पवित्र रमज़ान पर विशेष कार्यक्रम-१९
इस पवित्र महीने के अंतिम दिनों का एक विशेष स्थान है और इस संबंध में पैग़म्बरे इस्लाम (स) और उनके परिजनों ने विशेष दुआओं का उल्लेख किया है।
इस पवित्र महीने के अंतिम दिनों का एक विशेष स्थान है और इस संबंध में पैग़म्बरे इस्लाम (स) और उनके परिजनों ने विशेष दुआओं का उल्लेख किया है। पैग़म्बरे इस्लाम ने फ़रमाया है, रमज़ान एक ऐसा महीना है, जिसका आरम्भ रहमत, मध्य क्षमादान और अंत दुआओं की स्वीकृति एवं नरक से मुक्ति दिलाना है। वास्तव में पहले दस दिनों में ईश्वर की रहमत नाज़िल होती है, दूसरे दस दिनों में ईश्वर अपने बंदों की तोबा स्वीकार करता है और अंतिम दस दिनों में लोगों को रोज़े और इबादतों का नतीजा मिलता है।
अंतिम दस दिनों में पैग़म्बरे इस्लाम (स) दुनिया से अपना संबंध तोड़कर मस्जिद में एतकाफ़ किया करते थे अर्थात मस्जिद में रहकर उपासना में लीन रहते थे। हज़रत एतकाफ़ को काफ़ी महत्व देते थे और फ़रमाते थे कि जो कोई भी रमज़ान में दस दिन तक एतकाफ़ करेगा उसे दो हज और दो उमरे का सवाब मिलेगा।
पैग़म्बरे इस्लाम (स) ने पहले रमज़ान के पहले दस दिनों का, उसके बाद दूसरे दस दिनों और अंततः अंतिम दस दिनों का एतकाफ़ के लिए चयन किया और उसके बाद अंतिम आयु तक अंतिम दस दिनों में एतकाफ़ करते रहे। जैसे ही रमज़ान के अंतिम दस दिन निकट होते थे पैग़म्बरे इस्लाम (स) अपना बिस्तर लेते थे और मस्जिद में रहकर अपना समस्त समय इबादत में गुज़ारते थे।
इमाम सादिक़ (अ) ने फ़रमाया है कि रमज़ान की 19वीं रात भाग्य का निर्धारण, 21वीं रात पुष्टि और 23वीं रात एक वर्ष के भाग्य की स्वीकृति की रात है। अर्थात इबादतों का फल रमज़ान के अंतिम दस दिनों में हासिल होता है। इसलिए फसल काटते समय मोमिनों को ध्यान रखना चाहिए। हालांकि रमज़ान का पूरा महीना ही पवित्र और महत्वपूर्ण है, लेकिन उसके अंतिम दस दिनों के महत्व की उपेक्षा नहीं की जानी चाहिए।
शेख़ कुलैनी ने इमाम सादिक़ (अ) के हवाले से रमज़ान के अंतिम दस दिनों में पढ़ी जाने वाली इस दुआ का उल्लेख किया है, मैं तेरी ज़ात की महानता की शरण चाहता हूं, इससे कि रमज़ान का महीना गुज़र जाए या इस रात का सूर्य उदय हो जाए और तेरे निकट मेरा कोई पाप बाक़ी रह जाए और तू मुझे उसकी सज़ा दे। इसी प्रकार एक अन्य दुआ में उल्लेख है कि हे ईश्वर रमज़ान में जो हक़ हमारी गर्दनों पर रहा हो उसे अदा कर दे और इस महीने में इबादत में जो कमी हमसे हुई है उसके लिए हमें क्षमा कर दे, हमें ऐसे लोगों में शामिल कर जिन पर तेरी कृपा है न कि ऐसे लोग जिनसे तू नाराज़ है।
पैग़म्बरे इस्लाम (स) ने शाबान के महीने के अंतिम शुक्रवार को रमज़ान के महत्व का उल्लेख करते हुए फ़रमाया, हे लोगो, जो कोई भी रमज़ान के महीने में मुस्तहब नमाज़ पढ़ेगा, ईश्वर उसे नरक की आग से मुक्ति प्रदान करेगा। जो कोई रमज़ान में वाजिब नमाज़ अदा करेगा उसे 70 वाजिब नमाज़ों का सवाब दिया जाएगा।
मोमिन बंदा जब वाजिब नमाज़ों में ईश्वर से दुआ का स्वाद चख लेता है तो अपने पालनहार से अधिक संपर्क रखने के लिए मुस्तहब नमाज़े पढ़ता है। वह अपने पालनहार को राज़ी रखने के लिए मुस्तहब नमाज़ों का उपहार पेश करता है। जैसा कि इमाम रज़ा (अ) ने फ़रमाया है, मुस्तहब नमाज़ों को सुन्दरता के साथ अदा करो और ध्यान रखो कि यह महान ईश्वर के लिए उपहार हैं।
मुस्तहब नमाज़ों में नमाज़े शब बहुत महत्वपूर्ण है। क़ुराने मजीद में उल्लेख है, जो लोग नींद से उठते हैं, अपने पालनहार को पुकारते हैं और जो कुछ हमने उन्हें प्रदान किया है उसे ख़र्च करते हैं। इमाम बाक़िर (अ) फ़रमाते हैं कि इस आयत में उन लोगों की ओर संकेत किया गया है कि जो रातों में जागते हैं और नमाज़े शब के लिए अपने गर्म बिस्तरों को छोड़ देते हैं। उस समय क़ुराने मजीद ऐसे मोमिनों को शुभ सूचना देते हुए मूल्यवान उपहार की सूचना देता है, किसी को नहीं पता कि जो काम उसने अंजाम दिया है उसके बदले में कितना महत्वपूर्ण उपहार उसे दिया जाएगा।
हदीसे क़ुदसी में मुस्तहब नमाज़ों के बारे में उल्लेख है कि, मेरा बंदा किसी चीज़ के प्रति, उस चीज़ से अधिक मित्रता का इज़हार नहीं करता है जो मैंने उस पर वाजिब की है और वह मुस्तहब नमाज़ों के साथ मेरे पास आता है, ताकि मैं भी उसे अपना दोस्त समझूं। जब मैं उसे अपना दोस्त रखता हूं तो मैं उसका कान बन जाता हूं कि जब वह सुनता है, उसकी आँख बन जाता हूं कि जब वह देखता है, जब वह बोलता है तो उसकी ज़बान बन जाता हूं, जब उसे नुक़सान पहुंचता है तो उसका हाथ बन जाता हूं और जब चलता है तो उसके पैर बन जाता हूं। जब वह मुझसे दुआ मांगता है तो मैं उसे पूरा करता हूं और अगर मुझसे कुछ मांगता है तो उसे प्रदान करता हूं।
धर्मगुरूओं ने इस हदीस की विभिन्न व्याख्याएं की हैं। बिहारुल अनवार किताब के लेखक अल्लामा मजलिसी कहते हैं, बंदा इस प्रकार ईश्वरीय नैतिकता में रचबस जाता है कि ईश्वर उसके निकट इतना महबूब बन जाता है और वह अपने इरादे और निर्णय को भूल जाता है और अपनी इच्छाओं की उपेक्षा करता है, सिवाए उसके कि जो ईश्वर को पसंद है। वह ईश्वर की इच्छा के अलावा कुछ नहीं सुनता है। वह कोई भी ऐसा काम नहीं करता है जो उसे ईश्वर के निकट न ले जाए। वह ईश्वर की इच्छा के विपरीत किसी मार्ग पर आगे नहीं बढ़ता है।
कई वर्षों से रमज़ान मुबारक गर्मियों मं पड़ रहा है। गर्म मौसम और दिनों के लम्बा होने के कारण गर्मियों में रोज़ा रखना थोड़ा कठिन होता है। कुछ देशों में तापमान 45 ड्रिगी सेल्सियस से भी ऊपर है। लेकिन यह सब रमज़ान में रोज़ा रखने के मुसलमानों के इरादे को कमज़ोर नहीं करते है।
इस गर्मी में रोज़ा रखना और आग के निकट काम करने के लिए बहुत धैर्य की ज़रूरत है, ऐसा धैर्य जो हिदायतुल्लाह और मोहम्मद के पास है।
29 वर्षीय हिदायतुल्लाह एक नानवायी अर्थात रोटी पकाने वाला है, जब वह रोटी को तनूर में लगाता है तो पसीने की बूंदे उसके माथे पर चमकने लगती हैं। उसका कहना है कि रोज़े में जब तनूर की आग की तपिश आपके चेहरे पर लगती है और होंट सूख जाते हैं तो बहुच कठनियाई होती है, लेकिन रोज़े की बरकतें विशेष रूप से इस प्रकार की परिस्थितियों में बहुत अधिक हैं।
36 वर्षीय मोहम्मद जिस परिस्थिति में काम करता है उस समय उसके निकट जाना भी बहुत मुश्किल है। वह एक भट्टी के किनारे 1 हज़ार 500 ड्रिग्री सेंटिग्रेड पर काम करता है। अधिक तापमान ने उसके चेहरे की त्वचा को काला कर दिया है। मोहम्मद का कहना है, जब आप इतने अधिक तापमान में भट्टी के सामने जाते हैं तो आपका मन एक घूंट ठंडा पानी पीने के लिए करता है। इस परिस्थिति में अगर कोई चीज़ आपको रोज़ा रखने के लिए प्रेरित करती है तो वह यह है कि आपको कोई देख रहा है जिसकी प्रसन्नता के लिए ऐसी परिस्थिति में आप पानी को होंटों के निकट नहीं ले जा रहे हैं।
एक इमारत का निर्माण कार्य चल रहा है और उस्ताद असद उसके गर्म ढांचे पर वैल्डिंग में व्यस्त हैं। तपते सूर्य के नीचे उस्ताद असद के काम का वातावरण इतना गर्म है कि सिर चकराने लगता है, लेकिन वह ख़ुद इस गर्मी की ओर कोई ध्यान दिए बिना लोहे की रॉड पर बैठकर वैल्डिंग में व्यस्त हैं।
वे इस कठिन परिस्थिति में रोज़ा रखते हैं और कहते हैं, सही है कि इस परिस्थिति में रोज़ा रखना एक कठिन कार्य है, लेकिन असंभव नहीं है। इस मौसम में रोज़ा रखना ईश्वर की ऐसी कृपा है जो वह अपने बंदे पर करता है, ताकि बंदा यह समझ सके कि इच्छा ही शक्ति प्रदान करती है।
रमज़ान के महीने में रोज़ा रखने वालों का यह साहस देखकर पैग़म्बरे इस्लाम (स) की यह हदीस याद आती है कि गर्मी में रोज़ा रखना जेहाद है।
ईरान के दर्शनशास्त्री ग़ुलाम हुसैन दीनानी कहते हैं, गर्मी के मौसम में रोज़ा रखना आसान नहीं है, लेकिन इस कठिनाई को सहन करने से इंसान उत्कृष्टता प्राप्त करता है। अतः रमज़ान में रोज़ा रखना और इबादत करना एक कठिन कार्य है, लेकिन इस कठिनाई को सहन करके इंसान कल्याण प्राप्त करता है।