Oct १८, २०२३ १७:३० Asia/Kolkata
  • अब समझ में आया कि कर्बला में 72 क्यों थे? क्रूर शासकों के दबाव में पहले भी इंसानियत के मददगार को अकेला छोड़ा जा चुका है

इस्लाम एक ऐसा धर्म है जो किसी धर्म की बुराई करने से रोकता है। इस्लाम ने हमेशा अधर्मियों के विरुद्ध मार्चा खोला है। पवित्र क़ुरआन में अल्लाह यह आदेश देता है कि किसी के झूठे ख़ुदाओं को भी बुरा न कहो। साथ ही इस्लाम किसी भी बेगुनाह की हत्या को भी पूरी तरह इंसानियत के ख़िलाफ़ काम मानता है।

इस्लाम इंसानियत का संदेश देता है। अल्लाह ने पवित्र क़ुरआन में कहा है कि सदैव इस बात का ध्यान रखो कि यदि कोई परेशान है, तो उसकी मदद ज़रूर करें। पड़ोसी का विशेष ध्यान दें। वह इंसानों में से नहीं हो सकता, जो बेगुनाहों का ख़ून बहाता है। ऐसे लोग न तो इंसान हैं और न ही इस्लाम के मानने वाले। इस बात में कोई शक नहीं है कि शिक्षा व संस्कार जिसमें होंगे, उसमें इंसानियत ज़रूर होगी। ऐसे में हम सभी की ज़िम्मेदारी है कि अपने बच्चों को बेहतर शिक्षा के साथ-साथ अच्छे संस्कार भी दें। जो लोग बेगुनाहों का ख़ून बहाते हैं, उन्हें इंसानियत के दायरे में नहीं रखा जा सकता है। कोई भी मज़हब बेगुनाहों का ख़ून बहाने की इजाज़त नहीं देता है। ऐसे में जो लोग ऐसा कार्य करते हैं, उनका किसी भी मज़हब से संबंध नहीं है। अल्लाह ने पवित्र क़ुरआन में कहा है कि कभी इंसानियत का साथ मत छोड़ना। जिसने भी इंसानियत का साथ छोड़ा, वह कभी ईश्वर का क़रीबी नहीं हो सकता। 1400 साल पहले कर्बला के मैदान में भी पैग़म्बरे इस्लाम (स) के प्राण प्रिय नवासे हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम जब इंसानियत की मदद के लिए आगे आए तो उस समय के ज़ालिम और क्रूर शासक यज़ीद ने आदेश दिया कि जो कोई भी हुसैन इब्ने अली की मदद करेगा, उनका समर्थन करेगा और उनका साथ देगा उसको सरकार की ओर से सज़ा दी जाएगी। यज़ीद के आदेश का असर यह हुआ कि कर्बला के मैदान में हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम अपने 72 साथियों के साथ शहीद हो गए और उनके परिजनों को क़ैदी बना लिया गया।

यह सब बयान करने का उद्देश्य यह है कि जब हम आजके हालात पर नज़र डालते हैं तो हम देखते हैं कि आतंकी और अत्याचारी अवैध शासन इस्राईल जो लगातार इंसानियत की हत्या कर रहा। मासूम बच्चों का ख़ून बहा रहा है, उसके साथ दुनिया के ज़्यादातर देश खड़े हैं। वहीं फ़िलिस्तीन की मज़लूम जनता के साथ ईरान समेत कुछ ही देश और सच्चे मन से मानवता से प्रेम करने वाले लोग ही खड़े हुए हैं। वहीं बहुत सारे लोग ऐसे हैं जो फ़िलिस्तीन के समर्थन में आवाज़ उठाना चाहते हैं लेकिन जिस तरह 1400 वर्ष पहले वे लोग जो यह जानते थे कि हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम सत्य पर हैं लेकिन क्रूर और अत्याचारी शासक यज़ीद के आदेश की वजह से ख़ामोश बैठ गए थे, वैसे ही आज भी ऐसे लोग हैं जो आज के क्रूर और अत्याचारी शासकों के आदेश की वजह से डरकर घरों में ख़ामोश बैठे हुए हैं। इसकी एक मिसाल भारत में भी देखी जा सकती है जहां सरकारी आदेशों के बाद फ़िलिस्तीन में हो रहे इंसानियत को शर्मसार कर देने वाले अपराधों पर बहुत बड़ी-बड़ी हस्तियां, संगठन और आम लोग भी केवल इस डर से चुप्पी साधे हुए हैं कि कहीं सरकार उनके ख़िलाफ़ कोई कार्यवाही न कर दे। यही हाल कुछ अरब देशों का भी है वह इस डर से ख़ामोश तमाशाई बने हुए हैं कि कहीं अमेरिका उनपर हमला न कर दे।

ख़ैर दुनिया की यह रस्म बन चुकी है ज़ालिमों के आगे घुटने टेकना और मज़लूम का साथ छोड़ देना, लेकिन आज भी हुसैनी किरदार रखने वाले ज़िन्दा हैं जो अपना सब कुछ न्योछावर कर देने का साहस भी रखते हैं और ज़ालिमों से मुक़ाबले की हिम्मत भी। यही कारण है कि आज भी फ़िलिस्तीन जो कि इस्लामी दुनिया का मुख्य मुद्दा है उसके लिए आवाज़ उठाने वाले और अपना सब कुछ क़ुर्बान करे देने वाले वहीं हैं, जिनकी परवरिश आशूरा आंदोलन के साए में हुई है। क्योंकि इमाम हुसेन ने इंसानियत का पैग़ाम दिया। उन्होंने ज़ालिम बादशाह के आगे सिर झुकाने की बजाय सिर कटा दिया। ऐसा कर उन्होंने यह संदेश दिया कि इंसानियत को बचाने के लिए यदि शहादत देनी पड़े, तो इससे पीछे न हटें (RZ)   

लेखक- रविश ज़ैदी, वरिष्ठ पत्रकार। ऊपर के लेख में लिखे गए विचार लेखक के अपने हैं। पार्स टुडे हिन्दी का इससे समहत होना ज़रूरी नहीं है।       

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