Sep ०२, २०१९ १५:२७ Asia/Kolkata

हमने आपको यह बताया था कि तालिब आमुली लगभग 991 हिजरी क़मरी में आमुल में पैदा हुए और इसी शहर में उन्होंने अपने समय की शिक्षाएं व कलाएं सीखीं।

इसी तरह उन्होंने इसी शहर में रणकौशल और घुड़सवारी भी सीखी। तालिब आमुली ने 1010 हिजरी क़मरी में आमुल को अलविदा कहा और काशान चले गए। उन्होंने काशान और इस्फ़हान में चार साल गुज़ारे। कुछ समीक्षकों के अनुसार, तालिब की बाद की सफलताओं का श्रेय उस ज्ञान को जाता है जो उन्होंने इस दौरान हासिल किया था। इसके बाद तालिब भारत की यात्रा पर निकले। भारत जाने से पहले उन्होंने कुछ समय मर्व में बिताया और लगभग 25 साल की उम्र में भारत गए। उन्होंने कुछ समय भारत के कई शहरों में किसी संरक्षक की तलाश में गुज़ारे। अंततः काफी उतार- चढ़ाव के बाद वह मुग़ल बादशाह के प्रधान मंत्री एतेमादुद्दौला का विश्वास जीतने और जहांगीर के दरबार में स्थान बनाने में सफल हो गये और वहां उन्हें मलिकुश शोअरा अर्थात शायरों के बादशाह की उपाधि मिली। तालिब आमुली अपने देहान्त के समय अर्थात 1036 हिजरी क़मरी तक मलिकुश शोअरा के पद पर आसीन रहे।

तालिब आमुली मुग़ल बादशाह जहांगीर की मौत से एक साल पहले वर्ष 1036 में 45 साल की उम्र में इस संसार से चल बसे। जिस समय उनका देहान्त हुआ उस समय उनकी शायरी अपनी चरम सीमा पर थी।

तालिब आमुली उन शायरों में हैं जिन्होंने सफ़वी शासन काल में प्रचलित शायरी की दो शैलियों के बीच जीवन गुज़ारा है। एक इस्फ़हानी शैली और दूसरी भारतीय शैली या सब्के हिन्दी। तालिब की शैली इन दोनों शैलियों के बीच की है। तालिब आमुली की शायरी का महत्व इस बात में है कि उनकी शायरी से दोनों शैलियों के शेर को समझने में सहायता मिलती है।            

ईरान के दसवीं हिजरी के मशहूर शायर उर्फ़ी शीराज़ी शायरी में रूपक अलंकार का इस्तेमाल शुरु करने वाले शायर हैं, जिसे बाद में ज़हूरी तर्शीज़ी ने जारी रखा। तालिब आमुली की शायरी में इस शैली में और विविधता आयी। यहां तक कि सब्के हिन्दी शैली में फ़ारसी ग़ज़ल की ज़बान को समीक्षकों ने तालिब आमुली की ग़ज़ल की ज़बान कहा है जो अधिक जटिल व काल्पनिक हो गयी है।

भाषा और अर्थ की दृष्टि से तालिब आमुली के शेरों की विशेषताओं की  समीक्षा की जा सकती है।

तालिब आमुली के शेरों की ज़बान आम लोगों की ज़बान है। वह कुछ शब्दों का  प्रयोग बारंबार करते हैं। फ़ारसी ग़ज़लों में आम लोगों की ज़बान बाबा फ़ुग़ानी के दौर में व्यापक रूप से प्रचलित हुयी और सब्के हिन्दी में शेर कहने वाले शायरों ने काफ़ी हद तक इसका प्रयोग किया है। यह विशेषता सब्के हिन्दी के शेरों में इतना प्रबल रूप से दिखाई देती है कि इसे इस दौर की शायरी की मूल व आम पृष्ठिभूमि समझा जाता है। तालिब के दीवान की यादगार के तौर पर बचे शेरों को पढ़ने से पता चलता है कि वह अपने से पहले के शायरों की तुलना में गलियों व बाज़ारों की ज़बान में अधिक रूचि रखते थे। साहित्यकारों की नज़र में शेर की पहली पंक्ति में आम बोल चाल में प्रयोग होने वाले शब्दों का इस्तेमाल और कभी आम लोगों की बातों का आम अंदाज़ में शेर में प्रयोग यह दर्शाता है कि वह आम लोगों की ज़बान को विशेष महत्व देते थे।

तालिब आमुली की गज़लों की एक विशेषता यह है कि वह इस अंदाज़ में गज़ल कहते थे कि गज़ल में प्रयोग होने वाले अक्षरों का विशेष अर्थ होता था। उदाहरण के तौर पर जब हम यह कहें कि एक गिलास पानी दो तो यह एसा वाक्य है जिसका अर्थ सबकी समझ में आता है और यह एक स्वाभाविक बात व वाक्य है किन्तु जब हम यह कहें कि एक पलक मुझे सोने की अनुमति दो तो यह स्वाभाविक बात नहीं है और इसका अर्थ हर आदमी नहीं समझेगा क्योंकि सोने की इकाई समय है न कि पलक और इस बात को हर आदमी नहीं समझ सकता।  इस प्रकार की शैली तालिब आमुली के शेरों की महत्वपूर्ण विशेषता है और इस चीज़ का प्रयोग करके उन्होंने बड़े अच्छे शेर कहे हैं।

तालिब आमुली की गज़लों व शेरों की एक विशेषता यह है कि वह अपने शेरों में अलंकार का प्रयोग करते हैं। तालिब अपने शेरों में अलंकार के प्रयोग को शेरों का नमक समझते हैं यानी अलंकार के प्रयोग से शेरों में जान आ जाती है। फारसी शेरों में अलंकार का प्रयोग प्राचीन समय से होता आया है और फारसी भाषा के शायरों के दीवानों में इस चीज़ को देखा जा सकता है। फारसी भाषा के शेरों में इस शैली का आरंभ साधारण अंदाज़ से हुआ है और धीरे- धीरे जटिल रूप धारण कर गया है। कसीदे में अलंकार का प्रयोग बहुत अधिक हुआ है। ज़ुहूरी तुर्शीज़ी और तालिब आमुली के शेरों व गज़लों में अलंकार का इस्तेमाल आरंभ हुआ है और प्रसिद्ध शायर बेदिल देहलवी के शेरों में इसका प्रयोग बहुत अधिक हुआ है। साहित्यिक आलोचकों का मानना है कि तालिब आमुली के शेरों में भी बहुत अधिक अलंकार का प्रयोग हुआ है यहां तक कि वह तालिब आमुली की एक आदत समझी जाती है। यही नहीं तालिब आमुली के शेरों में अलंकार में अलंकार का प्रयोग हुआ है जिससे बहुत अच्छे शेरों की रचना हुई है। तालिब आमुली ने अपने शेरों में जिस तरह अलंकार का प्रयोग किया है उनसे पहले किसी ने नहीं किया है।

साहित्यिक सजावट व श्रंगार को “तशखीस” कहा जाता है और “तशखीस” भी फारसी शेरों का एक ज़रूरी तत्व है और इस चीज़ का प्रयोग समस्त कालों में फारसी शायरों ने किया है। तशखीस के माध्यम से शायर बेजान चीज़ को जानदार बना देता है और मानवीय विशेषताओं को जानवरों को दे देता है और जानवरों की विशेषताओं को बेजान चीज़ों को दे देता है। कभी शायर इस शैली का प्रयोग करके निर्जीव को सजीव बना देता है जैसे प्रेम, एकांत, शौक, रूचि और मौन आदि। फारसी शेरों का जो आरंभिक काल है उसमें इस शैली के नमूने बहुत साधारण हैं परंतु दूसरे विभिन्न कालों में साहित्यिक श्रंगार व अलंकार का प्रयोग बहुत अधिक हो गया और साधारण से जटिल हो गया और सब्के हिन्दी में साहित्यिक सुन्दरता व जटिलता अपने चरम पर पहुंच गयी है। साहित्यिक आलोचकों का मानना है कि साहित्यिक सुन्दरता व जटिलता को बढ़ावा देने में तालिब आमुली की भूमिका से इंकार नहीं किया जा सकता। तालिब आमूली की बहुत कम ही गज़लें मिलेंगी जिसमें उन्होंने “तशख़ीस” शैली से लाभ न उठाया हो।

तालिब आमुली के शेरों की एक विशेषता यह है कि उन्होंने अपने शेरों में अतिशयोक्ति से बहुत काम लिया है। बहुत कम ही शेर मिलेंगे जिसमें उन्होंने अतिशयोक्ति से काम न लिया हो। अधिकांश शेरों में उन्होंने अलंकार और उपमा से काम लिया है और यह उनके शेरों में बहुत स्वाभाविक बात है। जब कोई व्यक्ति नया अर्थ बयान करना चाहता है तो वह किसी चीज़ को बड़ा या छोटा दिखाने के लिए बाध्य है। सफवी काल के जो शेर हैं उन सभी में इस चीज़ को देखा जा सकता है और वे आम शैली से हटकर हैं। इसी कारण चाहे -अनचाहे में तालिब आमुली के शेरों में अतिशयोक्ति से काम लिया गया है और यह उनके शेरों की एक आवश्यकता बन गयी है।

सब्के हिन्दी की एक विशेषता विरोधाभास है और थोड़ा बहुत इस चीज़ को इस काल के समस्त शेरों में देखा जा सकती है। यह चीज़ तालिब आमूली के शेरों में उनसे पहले के शायरों की अपेक्षा बहुत अधिक है। जैसे पीड़ा और आराम तथा पानी को आग से धोना आदि।

तालिब आमुली के शेरों की एक संयुक्त विशेषता दो या कई आभासों को एक साथ मिला देना है और उसे हिसआमेज़ी कहते हैं। इस तरह की साहित्यिक शैली ईरानी शैली की अपेक्षा सब्के हिन्दी में अधिक है। तालिब आमुली के शेरों में इस शैली का प्रयोग दो आभासों के मिश्रण से आगे नहीं बढ़ता जैसे देखना व सुनना।

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