बलों को हाशिये पर डालना चाहता था। (ak)

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