Aug ३०, २०२३ १८:३७ Asia/Kolkata
  • भारत पर मंडराते संप्रदायिकता के काले बादल! दीमक की तरह संविधान को खोखला करता नफ़रती टोला, लेकिन अभी भी बाक़ी है आशा की किरण

लगभग एक दशक का समय बीत रहा है तब से भारत में सांप्रदायिकता, राजनीति के केंद्र में आ गई। आधुनिक भारत के मंदिर बनाने की बजाए मस्जिदों के नीचे मंदिर खोजे जाने लगे। इससे सामाजिक विकास की प्रक्रिया बाधित हुई है और विकास का सिलसिला थम सा गया है। लेकिन दिलचस्प बात यह है कि इसी दौर में सबका साथ सबका विकास का नारा सबसे ज़्यादा ज़ोर और शोर से लग रहा है।

पंद्रह दिन पहले ही 15 अगस्त को भारत ने अपने 77वां स्वाधीनता दिवस मनाया। यह एक मौक़ा है जब हमें इस मुद्दे पर आत्मचिंतन करना चाहिए कि हमारी राजनीति आख़िर किस दिशा में जा रही है। आज से 76 साल पहले भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरु ने दिल्ली के लालकिला की प्राचीर से अपना ऐतिहासिक भाषण दिया था। उस समय देश बंटवारे से जनित भयावह हिंसा की चपेंट में था और ब्रिटिश शासकों की लूट के चलते आर्थिक दृष्टि से बदहाल था। भारत के स्वाधीनता संग्राम ने केवल ब्रिटिश औपनिवेशिक सत्ता का विरोध नहीं की बल्कि भारत के लोगों को एक मंच पर लाने का महत्वपूर्ण काम भी किया था। उन्हें भारतीय की एक साझा पहचान के धागे से एक सूत्र में बंधा। संविधान सभा ने एक अभूतपूर्व ज़िम्मेदारी का निर्वहन किया। उसने भारत के लोगों की महत्वाकांक्षाओं और भावनाओं को समझा और उन्हें देश के संविधान का हिस्सा बनाया। भारत का संविधान एक शानदार दस्तावेज़ है। उसी ने आधुनिक भारत के निर्माण की नींव भी रखी। नेहरू की नीतियों का लक्ष्य था आधुनिक उद्यमों और संस्थानों की स्थापना। भाखड़ा नंगल बांध के निर्माण की शुरुआत करते हुए नेहरु ने स्वतंत्रता के बाद देश में स्थापित किए जा रहे वैज्ञानिक शोध संस्थानों, इस्पात और बिजली के कारखानों और बांधों को “आधुनिक भारत के मंदिर बताया”था। उनका लक्ष्य भारत को वैज्ञानिक और औद्योगिक प्रगति की राह पर अग्रसर करना था। देखते ही देखते भारत आधुनिक देश बनने की राह पर चल पड़ा। औद्योगिकरण हुआ, आधुनिक शैक्षणिक संस्थाएं स्थापित की गईं, स्वास्थ्य के क्षेत्र में प्रगति हुई और परमाणु और अंतरिक्ष सहित विज्ञान के लगभग सभी क्षेत्रों में शोध कार्य प्रारंभ हुआ। यह एक बेजोड़ और कठिन यात्रा थी जो 1980 के दशक तक जारी रही।

इस बीच सन् 1980 के दशक में भारत को प्रतिगामी ताक़तों ने अपनी चंगुल में लेना शुरू कर दिया। देखते ही देखते सांप्रदायिकता, राजनीति के केन्द्र में आ गई। भारत की सरकारें अल्पसंख्यकों का तुष्टिकरण करने लगीं और सांप्रदायिक राष्ट्रवाद को बढ़ावा मिलने लगा। ‘आधुनिक भारत के मंदिर’निर्मित करने की बजाए हम मस्जिदों के नीचे मंदिर खोजने लगे। मस्जिदों को गिराना और उन्हें नुक़सान पहुंचाना एक बड़ा मक़सद बन गया। इससे सामाजिक विकास की प्रक्रिया बाधित हुई और आम लोगों को न्याय सुलभ करवाने और उनके जीवन को समृद्ध बनाने का सिलसिला रूक गया। मंदिर की राजनीति के कारण जो हिंसा हुई उससे समाज ध्रुवीकृत हुआ और राजनीति में सांप्रदायिक ताक़तों का दबदबा बढ़ने लगा। मुसलमानों के अलावा ईसाईयों के ख़िलाफ़ भी हिंसा शुरू हो गई और जैसे-जैसे सांप्रदायिक हिंसा बढ़ती गई वैसे-वैसे सांप्रदायिक ताक़तें भी शक्तिशाली होती गईं। मंदिर के बाद गाय राजनैतिक परिदृश्य पर उभरी। मुसलमानों और दलितों की लिंचिंग होने लगी। घर वापसी का सिलसिला शुरू हुआ और लव जिहाद के मिथक का उपयोग मुस्लिम युवकों को निशाना बनाने के साथ-साथ लड़कियों और महिलाओं के अपने निर्णय स्वयं लेने के अधिकार को सीमित करने के लिए भी किया गया।

सामाजिक विकास की दिशा पलट गई। आर्थिक सूचकांकों में गिरावट आने लगी, भुखमरी का सूचकांक बढ़ने लगा और धर्म, अभिव्यक्ति और प्रेस की स्वतंत्रता को सीमित किया जाने लगा। सार्वजनिक क्षेत्र के बेशक़ीमती उद्यमों को सत्ताधारियों के चहेतों को मिट्टी के मोल बेचा जाने लगा। सत्ता के क़रीबी कई अरबपति जनता के पैसे चुराकर विदेश भाग गए। ग़रीबों और अमीरों के बीच की खाई और चौड़ी होने लगी। इसके साथ ही भारतीय संविधान को बदलने की मांग, जो कुछ धीमी पड़ गई थी, फिर से ज़ोर-शोर से उठाई जाने लगी। न्याय के नाम पर बुलडोज़रों का इस्तेमाल किया जाने लगा। अब समस्या केवल राजनीति के क्षेत्र तक सीमित नहीं रह गई है। बल्कि समाज के हर वर्ग में नफ़रत का बोलबाला है। स्कूलों में छोटे-छोटे बच्चों में एक दूसरे के लिए नफ़रत पैदा की जाने लगी है। इस मुख्य कारण यह है कि हिंसा करने वाले और नफ़रत फैलाने वाले बेखौफ़ हैं। इसकी वजह उन्हें सरकारी तंत्र का मिलता पूरा समर्थन है। ऐसे समय में आशा की एकमात्र किरण वे सामाजिक संगठन और समूह हैं जो हिंसा पीड़ितों के अधिकारों की रक्षा कर रहे हैं।

कुल मिलाकर हम आज एक ऐसे चौराहे पर खड़े हैं। जहां हर ओर से नफ़रत के रास्तों को आगे बढ़ाने वालों की लंबी-लंबी लाईनें लगी हुई हैं।  अब तो राजनैतिक पार्टियों को भी यह एहसास हो गया है कि नफ़रत की नींव पर खड़ी सांप्रदायिक विचारधारा कितनी ख़तरनाक है। वे संविधान और प्रजातांत्रिक मूल्यों की रक्षा के लिए साझा मंच बनाने को तैयार हो गए हैं। भारत जोड़ो अभियान की तरह की कई पहल हुई हैं जो शांति और सद्भाव का संदेश फैला रही हैं। कर्नाटक में जो हुआ उससे यह साबित होता है कि प्रजातंत्र को बचाया जा सकता है और जो लोग भारत के स्वाधीनता संग्राम सेनानियों के सपनों को ज़िंदा रखना चाहते हैं, उन्हें अवसाद में डूबने की ज़रूरत नहीं है। इस समय विभिन्न विघटनकारी ताक़तें देश को नफ़रत से दूर करने वालों और मोहब्बत का संदेश आम करने वालों पर हमलावर हैं। वे भारत के संविधान को अपने रास्ते में बाधा मानते हैं। उनका एजेंडा एक ऐसे देश का निर्माण करना है जिसमें आम आदमी की आवाज़ अनसुनी ही रह जाएगी। हम केवल उम्मीद कर सकते हैं कि आने वाले समय में मानवीय मूल्यों को बढ़ावा मिलेगा और हर व्यक्ति चाहे उसका धर्म, जाति या लिंग कुछ भी हो, सम्मान और गरिमा के साथ अपना जीवन जी सकेगा। और सभी की मूलभूत आवश्यकताएं पूरी होंगी। क्योंकि ऐसी ही भारत की कल्पना इस देश की आज़ादी के लिए अपना बलिदान देने वाले वीरों ने की थी। (RZ)

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