Mar १८, २०२१ १५:४३ Asia/Kolkata

रोहिंग्या के मुसलमानों को कई बार विस्थापन और बौद्ध कट्टरपंथियों के हमलों की वजह से अपना घर बार छोड़ना पड़ा लेकिन सन 2011 और सन 2017 में यह त्रासदी इतनी भयानक थी कि उसकी कुछ जानकारियां जो मिल पायी हैं वही इन्सान का दिल दहला देने के लिए काफी हैं।

इस दौरान रोहिंग्या मुसलमानों के विस्थापन के परिणाम में तीन प्रकार के शरणार्थी नज़र आए। एक वह लोग जो राखीन में हंगामों और बौद्ध चरमपंथियों तथा सेना के हमलों के बाद अपना इलाका छोड़ कर सुरक्षित इलाक़ों में चले गये, दूसरे वह लोग जिन्होंने नदी के रास्ते बांग्लादेश और भारत में शरण लेने की कोशिश की और तीसरे और सब से अधि खतरनाक स्थिति में वह लोग फंसे जिन्होंने राखीन में मौत के तांडव से भागने के लिए बेहद असुरक्षित नौकाओं का सहारा लेकर समुद्र में विकल्प चुना। दर-दर की ठोकरें खा रहे एक रोहिंग्या युवक का कहना है कि म्यांमार की सेना और कट्टरपंथी बौद्ध किसी से कुछ नहीं कहते लेकिन जैसे ही किसी रोहिंग्या मुसलमान को देखते हैं वह उसकी बड़ी बेरहमी से हत्या कर देते हैं, वहीं एक अन्य रोहिंग्या व्यक्ति का कहना है कि, हम 12 दिनों तक पहाड़ों पर जा कर छिप गए थे, फिर हमने 75 डॉलर दिए एक नांव वाले को ताकि वह हमे बांग्लादेश तक पहुंचा दे।  राखीन से भाग कर भारत की सीमा पर पहुंचने वालों को भारतीय सुरक्षा बलों ने रोक लिया। अस्ल में म्यांमार से भारत के अच्छे संबंध हैं इस लिए उसने म्यांमार की वजह से इस मामले में हस्तक्षेप न करने का फैसला किया। कुछ लोग भाग कर सुरक्षित इलाक़ों में पहुंच गये लेकिन भारत सरकार उनकी पहचान करके उन्हें बांग्लादेश भेजती है। इस तरह से राखीन से रोहिंग्या मुसलमानों क पास, म्यांमार के सैनिकों के हाथों मारे जाने या बाग्लादेश भाग जाने के अलावा कोई विकल्प नहीं था। जिन लोगों ने समुद्र का रास्ता अपना कर दक्षिण पूर्वी एशियाई देशों जैसे, मलेशिया, इंडोनेशिया या थाईलैंड में शरण लेने की कोशिश की उनका अजांम तो बहुत ही भयानक हुआ।

बांग्लादेश में शरण लेने वाले रोहिंग्या शरणार्थियों में अधिकांश महिलाएं, बच्चे और वृद्ध हैं जो अपने गांवों में होने वाली तबाही के चश्मदीद गवाह वह बताते हैं कि किस तरह से उनका पूरा गांव जला दिया गया और किस तरह से महिलाओं के साथ बलात्कार किया गया। इन लोगों से वार्ता करने वाले पत्रकारों ने बेहद खौफनाक रिपोर्टें प्रकाशित की हैं। बांग्लादेश की सरकार और इसी तरह शरणार्थियों के लिए संयुक्त राष्ट्र संघ के आयोग ने जो आंकड़े प्रकाशित किये हैं  उनके अनुसार सन 2017 से पहले तीन लाख और उसके बाद लगभग 7 लाख रोहिंग्या जान बचाकर किसी तरह से बांग्लादेश पहुंचे हैं।  इस तरह से लगभग दस लाख रोहिंग्या, बांग्लादेश में काक्स बाज़ार के नाम से मशहूर इलाक़े में बेहद दयनीय दशा में शरणार्थी कैंपों में ज़िदगी गुज़ार रहे हैं। म्यांमार के रोहिंग्या मुसलमान किस दयनीय स्थिति में अपना जीवन व्यतीत कर रहे हैं, उनके दर्द का एहसास करते हुए भारत के प्रसिद्ध शायर इमरान प्रतापगढ़ी ने अपनी एक नज़्म के ज़रिए पेश किया है।बांग्लादेश की सरकार, रोहिंग्या मुद्दे पर म्यांमार सरकार के साथ मतभेदों की वजह से इन लोगों को इस इलाक़े से बाहर निकलने नहीं देती। अस्ल में म्यांमार, रोहिंग्या मुसलमानों को बांग्लादेश कहता है जो कि एक गलत दावा है लेकिन इस दावे की वजह से बांग्लादेश की सरकार रोहिंग्या शरणार्थियों को अपने देश के समाज में घुलने मिलने की अनुमति नहीं देती क्योंकि इस तरह से म्यांमार का दावा सही साबित हो जाएगा। बांग्लादेश के काक्स बाज़ार में रोहिंग्या मुसलमानों की दशा बेहद दयनीय है। इस कैंप में अधिकांश बच्चे और महिलाएं हैं। यहां की महिलाओं के पति और बच्चों के पिता या माता या दोनों ही चरमपंथी बौद्धों और म्यांमार की सेना के हमलों में मारे गये हैं। इस कैंप में इतनी भीड़ है कि शरणार्थी बहुत अधिक कठिनाइ में जीवन व्यतीत करते हैं। अंतरराष्ट्रीय संगठनों  से बहुत सी कम और अर्याप्त सहायता मिलती है और यह लोग जनता की मदद पर ही जीवन व्यतीत कर रहे हैं।

काक्स बाज़ार के रोहिंग्या शरणार्थियों की हालत चाहे जितनी बुरी हो लेकिन उन लोगों जैसी नहीं है जिन्होंने जान बचाने के लिए समुद्र का रास्ता अपना कर दक्षिणपूर्वी देशों में जाने का सपना देखा था। इन में से बहुत से बच्चे असुरक्षित नौकाओं में अपने मां बाप के सामने ही भूख प्यास से दम तोड़ देते हैं और उनके शव को समुद्र में फेंक दिया जाता है। म्यांमार के राख़ीन प्रांत से जान बचाकर समुद्न की शरण में जाने वाले रोहिंग्या अगर किसी तरह बच कर किसी देश के तट पर पहुंच भी गये तो फिर वहां उन्हें मलेशिया, इंडोनेशिया या थाईलैंड के सुरक्षा बलों का सामना करना पड़ता है जो उन्हें तट पर पैर ही नहीं रखने देते या बड़ी मुश्किल से उन्हें इसकी इजाज़त मिलती है। जिसके बाद वह मानव तस्करों के हत्थे चढ़ जाते हैं जो उन्हें काम और नौकरी का लालच देकर जंगलों में ले जाते हैं और वहां दासों की तरह उन्हें बेच देते हैं। एक पीड़ित रोहिंग्या मुस्लिम महिला का कहना है कि म्यांमार में हमारे घरों और मस्जिदों को जला दिया गया, हम जहां जाते हैं हमे मार दिया जाता है, हम कहां जाएं, जहां हमे सुरक्षा मिल सके, 10 दिनों की बेहद कठिनाईयों के बाद हम सुरक्षित स्थान पर पहुंचे हैं। 

कुल मिलाकर बांग्लादेश में कैंपों में रहने वाले रोहिंग्या मुसलमानों की दशा बेहद दयनीय है लेकिन समुद्र में भूख प्यास व दसियों जान लेवा समस्याएं सहन करके तट पर जीवित पहुंचने वाले रोहिंग्या की दशा उनसे अधिक दयनीय है कि फिर वह राखीन प्रान्त से भाग कर म्यांमार के ही सुरक्षित इलाकों में शरण लेने वालों से बहुत बेहतर है। यह लोग अपने ही देश में अपने हिसाब से सुरक्षित इलाक़ों में तलाश में जिस तरह से भटकते हैं वह बेहद डराने वाला और चिंताजनक है। इस्लामी क्रांति के सर्वोच्च नेता आयतुल्लाहिल उज़्मा सैयद अली ख़ामनेई ने अपने एक बयान में कहा है कि, वह लोग जो कथित तौर पर दुनिया में मानवाधिकारों के नाम पर हंगामा करते रहते हैं और यहां तक कि एक जानवर की मौत पर आंसू बहाते हैं वही लोग म्यांमार में रोहिंग्या मुसलमानों पर होने वाले अत्याचारों पर चुप्पी साधे रहते हैं...(इफेक्ट) यह लोग अगर किसी तरह से म्यांमार की सेना और बौद्ध चरमपंथियों के हाथों जीवित बच भी जाते हैं तो उन्हें पकड़ कर एसे कैंपों में बंद कर दिया जाता है जहां उनके बारे में किसी को कोई सूचना नहीं होती। किसी भी पत्रकार को इस बात की अनुमति नहीं होती कि वह वहां जाकर हालात देखे। बताया जाता है कि म्यांमार में सेना के कड़े पहरे में इस प्रकार के कैंपों में लगभग डेढ़ लाख रोहिंग्या मुसलमानों को बेहद बुरी दशा में रखा गया है। इस प्रकार के अधिकांश कैंप राखीन प्रांत में ही बनाए गये हैं।

म्यांमार में फंसने वाले अधिकांश रोहिंग्या वह हैं जो बीमारी या बुढ़ापे के कारण भागने की ताक़त नहीं रखते थे। अलबत्ता इनमें कुछ लोग एसे भी हैं जिन्होंने अपनी मातृभूमि को छोड़ कर भागने के बजाए अपनी मिट्टी में जान देने को तरजीह दी और इस तरह से वह अपना गांव छोड़ कर नहीं भागे जिसके बाद वह या तो सैनिकों और बौद्ध चरमपंथियों के हाथों मारे गये या फिर उन्हें कैंपों में भेज दिया गया। म्यांमार में इस प्रकार के भयानक कैंपों के बारे में जानकारी प्राप्त करने के लिए विश्व संगठनों के सभी प्रयास अब तक विफल रहे हैं।

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