Feb २७, २०२१ १९:२४ Asia/Kolkata

म्यांमार की सेना ने रोहिंग्या मुसलमानों का नरसंहार किया और उनकी ज़मीनों और संपत्तियों को ज़ब्त कर लिया, और यह सब बहुत ही व्यवस्थित ढंग से किया गया। वास्तव में सेना द्वारा सरकार को सत्ता सौंपने के परिणाम स्वरूप, म्यांमार के ख़िलाफ़ लगे अंतर्राष्ट्रीय प्रतिबंधों को हटा लिया गया, जिसके बाद रोहिंग्याओं के नस्लीय सफ़ाए ने बेहद ख़तरनाक रूप धारण कर लिया।

 

इस अपराध के लिए देश की राष्ट्रीय विकास योजना को बहाना बनाया गया, ताकि खनन और औद्योगिक क्षेत्रों में विदेशी निवेश को आकर्षित किया जा सके और दूसरी ओर कृर्षि क्षेत्र में सरकार सक्रिय भूमिका निभा सके। राष्ट्रीय विकास योजना के लिए नए क़ानूनों और नियमों को लागू करने की ज़रूरत थी, इसीलिए भूमि के पुनर्वितरण का नया क़ानून, संसद से पारित करवाया गया। दर असल, म्यांमार की संसद में राष्ट्रीय विकास योजना के अनुमोदन का मतलब, विदेशी निवेशकों के लिए शर्तों को आसान बनाना और रास्ते से रुकावटों को हटाना था। नए क़ानून के तहत, जहां भी अंतर्राष्ट्रीय निवेशकों को औद्योगिक सुविधाओं या खनन, सड़कों और संचार के निर्माण के लिए ज़मीन की ज़रूरत होगी, सरकार को ज़मीन उपलब्ध करनी होगी। हालांकि यह क़ानून पूरे देश के लिए बनाया गया था और सेना, लोगों की ज़मीनों को ज़ब्त करके और उन्हें मुआवज़ा दिए बग़ैर, बहु राष्ट्रीय कंपनियों के हवाले कर रही थी। लेकिन रखाइन प्रांत में रोहिंग्या मुसलमानों के ख़िलाफ़ इस क़ानून को बहुत ही हिंसक और अमानवीय ढंग से लागू किया गया, जिसके नतीजे में रोहिंग्याओं को उनके गांवों से और घरों से निकाल दिया गया। इस संदर्भ में संयुक्त राष्ट्र संघ का कहना है कि म्यांमार के पश्चिमी प्रांत रखाइन में मुसलमानों का दमन और नरसंहार जारी है। राष्ट्र संघ के महासचिव एंटोनियों गुटेरेस ने म्यांमार में जारी हिंसा पर गहरी चिंता जताई है। अमरीका, यूरोप, जापान और दक्षिण कोरिया की बहु राष्ट्रीय कंपनियों ने रखाइन प्रांत पर दो कारणों से विशेष ध्यान दिया। पहला कृषि भूमि का उपजाऊ होना, और यह बात म्यांमार पर ब्रिटिश के क़ब्ज़े के दौरान मशहूर हो चुकी थी। पूरे एशिया में यह ज़मीन सबसे ज़्यादा उपजाऊ मानी गई है और पानी अधिक मात्रा में होने के कारण, धान की खेती के लिए उपयुक्त है। दूसरे समुद्र के तटीय इलाक़े में तेल और गैस के भंडारों की खोज। इन दो कारणों से बहु राष्ट्रीय कंपनियों की रखाइन प्रांत में दिलचस्पी बढ़ गई। प्रारंभिक अनुमानों के मुताबिक़, इस क्षेत्र में 50 बिलियन बैरल तेल और 280 बिलियन क्यूबिक मीटर प्राकृतिक गैस मौजूद है। संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट के मुताबिक़, म्यांमार की नेता आंग सान सूची की सरकार न केवल लाखों रोहिंग्याओं के विस्थापन के संकट को हल करने में विफल रही है, बल्कि वह अल्पसंख्यकों के दमन को भी रोकने में नाकाम हो गई है। म्यांमार में संयुक्त राष्ट्र के विशेष रिपोर्टर, यांग ली का कहना है कि म्यांमार सरकार, लाखों रोहिंग्याओं को उनके घरों में वापस लाने के लिए तैयार नहीं है। रोहिंग्या अल्पसंख्यकों के गांवों और घरों को नष्ट कर दिया गया है और घरों को पूर्ण रूप से ज़मीनदोज़ कर दिया गया है, इस तरह से कि वहां उनका कोई नाम व निशान भी बाक़ी नहीं है। उन्होंने कहा कि म्यांमार में लोकतंत्र का कोई वजूद नहीं है।

रखाइन प्रांत में तेल और गैस की खोज के बाद, महत्वपूर्ण अंतर्राष्ट्रीय तेल कंपनियों में से शोरेन, रॉयल डच शेल और टोटल कंपनियों ने म्यांमार में क़दम रख दिया और तेल और गैस निकालना शुरू कर दिया। इन कंपनियों को वहां अपने प्लांट लगाने के लिए बड़ी ज़मीनों की ज़रूरत थी, लेकिन रोहिंग्याओं के छोटे छोटे खेत, इस रास्ते में रुकावट बन रहे थे। ख़ास तौर पर इसलिए कि उनकी गतिविधियां सिर्फ़ किसी एक क्षेत्र में सीमित नहीं होती हैं, बल्कि पाइप लाईन बिछाने, बुनियादी ढांचे और यहां तक ​​कि कर्मियों के लिए कालोनियां बसाने की ज़रूरत होती है। क्योंकि ग्रामीण रोहिंग्या मुसलमान, अपनी ज़मीनें बेचने के लिए तैयार नहीं थे, सेना ने बल और हिंसा का प्रयोग करके, उनकी ज़मीनों को ज़ब्त कर लिया और उन्हें घर-बार छोड़ने पर मजबूर कर दिया। बहु राष्ट्रीय तेल कंपनियों को 18 ब्लॉक हवाले करने के कारण, रोहिंग्या मुसलमानों को उनकी पैतृक सरज़मीनों से उजाड़ा गया और इसके अलावा, विदेशी कंपनियों द्वारा कृषि भूमियों में पूंजी निवेश ने भी रोहिंग्याओं को भारी नुक़सान पहुंचाया। इसका मतलब यह है कि बहुराष्ट्रीय कृषि-औद्योगिक कंपनियों को, कि जो कृषि क्षेत्र में निवेश की योजना बना रही थीं, औद्योगिक कृषि उद्योग के निर्माण के लिए बड़े पैमाने पर ज़मीनों को समतल करने और उनके एकीकरण की आवश्यकता थी, ताकि कृषि मशीनरी का उपयोग और संबंधित सुविधाओं की स्थापना करके, गोदामों का निर्माण किया जा सके। म्यांमार सरकार ने कृर्षि क्षेत्र में निवेश को आसान बनाने के लिए भूमि प्रबंधन और वितरण अधिनियम पारित किया, जिसने राष्ट्रीय विकास क़ानून के समान भूमिका अदा की। कथित रूप से यह क़ानून, कृषि के विकास और किसानों के लाभ के लिए बनाया गया था, लेकिन वास्तव में इसका उद्देश्य, रखाइन प्रांत की उपजाऊ कृषि भूमि को हासिल करना था, ताकि क्षेत्रीय बाज़ार और विशेष रूप से चीन के लिए, विदेशी कंपनियां को धान की खेती के लिए आकर्षित किया जा सके।म्यांमार में एक्सट्राटेरेस्ट्रियल खेती का मतलब, ग्रामीण क्षेत्रों की भूमि को बहुराष्ट्रीय कृषि-औद्योगिक कंपनियों को सौंपना है। भूमि की गुणवत्ता और स्थानीय उपभोक्ता बाज़ार तक पहुंच इसका मुख्य कारण है, लेकिन इसका परिणाम बहुत ही भयानक निकला और इस क्षेत्र के मूल निवासी रोहिंग्या मुसलमानों को उनकी संपत्तियों से वंचित कर दिया गया। म्यांमार में रोहिंग्या मुसलमानों के साथ कैसे-कैसे अत्याचार हुए हैं इसके बारे में भारत में शरण लेने वाली रोहिंग्या मुस्लिम लड़की तसमीदा का कहना है कि वह इस लिए म्यांमार से चली आई क्योंकि वहां मुसलमानों पर अत्याचार होता है।  भारत में ही शरण लेने वाले अब्दुल करीम बताते हैं कि वर्ष 2012 म्यांमार रोहिंग्या मुसलमानों के लिए नरक बन गया था।  वहीं एक अन्य रोहिगंया मुस्लिम युवक अब्दुल्लाह अपना दर्द बताते हुए कहता है कि अब हमारा इस धरती पर कोई ठिकाना ही नहीं बचा है।

वास्तविकता यह है कि रोहिंग्या मुसमलानों के नरसंहार और उन्हें उनके घरों से उजाड़ने में सेना ने मुख्य भूमिका निभाई है। इसका उद्देश्य आर्थिक लाभ हासिल करना और ज़मीनों को ज़ब्त करना था। इसका कारण यह है कि सेना के वरिष्ठ अधिकारी, विशेष रूप से रिटायरमेंट के बाद विदेशी कंपनियों में निवेश करके भारी लाभ कमा रहे हैं। इस बारे में जो जानकारियां सार्वजनिक हुई हैं, उनसे पता चलता है कि इस तरह की कंपनियों के प्रमुख पदों पर एक सेवानिवृत्त जनरल पदासीन है। रखाइन प्रांत में भी निवेश करने वाली दो मुख्य विदेशी कंपनियों के प्रमुख रिटायर्ड जनरल हैं।

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