Sep ०४, २०१९ १६:१२ Asia/Kolkata

नूरुद्दीन अब्दुर्रहमान जामी नवीं हिजरी क़मरी के मशहूर शायर, लेखक व आत्मज्ञानी हैं।

वह 817 हिजरी क़मरी बराबर 1414 ईसवी में ख़ुरासान प्रांत के जाम ज़िले में पैदा हुए। उनके बाप-दादा इस्फ़हान में रहते थे लेकिन जब तुर्कों की लूटमार शुरु हुयी तो वे ख़ुरासान पलायन कर गए और ख़ुरासान के जाम ज़िले के ख़ुर्जर्द इलाक़े में रहने लगे। जामी के पिता उनके जन्म से कुछ साल पहले परिवार के साथ हेरात चले गए और वहीं बस गए थे। जामी ने शिक्षा के आरंभिक साल में फ़ारसी साहित्य और अरबी व्याकरण की शिक्षा अपने पिता से हासिल की। उन्होंने हेरात और समरक़न्द के मदरसों में शिक्षा हासिल की जो उस समय ज्ञान व साहित्य के अहम केन्द्र समझे जाते थे। उन्होंने वहीं गणित, तर्कशास्त्र, दर्शनशास्त्र, अरबी भाषा और धर्म शास्त्र जैसे विषयों में व्यापक ज्ञान अर्जित किया। जामी अपने ज्ञान और आत्मज्ञानी व्यवहार की वजह से तत्कालीन शासकों के निकट बड़ा सम्मान रखते थे। बुढ़ापे से पहले ही विज्ञान, साहित्य व अध्यात्म में उनका डंका उन क्षेत्रों में बजा हुआ था जहां फ़ारसी भाषा प्रचलित थी। वह उस्मानी शासन के अधीन इलाक़ों से लेकर आधे एशिया और भारतीय उपमहाद्वीप में बहुत महशूर और सम्मानीय थे।

वह 18 मोहर्रम सन 898 हिजरी क़मरी बराबर 1492 ईसवी में 81 साल की उम्र में इस दुनिया से चल बसे और विशाल ख़ुरासान के हेरात शहर में अपने उस्ताद सअदुद्दीन काश्ग़री के मक़बरे के निकट दफ़्न हुए। इस समय जामी की क़ब्र "तख़्त मज़ार" के नाम से मशहूर है।                   

नूरुद्दीन अब्दुर्रहमान जामी की बची हुयी रचनाओं और उनक विचारों की समीक्षा के लिए ज़रूरी है कि हम उनके दौर और उस दौर के सांस्कृतिक, सामाजिक और राजनैतिक हालात पर नज़र डालें। जामी के दौर की दो आयाम से समीक्षा की जा सकती है। एक साहित्यिक और दूसरे सामाजिक-राजनैतिक आयाम। इन दोनों आयाम से जामी के दौर की समीक्षा से शोधकर्ता के सामने इस दौर की अलग तस्वीर उभर कर सामने आती है। एक तस्वीर से प्रशासनिक माहौल का तो दूसरे से सामाजिक वातावरण का पता चलता है। जामी का दौर नवीं हिजरी क़मरी बराबर पंद्रहवीं ईसवी शताब्दी का दौर है जो मंगोलों द्वारा मचायी गयी महातबाही की 2 शताब्दी बाद का दौर। यह दौर दर्शाता है कि ईरान दो शताब्दियों के बाद भी मंगोलों द्वार मचायी गयी तबाही के असर से उबर नहीं पाया था।

नवीं शताब्दी और दसवीं शताब्दी के आरंभ को ईरान के इतिहास में तैमूरी शासन काल कहा जाता है। जो चीज़ इस दौर की अहमियत बढ़ाती है वह इस दौर में ईरान में कला व साहित्य के क्षेत्र में अत्यधिक विकास है जिसके पीछे शासन वर्ग पर ईरान की संस्कृति व सभ्यता का असर था।

कुछ इतिहासकार और शोधकर्ता ग़लती से इस दौर में ईरान में कला व साहित्य के क्षेत्र में हुयी तरक़्क़ी का श्रेय तैमूरी शासन को देते हैं, जबकि वास्तविकता इससे अलग है। इतिहास साक्षी है कि तैमूरी शासन में कला व साहित्य के विकास के पीछे जो चीज़ प्रभावी रही वह समृद्ध इस्लामी ईरानी संस्कृति व सभ्यता का असर था न कुछ और।

ईरानी संस्कृति ख़ास तौर पर इस्लाम के बाद, अपनी प्राचीन समृद्धता के कारण हमेशा आक्रमण करने वाली जातियों को प्रभावी करती रही। यहां तक कि उनमें से कुछ इस्लामी ईरानी संस्कृति व सभ्यता के समर्थक व प्रचारक रहे हैं। मंगोल शासक ईरान में अत्यधिक रक्तपात व लूटमार के बाद, समय बीतने के साथ ही ईरानी संस्कृति व साहित्य के सेवक बन गए। वे मुसलमान हो गए और उनका दरबार ज्ञान, कला व साहित्य का पालना बन गया। तैमूर के पोतों का दरबार, मंगोल शासकों के दरबार की तरह ईरानी अधिकारी चलाते थे। जैसे शासक हुसैन बायुक़रा के दरबार के मशहूर मंत्री अली अलीशीर नवाई थे। यही वजह है कि इस शासक का दरबार शेर-शायरी, साहित्य व संस्कृति को बढ़ावा देने की दृष्टि से बहुत अहमियत रखता है।

तैमूरी शासन के अधिकारी वास्तव में उसके बेटों और वंशजों के शिक्षक थे यही वजह है कि तैमूर के बेटे और वंशज इस्लामी संस्कृति से अवगत हुए और उनके स्वभाव में ईरानी कला व साहित्य से लगाव देखा जा सकता है।          

तैमूरी दौर एक शताब्दी से कुछ ज़्यादा समय तक चला जिसे फ़ारसी साहित्य के दो अहम चरणों में एक चरण समझा जाता है। यह दौर अपने बाद वाले दौर अर्थात सफ़वी दौर के लिए फ़ारसी साहित्य के लिए नए दौर के आरंभ की प्रस्तावना था। यह दौर शायरों, लेखकों और साहित्यिक आंदोलनों की नज़र से ईरानी साहित्य के सबसे अहम दौर में से एक दौर है।

शोधकर्ताओं का मानना है कि तैमूरी दौर प्रशासनिक दृष्टि से हालांकि स्थिर नहीं था लेकिन कुछ शासकों और कुलीन वर्ग ने इस्लामी-ईरानी संस्कृति के प्रभाव में बहुत मूल्यवान सेवाएं की हैं।

तैमूरी शासकों और शहज़ादों ने ज्ञान, साहित्य और कला की जो सेवा की है उसका सभी इतिहासकार लोहा मानते हैं। तैमूर अपने शासन के लिए कुछ ईरानी शासकों की तरह की शान चाहता था। यही वजह है कि कभी वह मज़बूर करके तो कभी आपसी सहमति से विभिन्न शहरों के विद्वानों और शायरों को समरक़न्द बुलाता और वहां उन्हें बसाता था। तैमूर के इस काम को उसकी मौत के बाद उसके बेटों और पोतों ने भी जारी रखा।                 

तैमूरी दौर फ़ारसी शायरों व लेखकों की दृष्टि से ईरान के इतिहास के सबसे समृद्ध दौर में से एक है। इन शायरों व लेखकों में वे भी शामिल हैं जिनका जीवन ईरान से बाहर गुज़रा है।

उस्ताद सईद नफ़ीसी ने अपनी किताब "ईरान में पद्य और गद्य का इतिहास" में नवीं हिजरी में गुज़रे 1000 से ज़्यादा शायरों का उल्लेख किया है। इस तादाद में मशहूर और ग़ैर मशहूर शायर और शायरी में रूचि रखन वाले शहज़ादे शामिल हैं।

इतिहास के अनुसार, इस दौर में शिक्षित वर्ग द्वारा शायरी को पेशा बनाया जाना गर्व की बात थी। इस दौर की शायरी की शैली में विविधता थी क्योंकि शायरों की तादाद बहुत थी और वे समाज के सभी वर्ग से थे। कुछ ऐसे शिक्षित थे जो पुरानी जबान से परिचित थे और पुराने अंदाज़ में शेर कहते थे जबकि कुछ शायर समाज के आम वर्ग से निकल कर आए थे। ऐसे शायर अपनी नैसर्गिक प्रतिभा पर अधिक भरोसा करते थे।       

इस दौर में भी ऐसे शायर थे जो दरबारी थी। ऐसे शायरों को शासकों, मंत्रियों, उनकी बैठकों और जंग में जीत के बारे में शेर कहना पड़ता था।

उस्ताद ज़र्रीन कूब का मानना हैः "इस दौर में दरबार में शायरों और कलाकारों की मौजूदगी और सभाओं के आयोजन की वजह से हेरात शहर कला व साहित्य की रौनक़ का केन्द्र समझा जाता। यह शहर अपनी शान के चरम पर और बहुत ही समृद्ध था। इस शहर में शायरों और कलाकारों को तैमूर के बचे हुए ख़ज़ानों से बहुत मिलता था जिससे वे बड़ी शान की ज़िन्दगी गुज़ारते थे।"

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