इलाक़े में विदेशियों ने मचाई है भारी तबाही, अरबों डाॅलर हुए ख़र्च फिर नहीं हुई शांति, इलाक़े में कैसे हो सकती है शांति
अमेरिका ने पश्चिम एशिया में सैनिक हस्तक्षेप के लिए सात हज़ार अरब डॉलर यानी सात ट्रिलियन डालर खर्च किया परंतु उसका यह हस्तक्षेप क्षेत्र में अधिक अशांति व अस्थिरता का कारण बना।
यही नहीं स्वंय अमेरिका को विभिन्न प्रकार की चुनौतियों का सामना करना पड़ा। अफगानिस्तान, इराक और सीरिया में होने वाली घटनाओं और हमलों से पहले क्षेत्र में अमेरिका के लगभग 60 से 80 हज़ार सैनिक मौजूद थे। वर्ष 2019 में अमेरिका ने पश्चिम एशिया में 25.5 अरब डालर का हथियार बेचा था। सवाल यह उठता है कि पश्चिम एशिया में अमेरिका के हित क्या हैं? वह पश्चिम एशिया में इतना अधिक हस्तक्षेप क्यों करता है?
उसका एक जवाब यह है कि एक समय में अमेरिका का सबसे महत्वपूर्ण और बुनियादी हित तेल था परंतु वर्तमान समय में प्रतीत यह हो रहा है कि पश्चिम एशिया का तेल अमेरिका के लिए कोई विशेष महत्व नहीं रखता और ऊर्जा ज़रूरतों की दृष्टि से वह स्वाधीन हो गया है जबकि कुछ विशेषज्ञ बल देकर कहते हैं कि अभी भी अमेरिका को पश्चिम एशिया के तेल की ज़रूरत है। वर्ष 2001 में अमेरिका पश्चिम एशिया से प्रतिदिन लगभग 28 लाख बैरेल तेल का आयात करता था जबकि 2019 में प्रतिदिन लगभग 16 लाख बैरेल तेल का आयात करता था।
अलबत्ता में अमेरिका में तेल की क़ीमत पश्चिम एशिया की स्थिति से प्रभावित होती है परंतु उसका प्रभाव अधिक सीमित हो रहा है। क्योंकि पूरी दुनिया में जो तेल इस्तेमाल होता है उसका 21 प्रतिशत भाग हुर्मुज़ स्ट्रैट से होकर गुज़रता है और फार्स की खाड़ी में जो भी घटना घटती है उसका प्रभाव तेल की अंतरराष्ट्रीय मंडी पर पड़ता है। कुल मिलाकर दस साल पहले की तुलना में अब अमेरिका को पश्चिम एशिया की ऊर्जा आवश्यकता की सुरक्षा व महत्व कम हो गया है परंतु अमेरिका के लिए अब भी पश्चिम एशिया विशेष महत्व रखता है। दुनिया के तेल का 21 प्रतिभाग आज भी हुर्मुज़ स्ट्रैटे से होकर गुज़रता है और पश्चिम एशिया में तेल का उत्पादन करने वाले देश दुनिया में कुल निर्यात होने वाले तेल के एक तिहाई भाग की आपूर्ति करते हैं।
ऊर्जा और तेल से हटकर देखें तो पश्चिम एशिया में इस्राईल की सुरक्षा अमेरिका के लिए एक महत्वपूर्ण विषय है। क्योंकि अमेरिका के लिए पश्चिम एशिया में जायोनी शासन सबसे भरोसेमंद घटक है। पश्चिम एशिया में अमेरिका का एक महत्वपूर्ण लक्ष्य क्षेत्र के देशों विशेषकर सऊदी अरब की रक्षा है। क्योंकि सऊदी अरब क्षेत्र में अमेरिका का वह घटक देश है जो वाशिंग्टन की हां में हां मिलाने वाला और उसकी नीतियों को क्रियान्वित करने वाला मुख्य देश है परंतु प्रतीत यह है कि इस संबंध में अमेरिकी नीति में कोई विशेष ठहराव व स्थिरता नहीं है। मिसाल के तौर पर वर्ष 2019 में जब सऊदी अरब के तेल प्रतिष्ठानों पर हमला हुआ तो सऊदी अरब में प्रतिदिन तेल का निर्यात 57 लाख बैरेल प्रतिदिन कम हो गया। उस मौक़े पर अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने कहा था कि यह हमला अमेरिका पर नहीं बल्कि सऊदी अरब पर हआ था।
अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने इसी प्रकार वर्ष 2019 में सीरिया से अमेरिकी सैनिकों के निकाल लेने की बात कही थी। ट्रंप की इस बात का अमेरिकी कांग्रेस में दोनों पार्टियों ने विरोध किया था और उनका मानना था कि ट्रंप के इस फैसले का अर्थ क्षेत्र में अमेरिकी घटकों के साथ विश्वासघात करना है। अमेरिका के रिपब्लिकन सिनेटर रांड पॉल का मानना है कि अमेरिका की ग़लत नीतियां और सीमा से अधिक सीरिया संकट में अमेरिकी हस्तक्षेप, पश्चिम एशिया आतंकवादियों के अस्तित्व में आने और उनकी शरण स्थली में परिवर्तित होने का कारण बना है। वह सीरिया में आतंकवादी गुट दाइश के लिए अमेरिकी हथियारों को भेजे जाने को इस गुट की मज़बूती का एक कारण बताते हुए कहते हैं कि दाइश सीरिया में हमारा घटक था। हम दमिश्क सरकार के वफादार सैनकों को पीछे ढ़कलने के लिए अर्ध सैनिकों को हथियार देते थे और हमने सीरिया में उन लोगों के लिए सुरक्षित ठिकाना बनाया। मेरा मानना है कि सीरिया में हमारा हस्तक्षेप इराक में जारी स्थिति का कारण बना।
रोचक बात है कि सीरिया संकट वर्ष 2011 में आरंभ हुआ जबकि इराक संकट 2003 से आरंभ हुआ था और वह भी अमेरिकी हमले का नतीजा था। बहुत से जानकार हल्कों का मानना है कि सामूहिक विनाश के हथियार होने के बहाने अमेरिका ने इराक पर जो हमला किया था वह बहुत सी समस्याओं व कठिनाइयों का जनक था और आतंकवादी गुट की उपज अमेरिका के इसी हमले का परिणाम है। अमेरिका की पूर्व विदेशमंत्री हिलेरी क्लिंटन ने कहा था कि दाइश को हमने यानी अमेरिका ने बनाया है।
अमेरिकी रक्षामंत्रालय पेंटागन में खुफिया विभाग के पूर्व प्रमुख माइकल टी फ्लेन ने भी अलजज़ीरा के साथ वार्ता में घोषणा की है कि दाइश में वृद्धि और उसकी मज़बूती सीरिया में अमेरिका द्वारा विद्रोहियों के समर्थन का परिणाम है। यह वास्तविकतायें इस बात की सूचक हैं कि अमेरिका स्वंय का परिचय विश्व में शांति व सुरक्षा स्थापित कराने वाले के देश के रूप में करता है जबकि वास्तविकता बिल्कुल इसके विपरीत है और वह अपने क्रिया कलापों से विश्व में अशांति व अराजकता उत्पन्न करता है जिसकी आड़ में वह अपने राजनीतिक हितों को साधने की चेषटा करता है।
ईरान की इस्लामी क्रांति के सर्वोच्च नेता आयतुल्लाहिल उज़्मा सैयद अली ख़ामनेई से तीन साल पहले रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतीन ने तेहरान में मुलाक़ात की थी जिसमें सर्वोच्च नेता ने पश्चिम एशिया में अमेरिका की विफलताओं की ओर संकेत करते हुए कहा था कि अरब देशों मिस्र और ट्यूनीशिया में जो स्थिति उत्पन्न हुई थी और उससे जो आघात पहुंचा था अमेरिकी उस स्थिति का लाभ सीरिया में उठाना चाह रहे थे ताकि जो क्षति उठानी पड़ी है उसकी भरपाई वे सीरिया की कानूनी सरकार को गिराकर उठा सकें परंतु इस समय उन्हें पूरी तरह पराजय का मुंह देखना पड़ा है। इसी प्रकार ईरान की इस्लामी क्रांति के सर्वोच्च नेता ने कहा था कि अमेरिका पर लगाम लगाई जा सकती है और यह कार्य संभव है। सर्वोच्च नेता ने कहा था कि अमेरिका मानवता के लिए एक ख़तरा है।
इसी प्रकार इस्लामी क्रांति के सर्वोच्च नेता ने तुर्की के राष्ट्रपति रजब तय्यब अर्दोग़ान के साथ मुलाकात में भी इस बात पर बल दिया था और कहा था कि इस्लामी देशों के बीच एकता व एकजुटता क्षेत्रीय समस्याओं के समाधान की भूमिका है और इसी कारण विश्व साम्राज्य उनमें सर्वोपरि अमेरिका इस्लामी देशों के बीच निकट सहयोग और एक इस्लामी शक्ति के गठन से चिंतित है।
बहरहाल कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि क्षेत्र विशेषकर पश्चिम एशिया से अमेरिका का निष्कासन क्षेत्रीय समस्याओं के समाधान की भूमिका है। क्योंकि बहुत से जानकार हल्कों का मानना है कि क्षेत्र की बहुत सी समस्याओं का कारण क्षेत्र में अमेरिकी उपस्थिति का परिणाम है। इन हल्कों का मानना है कि अगर क्षेत्र में अमेरिका की उपस्थिति न होती तो पश्चिम एशिया में बहुत सी समस्यायें अस्तित्व में ही न आतीं।
अफ़ग़ानिस्तान के हालात इस बात के सूचक हैं कि डेमोक्रेसी का आयात दूसरे देशों से नहीं किया जा सकता। दूसरे शब्दों में पश्चिम और अमेरिकी डेमोक्रेसी का कोई खरीदार नहीं है। अगर पश्चिम और अमेरिकी डेमोक्रेसी का कोई ग्राहक होता तो वहां पर तालेबान अपनी इच्छा की सरकार स्थापित न करते। अमेरिकी सैनिक जो आतंकवाद का मुकाबला करने और शांति व सुरक्षा स्थापित करने के बहाने आये थे अपने किसी भी लक्ष्य को हासिल न कर सके। यही नहीं न केवल अफगानिस्तान में शांति व सुरक्षा स्थापित नहीं हुई बल्कि जब तक अमेरिकी व विदेशी सैनिक अफगानिस्तान में मौजूद थे हज़ारों अफगान नागरिक मारे गये। मारे जाने वालों में बच्चे और महिलायें भी शामिल हैं।
यहां इस बात का उल्लेख ज़रूरी है कि जो देश या जो सरकारें अमेरिका पर भरोसा करती हैं उनका परिणाम जगज़ाहिर है। एक समय था जब इराक के पूर्व तानाशाह सद्दाम को पश्चिमी देशों और अमेरिका का समर्थन प्राप्त था पर उन्हीं पश्चिमी देशों ने सददाम की तानाशाही सरकार का अंत कर दिया। इसी तरह ट्यूनीशिया, और मिस्र जैसे कुछ देशों में अमेरिका और पश्चिम की समर्थक सरकारें थीं परंतु इन देशों में आने वाली जनक्रांतियों ने वहां के शासकों को उखाड़ फेंका और अमेरिकी समर्थन इन शासकों के कोई लाभ न पहुंचा सका।
यही नहीं अमेरिका और पश्चिम का सऊदी अरब और संयुक्त अरब इमारात जैसे देशों से बड़े मधुर व घनिष्ठ संबंध हैं जबकि इन देशों में डेमोक्रेसी नाम की कोई चीज़ भी नहीं है जबकि अमेरिका और पश्चिम स्वंय को डेमोक्रेसी का प्रतीक समझते हैं। इन देशों में जो सरकारें हैं उनके क्रियाकलापों पर अमेरिका और पश्चिमी देश कभी भी न तो आपत्ति करते हैं और न ही कभी वहां डेमोक्रेटिक स्थापित करने की बात करते हैं। अगर वास्तव में अमेरिका और पश्चिमी देश डेमोक्रेसी के दावे में सच्चे हैं तो सऊदी अरब और संयुक्त अरब इमारात जैसे देशों में डेमोक्रेसी की बात क्यों नहीं करते?
वास्तविकता यह है कि अमेरिका और पश्चिमी देशों को डेमोक्रेसी से कोई लेना- देना है उन्हें केवल उनके हितों से प्रेम हैं। रोचक बात यह है कि सऊदी अरब और संयुक्त अरब इमारात वे देश हैं जिन्होंने मानवाधिकार के हनन में किसी प्रकार के संकोच से काम नहीं लिया है। सऊदी अरब की अगुवाई में बने गठबंधन के पाश्विक हमलों में अब तक दसियों हज़ार यमनी मारे हो चुके हैं। सऊदी अरब और संयुक्त अरब इमारात न केवल ग़रीब देश यमन के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप कर रहे हैं बल्कि वर्ष 2015 से यमन के खिलाफ अपने पाश्विक हमलों को जारी रखे हैं और मानवाधिकार की रक्षा का दम भरने वाले देश कभी भी इन हमलों की न तो भर्त्सना करते हैं और न ही यमनी लोगों विशेषकर महिलाओं और बच्चों की हत्या की निंदा करते हैं। यही नहीं मानवाधिकार की रक्षा का दम भरने वाले देश यमन पर हमला करने वाले देश यानी सऊदी अरब और संयुक्त अरब इमारात को आधुनिकतम हथियारों से लैस भी करते हैं।
बहरहाल इस्लामी गणतंत्र ईरान ने अपने व्यवहार से दर्शा और सिद्ध कर दिया है कि अतिवाद और आतंकवाद से मुकाबले में उसने किसी प्रकार के प्रयास में न तो संकोच से काम लिया है और न लेगा और वह अफगानिस्तान सहित क्षेत्र के हर देश में शांति व सुरक्षा की स्थापना के लिए अनवरत प्रयास कर रहेगा। ईरान कभी भी युद्ध और हिंसा का समर्थक व पक्षधर नहीं रहा है और जब भी ज़रूरी हुआ उसने अतिवादी और अशांति उत्पन्न करने वाले तत्वों से मुकाबला किया। सारांश यह कि क्षेत्र में अशांति, असुरक्षा और आतंकवाद के विस्तार का मूल कारण अमेरिका है और जब तक पश्चिम एशिया में वह उपस्थित रहेगा तब तक इस क्षेत्र में शांति व सुरक्षा स्थापित नहीं हो सकती।