पैग़म्बरे इस्लाम (स) का स्वर्गवास और इमाम हसन की शहादत
पैग़म्बरे इस्लाम हज़रत मुहम्मद मुस्तफ़ा अपने स्वर्गवास से पहले इस्लाम को परिपूर्ण धर्म के रूप में मानवता के सामने पेश कर चुके थे।
पैग़म्बरे इस्लाम हज़रत मुहम्मद मुस्तफ़ा अपने स्वर्गवास से पहले इस्लाम को परिपूर्ण धर्म के रूप में मानवता के सामने पेश कर चुके थे। उन्होंने कहा था कि मुझको नैतिकता को उच्च स्थान तक पहुंचाने के लिए भेजा गया है। जिस समय पैग़म्बरे इस्लाम इस नश्वर संसार में आए उस समय अरब जगत में अज्ञानता का अंधेरा छाया हुआ था। ईश्वर के बारे में उस समय के अरब लोगों के विचार अंधविश्वासों पर आधारित थे। वे लोग ज्ञान से बहुत दूर थे। उस काल में महिलाओं को कोई विशेष महत्व प्राप्त नहीं था।
पैग़म्बरे इस्लाम ने अपने जीवन में अथक प्रयास करते हुए अज्ञानता से संघर्ष किया और उस काल में व्याप्त अंधविश्वासों और कुरीतियों को दूर करने के लिए अन्तिम समय तक प्रयास किये। अपने पहले संदेश में पैग़म्बरे इस्लाम ने ज्ञान के महत्व को समझाते हुए ज्ञान अर्जित करने पर बल दिया। उन्होंने लोगों को एकेश्वर की उपासना का निमंत्रण दिया।
वास्तव में ईश्वर द्वारा उसके दूतों को भेजने का मूल उद्देश्य यह था कि मनुष्यों का ध्यान इस ओर आकृष्ट कराया जाए कि महान ईश्वर के अतिरिक्त किसी उन्य की उपासना नहीं करनी चाहिये। पैग़म्बरे इस्लाम ने जिस एकेश्वरवाद की आधारशिला रखी उसमें प्रेम और ईमान जैसे रत्न हैं। पैग़म्बर द्वारा बताया गया ईमान एसा ईमान है जो मनुष्य के दिल में होता है और वह सही दिशा में मनुष्य का मार्गदर्शन करता है। ईश्वर के अन्तिम दूत पैग़म्बरे इस्लाम, दया व कृपा की प्रतिमूर्ति थे। महान ईश्वर ने उन्हें पूरे संसार के लिए दया व कृपा का आदर्श बताया है। जिन लोगों ने वर्षों, पैग़म्बरे इस्लाम (स) से शत्रुता की थी पैग़म्बरे इस्लाम ने उन्हें माफ कर दिया। इस प्रकार पैग़म्बरे इस्लाम ने हर प्रकार की हिंसा, अन्याय, भेदभाव और पक्षपात का विरोध किया और सबके साथ समान व्यवहार किया। पैग़म्बरे इस्लाम की कृपा और उनकी दया केवल उनके परिवार वालों या मानने वालों तक ही सीमित नहीं थी बल्कि इससे अन्य धर्मों के मानने वाले भी लाभान्वित होते थे। इस्लाम धर्म को भलिभांति पहचानने का एक मार्ग, पैग़म्बरे इस्लाम के जीवन का अध्ययन है। पवित्र क़ुरआन में पैग़म्बरे इस्लाम (स) को मानवता के लिए आदर्श के रूप में बताया गया है।
पवित्र क़ुरआन में अंतिम ईश्वरीय दूत की विभिन्न विशेषताओं का उल्लेख किया गया है और विभिन्न अवसरों पर उनके बारे में बताया गया है। ईश्वरीय संदेश में पैग़म्बरे इस्लाम के आज्ञापालन को ईश्वर के आज्ञापालन और उनकी अवज्ञा को ईश्वर की अवज्ञा की संज्ञा दी गई है। पवित्र क़ुरआन अनेक आयतों में पैग़म्बरे इस्लाम के व्यक्तित्व व शिष्टाचार की प्रशंसा करता है।
इतिहास इस बात का साक्षी है कि इस्लाम इतने कम समय में जो विश्व के कोने-कोने में फैल गया उसका मुख्य कारण पैग़म्बरे इस्लाम का व्यक्तित्व था। इस प्रकार कहा जा सकता है कि मुसलमान, पैग़म्बरे इस्लाम के जीवन का अनुसरण करके लोक-परलोक में कल्याण प्राप्त कर सकता है। पैग़म्बरे इस्लाम के दृष्टिगत समाज वह है जिसके सभी सदस्य एकेश्वरवाद के आधार पर एक-दूसरे से भाईचारा रखें। इस आदर्श समाज में भाईचारे की भावना प्रवाहित होगी और इसके सारे सदस्य एक दूसरे से एसे मिलेंगे जिससे एकता को बल मिले। पैग़म्बरे इस्लाम का कथन है कि प्रेम, मित्रता और दया में ईमान वाले एक शरीर के अंगों की भांति हैं। जब कोई अंग किसी समस्या के कारण पीड़ा में होता है तो यह पीड़ा अन्य अंगों को निश्चित रूप से प्रभावित करती है। एकता का पाठ सिखाने वाले पैग़म्बरे इस्लाम का एक क़दम यह है जो उन्होंने मक्के पर विजय प्राप्त करने के बाद उठाया। आपने कहा था कि हर मुसलमान, मुसलमान का भाई है। उसे अपने भाई पर अत्याचार नहीं करना चाहिए। अपने भाई को अपमानित नहीं करना चाहिए और उसके साथ कभी भी विश्वासघात नहीं करना चाहिए।
पैग़म्बरे इस्लाम ने एकता व एकजुटता को प्रबल बनाने के लिए नस्लभेद और जातिवाद को पूर्ण रूप से नकार दिया। इस्लाम ने जातिवाद और नस्लभेद से संघर्ष किया और कहा है कि केवल तक़वा या ईश्वरीय भय ही श्रेष्ठता का एकमात्र मापदंड है। उन्होंने नस्लभेद को समाप्त और एकता को मज़बूत करने के लिए बेलाले हब्शी और सलमान फ़ारसी को सम्मान दिया ताकि जातिवाद और नस्लभेद का अंत हो तथा ईश्वरीय व धार्मिक मूल्यों के पालन को सामाजिक महत्व प्राप्त हो।
पैग़म्बरे इस्लाम के बड़े नवासे हज़रत इमाम हसन अलैहिस्सलाम का भी शहादत दिवस है। पैग़म्बरे इस्लाम के स्वर्गवास के 40 वर्षों के बाद सन 50 हिजरी क़मरी को आज ही के दिन इमाम हसन अलैहिस्सलाम शहीद हुए थे।
इमाम हसन अलैहिस्सलाम, हज़रत अली और हज़रत फ़ातेमा के बड़े बेटे थे। अपने जीवन के आठ वर्ष उन्होंने अपने नाना पैग़म्बरे इस्लाम के साथ व्यतीत किये थे। पैग़म्बरे इस्लाम से उन्होंने बहुत कुछ सीखा था। कभी-कभी ऐसा भी होता था कि जिस समय पैग़म्बरे इस्लाम पर वह्य नाज़िल होती थी उस समय इमाम हुसैन भी वहां पर हुआ करते थे। इन आयतों को वे अपनी माता हज़रत फ़ातेमा को सुनाया करते थे। इमाम हसन के बारे में कहा जाता है कि उनका व्यक्तित्व उनकी चाल-चलन सबकुछ पैग़म्बरे इस्लाम से मिलता-जुलता था। वे लोगों में बहुत अधिक दान-दक्षिणा किया करते थे जिसके कारण उन्हें करीमे अहलैबैत भी कहा जाता है। करीम का अर्थ होता है अधिक दान-दक्षिणा करने वाला।
अपने पिता इमाम अली की शहादत के बाद इमाम हसन ने ईश्वर की ओर से लोगों के मार्गदर्शन का दायित्व संभाला था। जिस समय इमाम हसन ने यह ईश्वरीय दायित्व संभाला उस समय इस्लामी समाज बहुत ही संवेदनशील चरण से गुज़र रहा था। अपने एक संबोधन में इमाम हसन अलैहिस्सलाम ने पैग़म्बरे इस्लाम को, वास्तविकता को स्पष्ट करने वाले द्वीप की संज्ञा दी थी। उन्होंने स्पष्ट शब्दों में कहा था कि वे पैग़म्बरे इस्लाम के मार्ग पर चलेंगे।
इमाम हसन के ईश्वरीय पद पर आसीन होने से माविया बहुत क्रोधित हुआ। सीरिया पर शासन करने वाले माविया ने इमाम हसन से मुक़ाबला करने की योजना बनाई। वह विभिन्न बहानों से इमाम हसन को क्षति पहुंचाने के प्रयास में लगा रहता था। इमाम हसन ने माविया को संबोधित करते हुए कहा था कि वह अपनी ग़लत हरकतें छोड़ दे। इस्लामी जगत का विशाल भाग इमाम हसन के शासन के अधीन था किन्तु इस दौरान मोआविया की ओर से निरंतर विध्वंसक कृत्य किए जा रहे थे जो सीरिया का तत्कालीन शासक था। माविया की ओर से अवज्ञा और विध्वंसक कृत्य के कारण युद्ध छिड़ने की नौबत आ गई थी और इमाम हसन अलैहिस्सलाम ने भी युद्ध के लिए सेना तैयार कर ली थी किन्तु इस्लामी समाज की उस समय की स्थिति के दृष्टिगत इमाम हसन अलैहिस्सलाम ने युद्ध करने में संकोच से काम लिया। इसी समय माविया ने इमाम हसन अलैहिस्सलाम को शांति संधि का प्रस्ताव दिया और इमाम हसन अलैहिस्सलाम ने भविष्य को देखते हुए उस प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया।
शांति का प्रस्ताव स्वीकार करने के बाद इमाम हसन अलैहिस्सलाम ने एक भाषण में कहा था कि इस समय युद्ध, मुसलमानों के हित में नहीं है। इसके बाद उन्होंने सूरए अंबिया की आयत संख्या 111 पढ़ी जिसके अनुसार शांति समझौता, लोगों की परीक्षा और उनके हित में है। इमाम हसन अलैहिस्सलाम इस बात को भलिभांति समझ चुके थे कि उद्देश्य की प्राप्ति, सैन्य मार्ग से संभव नहीं है। इमाम हसन का उद्देश्य शुद्ध इस्लाम की रक्षा करना और उसे कुरीतियों से सुरक्षित करना था। ऐसे में इमाम के सामने माविया से संधि करने के सिवा कोई अन्य मार्ग नहीं था। यही कारण था कि वे सत्ता से हट गए ताकि इस्लामी जगत को और गंभीर ख़तरों से बचाया जाए। इमाम हसन अलैहिस्सलाम ने अपने इस क़दम से यह दर्शा दिया कि वे सत्तालोलुप नहीं हैं क्योंकि ये सब उच्च उद्देश्य तक पहुंचने के साधन मात्र हैं।
पैग़म्बरे इस्लाम की शिक्षाओं को जीवित रखना और धर्म की रक्षा करना इमामों का मुख्य उद्देश्य रहा है। शासन का गठन करना, असत्य के ख़िलाफ़ उठ खड़े होना, शांति संधि करना और मौन इन सबके पीछे इमाम का उद्देश्य इस्लाम की रक्षा तथा पैग़म्बरे इस्लाम के आचरण को जीवित करना था। जब परिस्थिति ऐसी हुईं कि असत्य के ख़िलाफ़ उठ खड़े होना ज़रूरी हो गया तो वे उठ खड़े हुए और फिर उन्होंने मौत से टक्कर ली। यदि परिस्थिति ऐसी होतीं कि शांति संधि से इस्लाम की रक्षा हो सकती थी तो वे संधि करते थे। इमाम हसन अलैहिस्सलाम के काल में इस्लामी समाज की स्थिति इतनी संवेदनशील हो गयी थी कि माविया से जंग करने के परिणाम में इस्लाम के मिट जाने का ख़तरा मौजूद था।
इमाम हसन की गतिविधियों से माविया बहुत चिंतित था। उसने इनको रुकवाने के लिए बहुत प्रयास किये किंतु सफल नहीं हो सका। अंततः उसने इमाम हसन अलैहिस्सलाम की हत्या करने की योजना बनाई। इस प्रकार माविया ने एक षडयंत्र के अन्तर्गत सन 50 हिजरी क़मरी को इमाम को ज़हर दिलवाया जिसके कारण आज ही के दिन वे शहीद हो गए।