Feb १७, २०२१ १४:१४ Asia/Kolkata

1962 में म्यांमार के सैन्य जनरलों ने यू नू ( U Nu) या थाकिन नू की सरकार का तख़्तापलट दिया। तीन समुदायों शान, राखीन और रोहिंग्या के संयुक्त प्रतिरोध व आंदोलन के नतीजे में तैयार होने वाले संविधान को रद्द कर दिया।

परिणाम स्वरूप, रोहिंग्या मुसलमानों को जो भी सुविधा प्राप्त हुई थी, वह ख़त्म हो गई। जनरलों ने समाजवादी दृष्टिकोण को आगे बढ़ाया। म्यांमार को एक देश और एक राष्ट्र के रूप में संगठित करने के लिए उन्होंने क्रांति परिषद का गठन किया और 1978 में एक क़ानून पारित किया, जिसके आधार पर रोहिंग्या समुदाय को बांग्लादेशी घोषित कर दिया गया और नागरिकता की समस्त विशिष्टताएं उनसे छीन ली गईं। रोहिंग्याओं के नस्लीय सफ़ाए और उन्हें देश से निकालने के लिए सैन्य शासन का यह पहला क़दम था। 1978 के क़ानून से रोहिंग्याओं की नागरिकता छीन ली गई, लेकिन 1982 में जो क़ानून पारित किया गया उसके आधार पर एक झटके में रोहिंग्याओं के सभी क़ानूनी अधिकार छीन लिए गए। क्योंकि क़ानून में एक ऐसा प्रावधान था, जिसके मुताबिक़, म्यांमार की राष्ट्रीयता जनरलों द्वारा प्रमाणित दस्तावेज़ों से सशर्त कर दी गई थी। हर नागरिक को यह साबित करना था कि उसके पूर्वज, 1824 में ब्रिटिश शासन की स्थापना से पहले म्यांमार में रहते थे। भारत के वरिष्ठ सांसद एवं ऑल इंडिया मजलिसे इत्तेहादुल मुस्लेमीन के प्रमुख असदुद्दीन ओवैसी ने अपने एक भाषण के दौरान म्यांमार के रोहिंग्या मुसलमानों का इतिहास बताते हुए कहा कि, रोहिंग्या आठवीं ईसवीं शताब्दी से म्यांमार में रहते चले आ रहे हैं। 

सच्चाई यह है कि जब इस तरह के क़ानून पारित किए गए तो रोहिंग्या मुसलमान उनके प्रभावों को अच्छी तरह समझ नहीं सके। उनकी अधिकांश आबादी, पैतृक गांवों में रहती थी और उन्हें उम्मीद नहीं थी कि सैन्य सरकार, इन क़ानूनों के ज़रिए उनकी मूल राष्ट्रीयता पर प्रश्न चिन्ह लगा देगी और उन्हें मूल भारतीय आप्रवासी क़रार दे देगी। दूसरे अगर वे इस मुद्दे के प्रभाव को समझ भी जाते तो ऐसे दस्तावेज़ वहां कहां से जुटाते, जिनके आधार पर 1824 से पहले उनका म्यांमार में रहना साबित हो और सैन्य अधिकारी उन्हें प्रमाणित करें। उनके पास एकमात्र प्रमाण सिर्फ़ यह था कि वे नस्लों से अपने पैतृक गांवों में रहते आ रहे हैं। हालांकि सैन्य सरकार की नज़र में इसका कोई महत्व नहीं था। सैन्य सरकार ने इससे भी ख़तरनाक काम, रोहिंग्या मुसलमानों के पास मौजूद दस्तावेज़ों को ज़ब्त करके किया। म्यांमार की स्वाधीनता के बाद 1948 की मर्दुम शुमारी में रोहिंग्याओं को एक म्यांमारी समुदाय के रूप में पंजीकृत किया गया था। लेकिन सैन्य शासन ने रोहिंग्याओं की नागरिकता रद्द करके उनके उन दस्तावेज़ों को ज़ब्त कर लिया जो पूर्व सरकार ने उन्हें दिए थे। इसके लिए सेना ने हिंसा का भी सहारा लिया। इस प्रकार, रोहिंग्याओं के पास अब कोई दस्तावेज़ नहीं बचा था, जिससे वे अपनी नागरिकता साबित कर सकें। यह काम, सैन्य शासन की समाप्ति के ठीक 9 महीने पहले किया गया। सैन्य अधिकारियों ने रोहिंग्या मुसलमानों से चुनाव में वोट देने का अधिकार छीन लिया। भारत के वरिष्ठ सांसद असदुद्दीन ओवैसी बताते हैं कि 1780 में एक बादशाह ने जब म्यांमार पर हमला किया था और उसपर क़ब्ज़ा किया था तब से इस देश के रोहिंग्या मुसलमानों पर अत्याचार शुरू हुआ था। 

सैन्य अधिकारियों ने दुष्प्रचार करके, बौद्ध राजनेताओं का भी समर्थन हासिल कर लिया था। बौद्ध भिक्षुओं के दिलों में पहले से ही रोहिंग्या मुसलमानों के दिनों में नफ़रत थी। उन्होंने राखीन समुदाय के बीच कि जो अल्पसंख्यक से बहुसंख्यक बन गया था, मुसलमानों के प्रति साम्प्रदायिकता को भड़काया। राखीन समुदाय ने रोहिंग्याओं के नरसंहार और उन्हें उनके घरों से उजाड़ने में इसलिए भाग लिया, क्योंकि सैन्य अधिकारियों और बौद्ध भिक्षुओं ने उन्हें उनकी संपत्तियां देने का लालच दिया था। वास्तव में सैन्य शासन ने एक उपकरण के रूप में राखीन समुदाय का इस्तेमाल किया और रोहिंग्याओं के निष्कासन के बादक, उनके गांवों और ज़मीनों को बहुराष्ट्रीय कृषि-औद्योगिक निवेश कंपनियों के हवाले कर दिया। म्यांमार सरकार सेना के जनरलों के नियंत्रण में आ गई। आम चुनाव केवल इसलिए आयोजित कराए गए ताकि अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर सरकार की छवि को सुधारा जा सके। 1988 में रोहिंग्याओं की नागरिकता को छीनने के लिए एक अन्य क़दम उठाया गया। इस प्रकार से कि रोहिंग्याओं को किसी भी प्रकार का कार्ड या दस्तावेज़ देने पर प्रतिबंध लगा दिया गया, जिससे उनकी नागरिकता साबित होती हो, इसके लिए एक 11 सूत्रीय विधेयक पारित किया गया। रोहिंग्या मुसलमानों को क़ानूनी तौर पर विद्रोहियों के रूप में मान्यता दी गई, ताकि उनके दमन को क़ानूनी रूप दिया जा सके। ऑल इंडिया मजलिसे इत्ताहदुल मुस्लेमीन के प्रमुख ने बताया कि जब वर्ष 1960 में म्यांमार आज़ाद हुआ तो इस देश के रोहिंग्या मुसलमान पाकिस्तान जाना चाहते थे लेकिन इस देश की सरकार ने उन्हें नहीं जाने दिया और उनसे वादा किया कि वह इस देश में पूरे सम्मान के साथ रहें। 

वास्तव में कहा जा सकता है कि 1962 में तख़्तापलट के बाद, सेना ने सत्ता पर पूर्ण रूप से क़ब्ज़ा जमा लिया। उसके बाद अंतरराष्ट्रीय दबाव में दिखावटी चुनावों का आयोजन किया और एक कठपुतली सरकार को सत्ता सौंप दी। इस दौरान, रोहिंग्याओं के समस्त अधिकारों को छीन लिया गया। जनरलों, राजनेताओं और बौद्ध भिक्षुओं के गठबंधन ने मुसलमानों पर अत्याचार किए और उन्हें मूल मानवाधिकारों से भी वंचित कर दिया। जनरलों, राजनेताओं और बौद्ध भिक्षुओं के गठजोड़ ने रोहिंग्याओं के नस्लीय सफ़ाए के लिए अभियान चलाया। उनके ख़िलाफ़ हिंसा भड़काई, उनके घरों और खेतों को आग के हवाले कर दिया और पुरुषों की उपस्थिति में उनकी महिलाओं का बलात्कार किया। जिस गांव में भी दंगाई, हत्यारे और हिंसक दस्ते प्रवेश करते थे, वहां हर ओर अराजकता और मौत का सन्नाटा होता था। रोहिंग्या मुसलमान अपनी जान बचाने के लिए घरों को छोड़कर भाग खड़े होते थे, इस दौरान कितने ही लोग नदी में डूबकर मर गए या किसी और वजह से कभी बांग्लादेश पहुंच ही नहीं सके।

मलेशिया के पूर्व प्रधान मंत्री महातिर मोहम्मद ने संयुक्त राष्ट्र संघ में रोहिंग्या मुसलमानों के नरसंहार और नस्लीय सफ़ाए का मुद्दा उठाते हुए म्यांमार सरकार की कड़ी आलोचना की थी। उनका कहना थाः मैं दूसरे देशों के मामलों में हस्तक्षेप करने का विरोधी हूं, लेकिन क्या दुनिया को यह नरसंहार नहीं दिखाई दे रहा है और कोई कुछ नहीं कर रहा है। देश के स्वाधीन होने का क्या यह मतलब है कि वह अपने ही नागरिकों का नरसंहार करे, क्योंकि वह स्वाधीन है। उन्होंने कहा ...(इफेक्ट)

महातिर मोहम्मद का कहना थाः म्यांमार सरकार इंसानों के नरसंहार और उनके घरों को उजाड़ने का अभियान चला रही है, लेकिन आंग सान सूची इसका खंडन करती हैं। रखाइन प्रांत में मुसलमानों का जनसंहार किया जा रहा है, उनके घरों को आग लगाई जा रही है। क़रीब दस लाख लोग अपना घर बार छोड़कर भागने पर मजबूर हो गए हैं, शरणार्थी कैम्पोंम तक पहुंचने के प्रयासों में उनकी एक बड़ी संख्या अंतरराष्ट्रीय पानियों में डूबकर मर रही है। इसके बावजूद, शांति के नोबेल पुरस्कार से सम्मानित समेत म्यांमार के अधिकारी इन घटनाओं का खंडन कर रहे हैं।

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