पवित्र रमज़ान पर विशेष कार्यक्रम-१६
कुछ साल से पवित्र रमज़ान का महीना गर्मी के मौसम में पड़ रहा है इसलिए इन दिनों कुछ कारणों से रोज़े के दौरान ज़्यादा प्यास लगती है।
कुछ साल से पवित्र रमज़ान का महीना गर्मी के मौसम में पड़ रहा है इसलिए इन दिनों कुछ कारणों से रोज़े के दौरान ज़्यादा प्यास लगती है। इसका एक कारण गर्मी और दूसरा कारण गर्मी के दिनों का लंबा होना है। अलबत्ता कभी कठिनाई को सहन करने का अच्छा नतीजा भी मिलता है। जैसे गर्मी के मौसम में रोज़ा रखने से रोज़ेदार को बहुत पुन्य मिलता है। जैसा कि पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल लाहो अलैहि व आलेही व सल्लम फ़रमाते हैं, “सबसे अच्छा कर्म वह है जिसे अंजाम देने में सबसे ज़्यादा कठिनाई सहन करना पड़े।” जितना ज़्यादा किसी कर्म को अंजाम देने में कठिनाई सहन करनी पड़ेगी उतना ही ज़्यादा उसका बदला भी मिलता है।
गर्मी के रोज़े की अहमियत के बारे में पैग़म्बरे इस्लाम और उनके पवित्र परिजनों के कथनों में बहुत अनुशंसा की गयी है। प्रसिद्ध धर्मगुरु शैख़ सुदूक़ गर्मी के मौसम में रोज़ा रखने के पुन्य के बारे में इमाम जाफ़र सादिक़ अलैहिस्सलाम का एक कथन पेश करते हैं, “जो कोई गर्मी में एक दिन रोज़ा रखे तो ईश्वर हज़ार फ़रिश्तों को रोज़ेदार के चेहरे पर हाथ फेरने और उसे शुभ सूचना देने के लिए भेजता है। जिस समय वह रोज़ेदार इफ़्तार करता है तो ईश्वर कहता है, तुम्हारे पास से कितनी शुख़बू आ रही है। मेरे फ़रिश्तो! गवाह रहना मैंने उसे माफ़ कर दिया।” ईश्वर की ओर से बंदे के प्रति इस स्नेह पर क्या बंदे को उसका शुक्रिया नहीं अदा करना चाहिए।
हज़रत ईसा मसीह की मां हज़रत मरयम ने अपनी पूरी उम्र ईश्वर की उपासना और आधी रात के बाद की विशेष नमाज़ पढ़ने में गुज़ारी थी और वे अध्यात्म के बहुत ऊंचे स्थान पर थीं। हज़रत मरमय ने अपनी मौत के बाद हज़रत ईसा अलैहिस्सलाम के इस सवाल पर कि मां! क्या आप इस दुनिया में दुबारा लौटना चाहती हैं, कहा कि हां लौटना चाहती हूं ताकि ठंडी के मौसम की बहुत ठंडी रातों में नमाज़ पढ़ूं और गर्मी के मौसम में रोज़ा रखूं। मेरे बेटे रास्ता बहुत डरावना व ख़तरनाक है। यह हज़रत मरयम की ज़बान से निकली हुयी बात मोमिनों के लिए एक चेतावनी है और साथ साथ लक्ष्य का निर्धार्ण भी कि वे यह जान जाएं कि इस दुनिया में किस तरह परलोक के लिए तय्यारी करनी चाहिए और इस दुनिया में मिले मौक़े का किस तरह सही इस्तेमाल करना चाहिए।
पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल लाहो अलैहि व आलेही व सल्लम ने फ़रमायाः शुभ सूचना है उसके लिए जो ईश्वर के लिए भूखा और प्यासा रहे। ये लोग प्रलय के दिन भूख और प्यास महसूस नहीं करेंगे।
रोज़ेदार खान-पान का सही कार्यक्रम बनाकर दिन भर की प्यास के असर को कम कर सकते हैं। इफ़्तार के समय से सहर खाने तक 8 से 12 गिलास पानी पीने से दिन में प्यास कम महसूस होती है। इसी प्रकार पवित्र रमज़ान में रोज़े के दौरान प्यास से निपटने का एक तरीक़ा यह भी है कि सहरी में फल और सब्ज़ी ज़्यादा खाए। चूंकि इसमें प्यास से मुक़ाबला करने की अधिक क्षमता होती है और इनमें मौजूद फ़ायबर के कारण भूख भी देर से महसूस होती है।
सहरी खाने के बाद, टूथ पेस्ट कम मात्रा में लेकर ब्रश करने से भी मुंह देर में सूखता है। इसी प्रकार इफ़्तार करते वक़्त, कॉफ़ी और गहरे रंग की चाय के स्थान पर नींबू पानी या हल्के रंग की चाय पीना चाहिए।
14 शताब्दी पहले जब पूरे अरब में अज्ञानता फैली हुयी थी, पैग़म्बरे इस्लाम हज़रत मोहम्मद मुस्तफ़ा सल्लल लाहो अलैहि व आलेही व सल्लम ने फ़रमायाः “रोज़ा रखो ताकि स्वस्थ रहो।” विभिन्न धर्मों में भी रोज़ा रखने को आत्मिक व मानसिक स्वास्थय के लिए लाभदायक बताया गया है किन्तु रोज़ा रखने का फ़ायदा 19वीं शताब्दी से पहले से लोगों को पता नहीं था। इसके बाद शोधकर्ताओं ने रोज़ा रखने के फ़ायदों के बारे में रीसर्च की। जिससे वे इस नतीजे पर पहुंचे कि रोज़ा रखने से मुटापे, मिर्गी और डायबिटीज़ जैसी समस्याओं से छुटकारा मिल सकता है। रोचक बिन्दु यह है कि रोज़ा रखने के लाभ सिर्फ़ मुसलमान देशों तक सीमित नहीं हैं बल्कि दूसरे देशों ख़ास तौर पर यूरोपीय और अमरीकी देशों मे भी रोज़े को उपचार के एक उपाय के तौर पर देखा गया है। स्वीज़रलैंड, जर्मनी, ब्रिटेन और अमरीका में रोज़े से इलाज के बारे में शोध किए गए हैं और इस वक़्त कुछ अस्पतालों में रोज़े के ज़रिए भी इलाज किया जा रहा है।
रूसी चिकित्सक डाक्टर एलेक्सिस सोफ़रीन भी उन्हीं लोगों में शामिल हैं जिन्होंने रोज़े के ज़रिए उपचार का पता लगाया है और लोगों को रोज़े के ज़रिए उपचार का सुझाव देते हैं। वे कहते हैं, “रोज़े के वक़्त इंसान का शरीर खाद्य पदार्थ के बजाए शरीर के भीतरी पदार्थ को इस्तेमाल करता है। इस प्रकार जिस्म में मौजूद गंदे व संक्रमण फैलाने वाले पदार्थ को ख़त्म कर देता है जो सभी बीमारियों की जड़ है। इस प्रकार रोज़े से बहुत सी बीमारियों से शिफ़ा मिल सकती है। इस लिए अपने जिस्म को रोज़े के ज़रिए भीतर से पाक कीजिए।”
पवित्र रमज़ान नैतिक दृष्टि से व्यक्तिगत व सामाजिक सुधार के अभ्यास का बेहतरीन अवसर है। अगर मोमिन बंदा इस महीने में अपने व्यवहार पर ध्यान दे और नैतिकता को अपने वजूद में समो ले तो इस महीने के बाद भी वह उसी तरह का व्यवहार करने लगेगा। नैतिक विषयों में से एक महत्वपूर्ण विषय, लोगों का एक दूसरे के प्रति परस्पर अधिकार के सम्मान का विषय है। लोगों के एक दूसरे के प्रति परस्पर अधिकार अनेक प्रकार के हैं। जैसे दूसरों की जान-माल का सम्मान, परस्पर अधिकार की श्रेणी में आता है। इस अर्थ में कि किसी को किसी व्यक्ति को जानी या माली दृष्टि से नुक़सान पहुंचाने का अधिकार नहीं है। इसी प्रकार लोगों की इज़्ज़त का ख़्याल रखना भी परस्पर अधिकार की श्रेणी में आता है। अर्थात लोगों को एक दूसरे के साथ इस प्रकार व्यवहार करना चाहिए कि एक दूसरे की इज़्ज़त पर आंच न आए। इसलिए हर उस काम से बचे जिससे किसी का अपमान हो। जैसे किसी की बुराई करने और झूठा इल्ज़ाम लगाने से बचना। दूसरे के राज़ से पर्दा न उठाना। ये सब परस्पर अधिकार की श्रेणी में आते हैं।
लोगों के परस्पर अधिकार का सम्मान न करने का इंसान पर बुरा असर पड़ता है। पैग़म्बरे इस्लाम का कथन है कि ईश्वर इंसान के सभी पाप को क्षमा कर देगा सिवाए किसी व्यक्ति का किसी दूसरे व्यक्ति के अधिकार के हनन के पाप को। अगर किसी की गर्दन पर किसी का अधिकार बाक़ी है तो जब तक वह व्यक्ति उसका अधिकार अदा न कर दे या उसे राज़ी न कर ले उस वक़्त तक उसके सभी गुनाह माफ़ नहीं किए जाएंगे। चाहे इंसान कितने ज़्यादा रोज़े रखे या पूरी ज़िन्दगी आधी रात के बाद की विशेष नमाज़ पढ़े। इससे परस्पर अधिकार के हनन का पाप नहीं धुल सकता। लोगों के अधिकार के हनन का अंजाम इंसान को इस दुनिया में भुगतना पड़ता है। इस दुनिया में वह नाना प्रकार की बीमारियों व समस्याओं में घिरता है। परलोक में तो उसे ईश्वरीय प्रकोप का सामना करना ही पड़ेगा।
पैग़म्बरे इस्लाम का कथन है, शहीद के जिस्म से गिरने वाले ख़ून के पहले क़तरे से उसके सभी पाप क्षमा कर दिए जाते हैं सिवाए परस्पर अधिकार के और इससे लोगों के एक दूसरे के प्रति अधिकार की अहमियत का पता चलता है कि किसी व्यक्ति के शहादत जैसे उच्च स्थान पर पहुंचने के बावजूद मुमकिन है कि अगर उसकी गर्दन पर दूसरे के अधिकार के हनन का पाप है तो उसे क्षमा नहीं किया जाएगा। पवित्र रमज़ान का महीना लोगों के परस्पर अधिकारों के सम्मान करने का उचित अवसर है। जैसा कि पैग़म्बरे इस्लाम ने पवित्र रमज़ान की विशेषताओं के बारे में अपने भाषण में कहा है, “अगर कोई इस महीने में दूसरे के साथ कोई बुराई न करे तो परलोग में ईश्वर उसे अपने क्रोध से दूर रखेगा।”
बहुत से लोग रोज़ा रखते हैं वे रोज़ा रखने के कुछ दिन के भीतर इस बात को स्वीकार करते हैं कि गर्मी में रोज़ा रखना कठिन है लेकिन वे यह भी आभास करते हैं कि शरीर व मन पर रोज़े का अच्छा प्रभाव पड़ता है। यमन की 20 साल की लड़की ऐमा के इस बारे में विचार आपको सुनने मे रोचक लगेगा। वह अमरीका के शिकागो शहर में एक कॉलेज में पढ़ती हैं। वह कहती हैं, “मेरी नज़र में सुबह की नमाज़ के वक़्त से सूरज डूबने तक तीस दिन तक खाने पीने से दूर रहना, खान पान का एक सुव्यवस्थित कार्यक्रम है। इस सुव्यवस्थित कार्यक्रम का स्वास्थ्य पर अच्छा प्रभाव पड़ता है। आज बहुत से विद्वान इस प्रभाव को मान रहे हैं। लेकिन रोज़े का उद्देश्य इससे अधिक अहम है। रोज़ा पूरे एक पवित्र महीने के दौरान मन को पाक करने का एक साधन है। इस बात में शक नहीं कि रोज़ा रखने से दिनचर्या सुव्यवस्थित हो जाती है। विशेष समय पर खाने से हाथ रोक लेना, विशेष वक़्त पर इफ़्तार करना, ज़िन्दगी में अनुशासन की अहमियत का पता देता है। पहली बार जब मैंने रोज़ा रखा मेरे ग़ैर मुसलमान दोस्तों ने एक रेस्तरेंट में इफ़्तार करने का प्रस्ताव रखा। मैंने उसे क़ुबूल नहीं किया। बाद में मैंने समझा कि इस प्रतिरोध की शक्ति को ज़िन्दगी के किसी दूसरे चरण में भी इस्तेमाल कर सकती हूं और यह मेरे लिए रोज़े का पहला फ़ायदा था।” ऐमा परिवार के सदस्यों को एक साथ बैठने और उन्हें आपस में समन्वित करने में रोज़े की भूमिका को अहम मानती हैं। वह कहती हैं, “जब सहरी और इफ़्तार के वक़्त एक दस्तरख़ान पर साथ में बैठते हैं, तो परिवार के सदस्यों के बीच विशेष लगाव पैदा होता है और इससे हमें एक दूसरे को बेहतर ढंग से समझने का मौक़ा मिलता है।”