Jul २०, २०१९ १५:२१ Asia/Kolkata

तालिब आमुली का लगभग 991 हिजरी शताब्दी में आमुल में जन्म हुआ था।

इसी शहर में उनकी शिक्षा दीक्षा हुई। 1010 हिजरी में तालिब आमुली ने आमुल छोड़ दिया और काशान चले गए। काशान और इस्फ़हान में वे चार साल तक रहे। ज्ञान और साहित्य की जानकारी हासिल करने की दृष्टि से यह उनके लिए बेहतरीन दौर था। साहित्य आलोचकों का मानना है कि इसी काल के कारण तालिब ने शायरी में अच्छी प्रगति की। इसके बाद वे भारत की यात्रा पर चल दिए। रास्ते में कुछ समय मर्व के शासक बकतश ख़ान के मेहमान रहे। मर्व में उन्हें अच्छी सुविधाएं हासिल थीं, लेकिन ऊंचा पद हासिल करने के लिए बल्कि संभवतः अधिक धन कमाने के लिए उन्होंने भारत का रुख़ किया। भारत की यात्रा के समय उनकी आयु 25 वर्ष थी।

तालिब ने 1016 शताब्दी हिजरी में मर्व से भारत का रुख़ किया। 1016 से 1020 हिजरी तक वे भारत के विभिन्न शहरों में भटकते रहे। वे इस आशा के साथ कि कोई उनका समर्थन कर दे, जिससे उनका जीवन यापन हो सके, एक शहर से दूसरे शहर की यात्रा करते रहे। हर शहर में कुछ दिन ठहरते थे और उस शहर की विशिष्ट हस्तियों विशेष रूप से कवियों और साहित्यकारों से मुलाक़ात करते थे। इस अवधि में तालिब एक नाकाम ज़िंदगी गुज़ार रहे थे। उनकी शायरी और कला भारत की विशिष्ट हस्तियों का ध्यान अपनी ओर नहीं खींच पाई थी। अगर कोई राजा या महाराजा तालिब को अपने दरबार में आमंत्रित भी करता था तो उनकी योग्यता के अनुसार उन्हें सम्मान नहीं मिलता था।

भारत पहुंचे हुए तालिब को चार साल बीत गए थे, लेकिन किसी दरबार में वे अपनी जगह नहीं बना सके थे, लेकिन जब उन्होंने क़ंदहार के शासक मिर्ज़ा ग़ाज़ी तरख़ान के कला प्रेम के बारे में सुना तो उसकी प्रशंसा में एक क़सीदा लिखा और क़ंदहार भेज दिया। मिर्ज़ा ग़ाज़ी ख़ुद भी एक मशहूर शायर और दक्ष संगीतकार व गायक था। उसका दरबार कला और साहित्य का केन्द्र था। क़ंदहार में बड़ी संख्या में ईरानी शायर, साहित्यकार और कलाकार एकत्रित हो गए थे। मिर्ज़ा ग़ाज़ी ने तालिब के शेरों का अध्ययन करने के बाद व्यक्तिगत रूप से उन्हें निमंत्रण भेजा, जिसके बाद तालिब आगरा से क़दहार चले गए।

तालिब लगभग एक साल अर्थात मिर्ज़ा ग़ाज़ी के निधन तक उसके दरबार में रहे, मिर्ज़ा ने उन्हें काफ़ी सम्मान भी दिया। हालांकि क़ंदहार में वे कम समय तक ही ठहरे, लेकिन वह उनकी शायरी का सबसे सुनहरा समय माना जाता है। मिर्ज़ा ग़ाज़ी को 1021 में एक ग़ुलाम ने ज़हर दे दिया था, यहां तक कि कहा जाता है कि ग़ुलाम ने उसका गला घोंट दिया था। मिर्ज़ा ग़ाज़ी की मौत के बाद क़ंदहार की साहित्य गोष्ठी बिखर गई और तालिब एक बार फिर दर बदर की ठोंकरे खाने लगे और आगरा वापस लौट गए। आगरा के कुछ विशिष्ट व्यक्तियों से उन्होंने पेशावर के शासक चीन क़लीच ख़ान के नाम अपने लिए एक परिचय पत्र लिया और पेशावर का रुख़ किया। ख़ान ने उनका गर्मजोशी से स्वागत किया और अपना साथी बना लिया। वह हमेशा उन्हें अपने साथ रखता था। इस काल में तालिब ने सुन्दर शेर कहे हैं जो अभी तक बाक़ी हैं।

दुर्भाग्य से चीन क़लीच ख़ान को साज़िश के तहत उनके पद से हटा दिया गया, जिसके बाद परेशान हालत में उसकी मौत हो गई। उसके बाद तालिब का समस्याओं का दौर फिर से शुरू हो गया और वे आगरा वापस लौट गए। कुछ समय बाद जहांगीर के एक वरिष्ठ ईरानी दरबारी दयानत ख़ान का ध्यान तालिब की ओर गया। दयानत ख़ान भारत में ईरानी प्रवासियों का समर्थक था, जिसके माध्यम से वे भारत की विशिष्ट हस्तियों से परिचित होते थे। तालिब से परिचय के बाद जब उसे उनकी योग्यता का पता चला तो वह उनका सम्मान करने लगा और अपने साथ आगरा की विशिष्ट हस्तियों की बैठकों में ले जाने लगा। थोड़े ही समय में तालिब की शायरी की लोकप्रियता बढ़ती गई, यहां तक कि ख़ुद जहांगीर ने उनसे मुलाक़ात के लिए रूची दिखाई। राजा के आदेश के अनुसार, दयानत ख़ान उन्हें अपने साथ शाही दरबार में लेकर गया।

अब्दुल्लाह ख़ान फ़िरोज़ जंग एक ईरानी नागरिक था जो अकबरे आज़म के शासन के अंतिम वर्षों में भारत चला गया था। जहांगीर और उसके बेटे शाहजहां के शासनकाल में अपने साहस और योग्यता के कारण उसे गुजरात, बिहार और इलाहबाद जैसी रियासतों की ज़िम्मेदारी सौंपी गई। उसने ईरान के आप्रवासियों की एक सेना का गठन किया था और उसके दरबार में हमेशा ईरानियों का जमावड़ा रहता था। तालिब गुजरात में काफ़ी सुख और शांति भरा जीवन बिता रहे थे, लेकिन अब्दुल्लाह ख़ान की निकटता से ख़ुश नहीं थे। अब्दुल्लाह ख़ान एक जंगजू व्यक्ति था और शेर और साहित्य से उसे अधिक लगाव नहीं था। यही कारण है कि तालिब ने गुजरात में कम शायरी की है, हालांकि गुजरात में वे क़ंदहार की तुलना में अधिक समय तक रहे। इसके विपरीत क़ंदहार में कहे गए शेरों की संख्या कहीं अधिक है। वे हमेशा गुजरात से निकलने के बारे में सोचते रहते थे। अब्दुल्लाह ख़ान जब दक्खन को जीतने के लिए रवाना हुआ तो तालिब को गुजरात से निकलने का अवसर प्राप्त हो गया। दक्खन जब फ़तह हो गया तो तालिब ने अब्दुल्लाह ख़ान का साथ छोड़ दिया और अपने पंसीदा शहर लाहौर चले गए। इस शहर में कुछ समय तक ठहरने और शायरों और साहित्यकारों से मुलाक़ातों के बाद आगरा वापस लौट गए। उन्होंने जहांगीर के दरबारी ईरानी हकीम सदरुद्दीन कि जो मसीहुज़्ज़मां के नाम से मशहूर थे, आग्रह किया कि उन्हें भी बादशाह के दरबार से जोड़ दें। हकीम मसीहुज्ज़मां ने परिचय एतमादुद्दौला से उनका परिचय करा दिया।

ख़्वाजा ग़यासुद्दीन मोहम्मद तेहरानी एतमादुद्दौला तेहरान के एक प्राचीन परिवार से थे। उनके पिता ख़्वाजा मोहम्मद शरीफ़ शाह, तहमास्ब सफ़वी के शासनकाल में इसफ़हान में मंत्री थे। पिता के निधन के बाद एतमादुद्दौला को समस्याओं का सामना करना पड़ा और वे बेहतर जीवन की आशा लेकर भारत चले गए। भारत में वे अकबर बादशाह के दरबार में उपस्थित हुए। अकबर और जहांगीर के शासनकाल में एतमादुद्दौला ने काफ़ी ऊंचे पद ग्रहण किए। यहां तक कि 1014 हिजरी में जहांगीर ने उन्हें एतमादुद्दौला का लक़ब दिया। 1020 हिजरी में उनकी बेटी मेहरुन्निसा का जो नूर जहां के नाम से मशहूर थीं, जहांगीर से विवाह हो गया। एतमादुद्दौला को भारत का वज़ीरे आज़म नियुक्त कर दिया गया और वे जहांगीर के विशेष सलाहकार भी बन गए। एतमादुद्दौला का शायराना स्वभाव नहीं था, लेकिन वे एक अच्छे लेखक और वक्ता थे। शिकिस्ता लिपि में बहुत अच्छी तरह से लिखते थे। वे इतनी मीठी गुफ़्तगू करते थे कि जहांगीर उनसे बात करने को हर तरह के मनोरंजन पर प्राथमिकता देता था। वास्तव में एतमादुद्दौला भारत के विशाल साम्राज्य का प्रबंधन संभाल रहे थे। वे उन लोगों में से हैं, जिन पर ईरानियों को गर्व है। उनकी वजह से भारतीय उपमहाद्वीप में ईरानी संस्कृति और सभ्यता का विस्तार हुआ, जिसका असर आज भी भारत और पाकिस्तान में देखा जा सकता है।

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