पवित्र रमज़ान पर विशेष कार्यक्रम-६
(last modified Mon, 13 Jun 2016 10:39:18 GMT )
Jun १३, २०१६ १६:०९ Asia/Kolkata

समाज में अप्रसन्नता का एक कारण धनी- निर्धन के बीच वर्गभेद है।

समाज में अप्रसन्नता का एक कारण धनी- निर्धन के बीच वर्गभेद है। समाज में वर्गभेद जितना अधिक होगा समाज के निर्धनों का जीवन उतना ही कठिन होगा। जिस समाज में लोगों में एक दूसरे से सहानुभूति व चिंता कम होगी निर्धन व ग़रीब लोगों को भौतिक परेशानी व पीड़ा के अतिरिक्त काफी भावनात्मक पीड़ाओं का  भी सामना होगा। इसके विपरीत धनाढ़य लोग जितना अधिक निर्धनों एवं वंचितों का ध्यान रखेंगे उतना ही निर्धन व दरिद्र लोगों का जीवन बेहतर होगा।

 

ईश्वरीय धर्म इस्लाम की जीवनदायक शिक्षाओं में सामाजिक न्याय पर बहुत बल दिया गया है और इस्लाम ने समाज के लोगों के मध्य न्याय स्थापित करने के लिए बहुत प्रयास किया है। समाज के लोगों के मध्य न्याय स्थापित करने के लिए इस्लाम का एक आदेश रोज़ा है। रोज़ा रखने से ऐसी स्थिति उत्पन्न हो जाती है जिससे धनाढ़य लोग ग़रीबों व निर्धनों की स्थिति और उनके सामाजिक एवं आर्थिक दबावों को समझें और उनकी पीड़ाओं को कम करने का प्रयास करें। धनाढ़य लोगों के इस प्रयास से ग़रीब एवं वंचित  लोगों की समस्या कम होती है और उनमें  बंधुत्व एवं समरसता की भावना उत्पन्न होती है।

रोज़े का एक लाभ ग़रीब एवं वंचित लोगों के प्रति सहानुभूति की भावना को उत्पन्न करना है। जिन लोगों की ज़िन्दगी अच्छी है और उन्होंने निर्धनता एवं भूख-प्यास का स्वाद नहीं चखा है संभव है कि वे निर्धनों से निश्चेत रह जायें। रोज़ा वह चीज़ व साधन है जो धनाढ़्य लोगों को निश्चेतना से मुक्ति प्रदान करता है और उन्हें वंचितों की पीड़ाओं की याद दिलाता है ताकि धनाढ़्य लोग निर्धन व वंचित लोगों पर ध्यान दें और उनकी समस्याओं को दूर करने का प्रयास करें।

 

 

इमाम जाफर सादिक़ अलैहिस्सलाम के एक प्रसिद्ध कथन में आया है कि हेशाम बिन हेकम ने इमाम जाफर सादिक़ अलैहिस्सलाम से रोज़ा के रहस्य के बारे में पूछा तो इमाम ने उसके बारे में फरमाया” धनी –निर्धन के बीच समानता स्थापित करने के लिए रोज़ा अनिवार्य किया गया है और यह इस कारण है कि धनी, भूख का स्वाद चखे और निर्धन के प्रति अपने दायित्व को अदा करे क्योंकि धनी लोग जो चाहें उनके लिए उपलब्ध है और ईश्वर बंदों के मध्य समानता स्थापित करना चाहता है और भूख का स्वाद धनाढ़्य लोगों को चखाना चाहता है ताकि वे कमज़ोरों और भूखों पर दया करें।“

महान धार्मिक हस्तियों ने रवायतों और इस्लामी दुआओं में रमज़ान के पवित्र महीने का नाम समानता कहा है ताकि मुसलमान अपने दूसरे मुसलमान भाइयों की सहायता और उनके साथ भलाई करने का प्रयास करें। एक महीने तक रोज़ा रखने के अभ्यास से इंसान के अंदर समानता की भावना उत्पन्न होती है और ग़रीब – अमीर सब एक साथ मिल कर महान ईश्वर की नेअमतों से लाभान्वित होंते हैं।  इस्लाम धर्म में रोज़ा खोलने के लिए एक दूसरे विशेषकर वंचित व ग़रीब लोगों के आमंत्रित करने पर बहुत बल दिया गया है और यह कार्य स्वयं समाज में समरसता का सूचक है।

 

 

रोज़े का एक लाभ निर्धनों व वंचितों के प्रति सहानुभूति की भावना को जगाना है। वास्तव में रोज़े की भूख और प्यास ग़रीबों, निर्धनों व वंचितों की भूख- प्यास समझने का कारण बनती है। इस प्रकार धनी, निर्धन के निकट हो जाता है और भलाई व परोपकार अधिक हो जाता है और समाज के लोग एक दूसरे की सहायता करना सीखते हैं। जिन धनाढ़्य लोगों ने भूख और प्यास का स्वाद नहीं चखा है वे इस पवित्र महीने में वंचित लोगों के प्रति निश्चेतना की स्थिति से बाहर निकल जाते हैं। पैग़म्बरे इस्लाम ने रमज़ान के पवित्र महीने से पहले जो भाषण दिया था उसमें इस बिन्दु की ओर ध्यान आकर्षित किया है और फरमाया है” हे लोगो जो इस महीने में अपना व्यवहार अच्छा करे उसने पुले सेरात से गुज़रने का अनुमति पत्र तैयार कर लिया है वह भी उस दिन जब पैर लड़खड़ायेंगे। जो भी इस महीने में अपने अधीनस्थ लोगों के कार्यों को सरलता से लेगा यानी कड़ाई न करे तो ईश्वर प्रलय के दिन उसका हिसाब- किताब सरल लेगा। लोग जिस व्यक्ति के बुरा व्यवहार से सुरक्षित रहें तो ईश्वर प्रलय के दिन उसे अपने क्रोध से सुरक्षित रखेगा और जो व्यक्ति इस अवसर पर अनाथ का सम्मान करे तो ईश्वर प्रलय के दिन उसे सम्मानित करेगा और जो स्वयं को अपने निकट संबंधियों से जोड़े रखे तो ईश्वर प्रलय के दिन उसे अपनी कृपा से जोड़ देगा।“

 

पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहि व आलेहि व सल्लम रमज़ान और शाबान महीने की बरकतों के बारे में फरमाते हैं” शाबान का महीना मेरा महीना है और रमज़ान का महीना ईश्वर का महीना है और वह निर्धनों व वंचितों की बहार है।“

इसी कारण पैग़म्बरे इस्लाम का एक कार्य इस महीने में निर्धनों व वंचितों को दान देना था। हज़रत इमाम जाफर सादिक़ अलैहिस्सलाम भी निर्धनों व वंचितों की सहायता हेतु लोगों को प्रोत्साहित करते हुए कहते हैं” जो व्यक्ति रमज़ान के महीने में दान दे तो ईश्वर उसे ७० प्रकार की विपत्तियों से दूर रखेगा।“ इस आधार पर पैग़म्बरे इस्लाम के सच्चे अनुयाई इस महीने को वंचितों के लिए बहार में परिवर्तित करने का प्रयास करते हैं। वे अपने सच्चे दान से वंचितों के जीवन में खुशियां भर देते हैं और वे वंचितों व निर्धनों के चेहरों से दुःख व पीड़ा को दूर कर देते हैं।

 

 

रोज़ा इंसान में समाज के कमज़ोर वर्ग के साथ सहानुभूति व समरसता की भावना उत्पन्न करता है। रोज़ेदार अपनी कुछ देर की भूख - प्यास से अपनी भावना को विकसित कर लेता है और वह भूखे और प्यासे लोगों की स्थिति को बेहतर ढंग से समझता है और जिसने अपने अधीनस्थ लोगों के अधिकारों का हनन नहीं किया है और उनकी पीड़ाओं व समस्याओं से निश्चेत नहीं रहा है उसके जीवन में नया रास्ता खुल जाता है। निर्धन व वंचित इंसान के प्रति रोज़ेदार की सच्ची सहायता उसके बहुत से पापों के क्षमा होने का कारण बनता है। इसी तरह रोज़ेदार की निष्ठा से भरी सहायता उसके सद्कर्मों में रह गयी कमी की भरपाई कर देती है। एक रवायत में हज़रत अली अलैहिस्सलाम फरमाते हैं” निर्धन व वंचित लोगों की सहायता और दुःखी व परेशानी से ग्रस्त लोगों की समस्या का निदान, पापों को क्षमा करने के साधनों में से है। पवित्र कुरआन के सूरये हूद की तीसरी आयत में भी इस संबंध में आया है” अच्छा व भला कार्य इंसान के पापों के समाप्त होने का कारण बनता है।“ हज़रत इमाम सादिक़ अलैहिस्सलाम फरमाते हैं ईश्वर ने दाऊद पैग़म्बर को संदेश भेजा कि एक बंदे को एक अच्छाई पर मैं स्वर्ग में दाखिल करूंगा। दाऊद नबी ने पूछा वह कौन सी अच्छाई है? ईश्वर ने फरमाया वह मोमिन के दिल को खुश करना है चाहे एक खजूर के दाने से ही क्यों न हो।“

 

 

रमज़ान का पवित्र महीना और उसमें रोज़ा रखने का लोगों के लिए अलग -अलग लाभ है। रमज़ान के पवित्र महीने की अपनी आध्यात्मिक विशेषता के अतिरिक्त इस महीने में ग़रीबों व निर्धनों की सहायता करने की भावना में वृद्धि होती है। रोज़ा रखने का एक रहस्य निर्धनों, गरीबों, अनाथों, भूखों और प्यासों की सहायता है। क्योंकि जब इंसान भूखा - प्यासा होता है तो ग़रीबों और वंचितों की भूख –प्यास को बेहतर ढंग से समझता है और इस स्थिति में वह उनकी समस्याओं के निदान के लिए उत्तम ढंग से प्रयास करता है।

रमज़ान के पवित्र महीने में ग़रीबों और वंचितों की सहायता की बहुत सिफारिश की गयी है और दूसरी ओर रोज़े की भूख- प्यास वंचितों एवं परेशान व्यक्तियों की स्थिति के और बेहतर ढंग से समझने का कारण बनती है। इस प्रकार धनी, निर्धन के निकट हो जाता है और उसकी भावनाएं नर्म व कोमल हो जाती हैं और वह अधिक भलाई व उपकार करता है और समाज एक इंसान को दूसरे इंसान की सहायता को सीखाता है। इमाम हसन अस्करी अलैहिस्सलाम से पूछा गया कि रोज़ा क्यों वाजिब किया गया है? इसके जवाब में इमाम ने फरमाया ताकि धनी, भूख की पीड़ा को समझे और निर्धन पर ध्यान दे।“

 ARNOUD VAN DOORN वर्ष २०१३ में मुसलमान हो गया। वह ईश्वरीय शिक्षाओं की मिठास का अनुभव करने के बाद पहले से अधिक उसके आदेशों को पसंद करने लगा है। कई वर्षों से वह मुसलमानों के साथ रोज़ा रख कर रमज़ान के पवित्र महीने को व्यतीत करता है। रमज़ान का पवित्र महीना और रोज़ा उसके लिए अध्भुत अनुभव है। वह रोज़ा रखने के अपने पहले अनुभव को इस प्रकार बयान करता है” रमज़ान का पहला महीना मेरे लिए कठिनाइयों के मुकाबले में एक इंसान की शक्ति के स्पष्ट होने के समान था। यह ऐसी बात है जिसे मैंने इसके पहले नहीं समझा था। रमज़ान के पवित्र महीने में मैं ऐसी चीज़ का अनुभव कर रहा हूं जिसके बारे में इससे पहले लोगों से सुना था या किताबों में पढ़ा था कि मुसलमान भूख- प्यास और रोज़ा खोलने के बारे में क्या संयुक्त आभास रखते हैं पंरतु अब मैं इस आभास का स्वयं अनुभव कर रहा हूं।“

 

 

रमज़ान के पवित्र महीने का अर्थ केवल उसके लिए भूख- प्यास का सहन करना नहीं है वह रोज़े की हालत में विश्व के समस्त भूखे लोगों के बारे में सोचता है। जिन लोगों के पास खाने के लिए कुछ नहीं है। वह इस बारे में कहता है” मैं रोज़ा रखता हूं और उसके कुछ घंटों के बाद इफ्तार करता हूं यानी रोज़ा खोलता हूं किन्तु उसी समय मैं जानता हूं कि समूचे विश्व में ऐसे लोग भी हैं जो भूखे हैं और उन्हें इस बात की आशा भी नहीं है कि खाने के लिए कुछ मिल सकेगा। वास्तव में रोज़ा इस बात का कारण बनता है कि हम निर्धनों व ग़रीबों से सहानुभूति करें और उनकी कठिनाइयों को दूर करने का प्रयास करें।

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