पवित्र रमज़ान पर विशेष कार्यक्रम-२८
इस्लाम धर्म ने मस्जिद में जाने की बहुत अधिक सिफ़ारिश की है।
इस्लाम धर्म ने मस्जिद में जाने की बहुत अधिक सिफ़ारिश की है। पैग़म्बरे इस्लाम हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम का कथन है कि हमेशा ही दृढ़ निश्चय वाले लोग मस्जिद में मौजूद रहते हैं और ईश्वर के फ़रिश्ते उनके साथ उठते-बैठते हैं। जब वे मस्जिद में नहीं होते तो फ़रिश्ते उनके बारे में पूछते रहते हैं, जब वे बीमार पड़ते हैं तो उन्हें देखने जाते हैं और यदि उन्हें अपने कामों में मदद की ज़रूरत होती है तो वे उनकी मदद करते हैं।
नमाज़े जमात में लोग एक पंक्ति में खड़े होते हैं और जाति, भाषा, वर्ण, व्यवसाय और इसी प्रकार की दूसरी सभी विशेषताएं किनारे चली जाती हैं और निष्ठा, मानव प्रेम व स्नेह जैसी भावनाएं दिलों में जीवित हो जाती हैं। उपासना की पंक्ति में एक दूसरे से मिल कर ईमान वालों में आशा, शक्ति और एकता की भावना पैदा होती है। नमाज़े जमात, एकता, हृदयों के निकट आने और बंधुत्व की भावना मज़बूत होने की भूमिका है। मस्जिद में उपस्थिति एक प्रकार की निष्ठापूर्ण मुलाक़ात है जो सामाजिक सहयोग का मार्ग भी प्रशस्त करती है। इस सामाजिक सहयोग को अस्तित्व में लाने हेतु मुसलमानों को प्रेरित करने के लिए बहुत सी हदीसें मौजूद हैं। एक स्थान पर कहा गया है कि यदि नमाज़े जमात में इमाम के अतिरिक्त केवल एक व्यक्ति हो तो उनकी हर रकअत का पुण्य, डेढ़ सौ नमाज़ों के बराबर है और अगर दो व्यक्ति हों तो यह पुण्य छः सौ नमाज़ों के बराबर होता है और नमाज़ पढ़ने वालों की संख्या जितनी बढ़ती जाती है, पुण्य भी उतना ही बढ़ता जाता है और यदि उनकी संख्या दस से अधिक हो जाए तो अगर सभी आसमान काग़ज़ बन जाएं, समुद्र सियाही बन जाएं, पेड़ क़लम बन जाएं और मनुष्य, जिन्न और फ़रिश्ते लिखने वाले बन जाएं तब भी वे उस जमात की एक रकअत का पुण्य या सवाब नहीं लिख सकते।
सौभाग्य से रमज़ान के पवित्र महीने में लोगों को विशेष सामर्थ्य प्राप्त होता है और हर व्यक्ति की कोशिश होती है कि मस्जिद में जा कर जमाअत से नमाज़ पढ़े। इस पवित्र महीने के शुरू होते ही मस्जिदों में विशेष कार्यक्रम आयोजित होते हैं। नमाज़े जमाअत के अतिरिक्त, क़ुरआन पढ़ने और धार्मिक आदेशों के वर्णन जैसे प्रशैक्षिक कार्यक्रम, मस्जिद के आध्यात्मिक वातावरण को और अधिक बढ़ा देते हैं। रोज़ा रखने वाले लोग कोशिश करते हैं कि अधिक से अधिक मस्जिद में उपस्थित हो कर जमात से नमाज़ पढ़ें और धार्मिक भाषणों व प्रवचनों को सुनें और अपनी आत्मा को शुद्ध करें।
क़ुरआने मजीद की आयतों और पैग़म्बरे इस्लाम के पवित्र परिजनों के कथनों के अनुसार, निष्ठा धर्म का आधार और उसका मज़बूत ढांचा है। ईश्वर, क़ुरआने मजीद में पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम को संबोधित करते हुए कहता है कि कह दीजिए कि मेरा दायित्व है कि ऐसी स्थिति में ईश्वर की उपासना करूं कि मैंने उसके लिए अपने धर्म को शुद्ध बना लिया हो। शिष्टाचार एवं नैतिक शिक्षाओं के विशेषज्ञ निष्ठा को उस शुद्ध दूध की भांति बताते हैं जिसमें किसी भी प्रकार की कोई मिलावट व गंदगी न हो बल्कि वह पूरी तरह से स्वच्छ और पवित्र हो। निष्ठापूर्ण नीयत और कर्म भी ऐसा ही होता है जिसमें ईश्वर के अतिरिक्त कोई भावना नहीं होती। निष्ठ लोग वे हैं जो अपने पालनहार के अतिरिक्त किसी से भी कोई आशा नहीं रखते और उनका मन व कर्म एक समान होता है। वे कर्म करने से न तो पछताते हैं और न ही थकते हैं। उनके लिए लोगों की सराहना या आलोचना एक समान होती है।
निष्ठा का विपरीत बिंदु दिखावा है जिसका अर्थ यह है कि मनुष्य इस नीयत से कर्म करता है कि लोग उसे देखें और सराहना करें तथा उनकी इस सराहना से उसे ख़ुशी हो। दिखावा, लोगों को बहकाने के लिए शैतान के अत्यंत प्रभावी साधनों में से एक है। वह सराहना के प्रति लोगों के स्वाभाविक आकर्षण से ग़लत लाभ उठाता है और उन्हें आत्ममुग्धता, व स्वार्थ और लोगों के विदित कर्मों को ही देखने के अंधेरे कुंए में ढकेल देता है। शैतान, दिखावे के माध्यम से लोगों के कर्मों को दूषित एवं अकारथ करने के लिए बहुत प्रयास करता है। कभी वह मनुष्य को इस प्रकार उकसाता है कि वे बहुत धीरे, धीमे और गिड़गिड़ा कर नमाज़ पढ़े ताकि वहां उपस्थित लोग उसे बड़ा सद्कर्मी और मोमिन समझें। कभी यह उकसावा अधिक गुप्त ढंग से होता है और ईश्वर के आज्ञापालन के रूप में सामने आता है। जैसे वह कहता है कि तुम एक प्रतिष्ठित व्यक्ति हो, लोग तुम पर दृष्टि रखते हैं अतः अगर तुम अपनी नमाज़ और अन्य कर्मों को सुंदर बनाओगे तो वे भी ऐसा ही करेंगे और तुम उनके पुण्य में सहभागी हो जाओगे। कभी शैतान का उकसावा इससे भी अधिक जटिल होता है, जैसे वह नमाज़ी से कहता है कि नमाज़े जमात न पढ़ो क्योंकि संभव है कि इससे तुम्हारी नीयत में निष्ठा न रह जाए अतः केवल घर में नमाज़ पढ़ो। खेद की बात है कि ऐसे लोग कम नहीं हैं जो शैतान के इस प्रकार के उकसावों में फंस कर ऐसे बहुत से कर्म छोड़ देते हैं जिन्हें करने पर धर्म ने बहुत अधिक बल दिया है।
रमज़ान का पवित्र महीना हमें इस बात का अवसर प्रदान करता है कि रोज़े की विभूतियों से लाभ उठाने के साथ ही अन्य कर्मों में भी निष्ठा लाने का अभ्यास करें ताकि हमारे कर्मों में तनिक भी दिखावा न रहे। रोज़ा एकमात्र ऐसी अनिवार्य उपासना है जिसमें दिखावे की संभावना नहीं है क्योंकि इसमें निर्धारित समय में खाने-पीने से दूर रहना होता है और यह दूसरों की आंखों से बड़ी सरलता से दूर रह सकता है। हां अगर कोई अपनी ज़बान से ही रोज़ा रखने की बात स्वीकार कर ले तो यह अलग बात है। पैग़म्बरे इस्लाम की सुपुत्री हज़रत फ़ातेमा ज़हरा अलैहस्सलाम रोज़े के बारे में कहती हैं। ईश्वर ने निष्ठा को अधिक मज़बूत बनाने के लिए रोज़े को अनिवार्य किया है।
एक दिन पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम के साथी अबू ज़र ग़ेफ़ारी काबे के निकट यह सोचने लगे कि चुप रहने का कोई फ़ायदा नहीं है बेहतर होगा कि मैं लोगों को उपदेश दूं। जो लोग सत्य को समझ चुके हैं उन्हें बोलना चाहिए क्योंकि पैग़म्बर और ईश्वर के प्रिय बंदे लोगों के मार्गदर्शन के लिए आए हैं और यह मार्गदर्शन कथनी और करनी दोनों के साथ होना चाहिए। इस समय लोग मस्जिदुल हराम में एकत्र हैं और मुझे पहचानते हैं और मेरी बातें सुनते हैं अतः बेहतर होगा कि मैं इस अवसर को प्रयोग करूं। यह सोच कर वे उठे और ऊंची आवाज़ में बोले। हे लोगो! मैं जुनादा ग़ेफ़ारी का पुत्र जुंदब हूं। अपने शुभ चिंतक एवं कृपालु भाई के पास आओ ताकि मैं तुम्हें कुछ नसीहतें करूं। लोग उनके पास एकत्र हुए और बड़ी उत्सुकता से पैग़म्बर के इस वफ़ादार साथी की बात सुनने की प्रतीक्षा करने लगे। वे कह रहे थे, हे अबू ज़र! हमें नसीहत करो।
अबू ज़र ने, जब अवसर को उचित देखा तो अपने मन में सोचा कि किस चीज़ के बारे में बात करें? नमाज़ के बारे में? रोज़े के बारे में? या फ़िर जेहाद के बारे में? अंततः उन्होंने निर्णय किया कि लोगों से उस चीज़ के बारे में बात करें जो उन्हें अच्छाइयों की ओर ले जाए अर्थात प्रलय के बारे में किंतु उनसे किस प्रकार बात की जाए? मैं किस प्रकार बात आरंभ करूं कि उनके हृदय मेरी बात स्वीकार करने के लिए तैयार हो जाएं? उनके मन में आया कि चूंकि ये लोग अधिक यात्रा करते हैं और सदैव कारवां में चलते हैं तो इसी चीज़ से बात आरंभ की जाए क्योंकि उनका मन इस बात से परिचित है। यह सोच कर उन्होंने लोगों से पूछाः हे लोगो! अगर तुममें से कोई यात्रा करने वाला हो तो क्या वह इतनी मात्रा में आवश्यक सामान साथ ले जाएगा जो उसे गंतव्य तक पहुंचा दे? सभी ने कहाः हां जो कुछ भी आवश्यक हो हम साथ लेंगे ताकि सुरक्षा के साथ मंज़िल तक पहुंच जाएं।
अबू ज़र ने अपनी बात आगे बढ़ाते हुए कहाः हे लोगो! प्रलय की यात्रा सबसे लम्बी यात्रा है तो फिर इस यात्रा के लिए आवश्यक सामान क्यों नहीं तैयार करते? लोगों ने कहाः हे अबू ज़र! इस यात्रा के लिए हम कौन सी चीज़ें और क्या सामान तैयार करें? उन्होंने कहाः हज करो, प्रलय के लम्बे और गर्म दिन में आराम के लिए रोज़ा रखो, प्रलय के दिन के लिए रात के अंधेरे में नमाज़ पढ़ो, स्वयं को क़ब्र के भय से सुरक्षित रखने के लिए अच्छी बातें करो, बुरी बातों से दूर रहो, इस प्रकार के बनो ताकि प्रलय के दिन तुम्हें कल्याण प्राप्त हो। हे लोगो! इस संसार में दो बैठकों का चयन करो, पहली बैठक हलाल रोज़ी की प्राप्ति के लिए हो और दूसरी बैठक प्रलय में तुम्हारे कल्याण के लिए हो और जान लो कि इसके अतिरिक्त कोई भी तीसरी बैठक तुम्हारे लिए हानिकारक होगी। हे लोगो! अपने माल को दो भागों में बांट दो, एक अपने परिवार के ख़र्चे के लिए और दूसरा अपने परलोक के लिए और जान लो कि तीसरा भाग तुम्हारे अहित में होगा। हे लोगो! इस दुनिया को दो घड़ी का समझो, एक घड़ी गुज़र चुकी है और तुम उसे लौटा नहीं सकते और दूसरी वह घड़ी जो अभी आई नहीं है और तुम्हें इसका विश्वास भी नहीं है कि उसके आने तक तुम जीवित रहोगे। तो फिर अपने वर्तमान पर ध्यान दो। इस घड़ी को उचित अवसर समझो और कोशिश करो कि ईश्वर की अवज्ञा न करो, पाप न करो अन्यथा तुम तबाह हो जाओगे।