Oct २०, २०२१ १४:५६ Asia/Kolkata

किसी भी राष्ट्र की महानता और महिमा उसकी एकता और एकजुटता पर निर्भर करती है।

इस्लाम की महान हस्ती और आत्मा पैग़म्बरे इस्लाम हज़रत मोहम्मद मुस्तफ़ा सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही वसल्लम लोगों की भावनाओं और उनके जज़्बात का संगम बन गए हैं और उनके दिल को छू लेने वाले शब्दों ने दुनिया भर में एकता को यादगार बना दिया है। पैग़म्बरे इस्लाम (स) ने विभिन्न तरीक़ों से एकता के बीच में आने वाली बधाएं, जैसे नस्लीय भेदभाव, वर्चस्वाद और जातीयता विभिन्न तरीक़ों से समाप्त कर दिया और सामान्य अर्थों में समाज में एकता को स्थापित किया है।

अज्ञानता में डूबा हुआ अरब समाज किसी भी शासकीय क़ानून और राजनीतिक मानदंडों की कमी के कारण उथल-पुथल और अराजकता का शिकार था। ऐसी स्थिति में पैग़म्बरे इस्लाम (स) ने मदीना शहर में मौजूद क़बीलों और समूहों को अपनी सूझबूझ और उचित उपायों से अपनी छत्रछाया में इकट्ठा किया। हम एकता सप्ताह के अवसर पर पेश किए जाने वाले विशेष कार्यक्रम की आजकी कड़ी में पैग़म्बरे इस्लाम (स) द्वारा मुसलमानों के बीच एकता और एकजुटता के लिए उठाए गए उन कुछ क़दमों के बारे में बात करेंगे। हमे आशा है आपको आजका हमारा प्रयास पसंद आएगा।

दोस्तो इंसानों के बौद्धिक और सांस्कृतिक स्तर को ऊपर उठाने के लिए पैग़म्बरे इस्लाम (स) द्वारा दुनिया के सामने पेश किए गए इस्लाम धर्म में उच्च योजनाएं और उद्देश्य थे। इन योजनाओं और उद्देश्यों को व्यवहारिक बनाने के लिए सुसंगत संगठन और एक प्रणाली की आवश्यकता थी। यदि इन कार्यों को व्यवहारिक बनाने में पैग़म्बरे इस्लाम (स) का विवेक, दूरदर्शिता और सटीकता नहीं होती, तो शायद उनके द्वारा स्थापित किए गए इस्लामी शासन को जिस तरह वह चाहते थे हम उस तरीक़े से महसूस नहीं कर सकते थे। पैग़म्बरे इस्लाम (स) के रास्ते में मौजूद बाधाओं में से एक उस समय के समाज में मौजूद सुसंगत संरचना की कमी थी। हर क़बीले और समूह के अपने विशेष क़ानून और तरीक़े थे और क़बीलों के बीच भी बहुत ज़्यादा मतभेद देखने को मिलता था। ऐसी परिस्थितियों में, पैग़म्बरे इस्लाम (स) ने पूरी तरह से सोची-समझी रणनीति के साथ "मुसलमान आपस में भाई हैं और किसी को किसी पर वरीयता नहीं है।" के क़ानून को पेश किया। उन्होंने समाजिक एकता को स्थापित करके क़बीलाई और जातीय सीमाओं को मिटा दिया। पैग़म्बरे इस्लाम (स) की इस योजना का उस समय के समाज पर बहुत प्रभाव पड़ा। ऐसा हुआ कि मदीना शहर के लोग कि जिन्हें अंसार कहा जाता था उन्होंने मक्का के प्रवासियों से गर्मजोशी से हाथ मिलाया और उनके प्रति सहानुभूति और एकता यहां तक देखने को मिली कि मदीना के लोगों ने उन प्रवासियों का हर तरीक़े से साथ दिया और मदद की जो अपने घरों से अलग हो गए थे।

इस्लाम के शुरुआती दिनों में, मस्जिद ने इस्लामी समाज को मज़बूत करने, लोगों की एकता, सहानुभूति और समन्वय को मज़बूत करने में रचनात्मक भूमिका निभाई है। दिलचस्प बात यह है कि मस्जिद के निर्माण के दौरान एकता, सद्भाव और जनभागीदारी को प्रतिबिंदित किया गया था। सभी मुसलमानों ने मस्जिद के निर्माण और उसके निर्माण में इस्तेमाल होने वाली सामग्री को एकत्रित करने में एकजुटता के साथ  भाग लिया। यहां तक कि पैग़म्बरे इस्लाम (स) भी सभी मुसलमानों की तरह मस्जिद के निर्माण में सहयोग कर रहे थे और पत्थरों को उठा-उठाकर दे रहे थे। असीर इब्ने सफ़ीर आगे गए और पैग़म्बरे इस्लाम (स) से कहा कि हे पैग़म्बरे इस्लाम आप हमे इस बात की अनुमति दें कि पत्थर मैं उठाकर दूं आप इस काम को न करें।” पैग़म्बरे इस्लाम (स) ने फ़रमाया “जाओ दूसरा पत्थर उठाओ। पग़ैम्बरे इस्लाम (स) के इस कार्य ने दूसरों को भी अधिक लगाव के साथ काम करने के लिए प्रोत्साहित किया।

मस्जिद ईश्वर का घर है जहां उसकी उपासना होती है और साथ में यह पवित्र स्थान मुसलमनों और इस्लामी राष्ट्रों के बीच एकता और एकजुटता का केंद्र है और इस्लामी समाज की बहुत सारी समस्याओं के समाधान और उसपर विचार करने का भी केंद्र है। इस बात में कोई शक नहीं है कि किसी अन्य धर्म में उपासना स्थल की इतनी महत्वपूर्ण और प्रमुख भूमिका नहीं होती है और न ही वह इस तरह की भूमिका को निभाता है। मदीना में पैग़म्बरे इस्लाम (स) द्वारा सबसे पहले किया जाने वाला काम मस्जिद का निर्माण था। मस्जिद हर दिन तीन से पांच वक़्त मुसलमानों के एकत्रित होने का स्थान है और सप्ताह में एक बार शुक्रवार अर्थात जुमे के दिन इस पवित्र स्थल में मुसलमानों के हर दिन पांच या तीन वक़्त की नमाज़ के लिए एकत्रित होने से कहीं बड़ा जुमे की नमाज़ के लिए जमावड़ा होता है।

जब इस्लाम का चमकता हुआ सूरज उदय हुआ और बहुत तेज़ी पूरे हेजाज़ में उसकी रोशनी फैल गई उस समय अबू आमिर जो यहूदी धर्म का अनुयायी था वह मुसलमानों के बीच बढ़ती एकता और एकजुटता को देखकर परेशान हो गया और उसने इस एकजुटता को तोड़ने के लिए मुनाफ़िक़ और विश्वासघाती क़बीले “औस और ख़िज़रज का साथ देने और उनका सहयोग करने का फ़ैसला किया। उसने अपने दोस्तों के नाम लिखे गए पत्रों में से एक ख़त में लिखा है कि ““क़ोबा (قبا) गांव में मुस्लिम मस्जिद के सामने एक और मस्जिद का निर्माण करो और वहां नमाज़ के दौरान मुसलमानों की आध्यात्मिक शक्ति को कम करने के लिए इकट्ठा होकर प्रयास करो और फिर फर्ज़ निभाने के बहाने इस्लाम पर नियंत्रण पाने के तरीक़ों और रास्तों पर बात की जाए।

जब पैग़म्बरे इस्लाम (स) तबूक की यात्रा पर थे उस समय मुनाफ़िकों के प्रतिनिधि पैग़म्बरे इस्लाम की सेवा में पहुंचते हैं और कहते हैं कि “हे ईश्वरीय दूत बुज़ुर्ग और बीमार रात के अंधेरे और बारिश के समय अपने घरों और क़ोबा मस्जिद के बीच की दूरी की वजह से वह मस्जिद नहीं जा सकते हैं इसलिए आप इस बात की इजाज़त दीजिए कि उनके लिए उनके घरों के पास एक मस्जिद बना दी जाए।” पैग़म्बरे इस्लाम (स) ने उनको सवालों भरी नज़रों से देखा और उनसे कुछ भी नहीं कहा। लेकिन जब उन लोगों ने बहुत ज़ोर दिया तो पैग़म्बरे इस्लाम (स) ने कहा कि यात्रा से वापसी के बाद इस मुद्दे पर विचार करेंगे। लेकिन विरोधियों ने पैग़म्बरे इस्लाम (स) की अनुपस्थिति का लाभ उठाते हुए एक विशेष स्थल पर तथाकथित मस्जिद का निर्माण किया। जिस समय पैग़म्बरे इस्लाम (स) मदीना वापस लौटे तो विरोधियों ने उनसे अनुरोध किया कि वह उपासना स्थल पर रुककर नमाज़ अदा कर दें ताकि तथाकथित मस्जिद का उद्घाटन हो सके।

उसी क्षण पैग़म्बरे इस्लाम (स) पर वही अर्थात ईश्वरीय संदेश नाज़िल हुआ और पैग़म्बरे इस्लाम (स) को मुनाफ़िक़ों की साज़िशों से सूचित किया और उस स्थान को मस्जिदे ज़रार के नाम से याद किया। पवित्र क़ुरआन के सूरे तौबा की आयत नंबर 107 में आया है कि और कुछ (मिथ्याचारी) ऐसे हैं जिन्होंने इस्लाम को क्षति पहुंचाने, कुफ़्र का प्रचार करने, ईमान वालों के बीच फूट डालने और ईश्वर तथा उसके पैग़म्बर से युद्ध कर चुके शत्रु के छिपने हेतु एक मस्जिद बनाई और निरंतर सौगन्ध खाते रहे कि हमारा भलाई के अतिरिक्त उनका कोई इरादा नहीं है किन्तु ईश्वर गवाही देता है कि वे झूठ बोल रहे हैं। इसके बाद पैग़म्बरे इस्लाम (स) ने यह आदेश दिया कि उस मस्जिद को ध्वस्त कर दिया जाए। वास्तव में मस्जिदे ज़रार के ध्वस्त करने के संबंध में पैग़म्बरे इस्लाम (स) द्वारा उठाया गया क़दम इस्लामी समाज में राजनीतिक विभाजन और मुसलमानों के बीच फूट डालने को रोकने के लिए एक अच्छा क़दम था ताकि जनता की आम सहमति को नुकसान न पहुंचे।

पैग़म्बरे इस्लाम (स) ने इस्लामी समाज में एकता के लिए एक और अहम क़दम जो उठाया वह यह था कि जब आपने मक्का से मदीना पलायन करने वाले मुसलमानों और मदीना में रहने वाले मुसलमानों में से हर एक के बीच बंधुत्व का बंधन क़ायम किया और हज़रत अली अलैहिस्सलाम के साथ अपने बंधुत्व का बंधन क़ायम किया। पैग़म्बरे इस्लाम ने मदीना पहुंचने के पहले ही साल यह क़दम उठाया था। इस बंधुत्व का नजीता यह हुआ कि हर मुसलमान दूसरे मुसलमान भाई को ख़ुद पर वरीयता देता था। जैसा कि इस्लामी इतिहास में है कि बनी नुज़ैर क़बीले के यहूदियों के ख़िलाफ़ जंग में मिलने वाली संपत्ति के बंटवारे के दिन पैग़म्बरे इस्लाम ने मदीनावासियों से कहा कि चाहो इस माल में मुहाजिरों को भी शामिल कर लो और चाहो तो सारा माल आपस में बांट लो, लेकिन मदीना वासियों ने कहा कि हम न सिर्फ़ जंग में प्राप्त संपत्ति को अपने मोहाजिर भाइयों को देंगे बल्कि अपनी संपत्ति व घर में भी उन्हें अपना भागीदार बनाएंगे। पैग़म्बरे इस्लाम की बंधुत्व पर आधारित दूरदर्शिता भरी सूझबूझ से औस और ख़ज़रज के बीच मतभेद ख़त्म हो गए, मोहाजिर और मदीनावासी, निर्धन व धनवान आपस में भाईचारे का एहसास करने लगे। इस तरह इस्लामी समाज की एकता व समरसता की दिशा में बड़ा क़दम उठा।

पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल लाहो अलैहि व आलेही व सल्लम अपनी बातचीत और व्यवहार में दासों व वंचितों को धनवानों का धार्मिक बंधू बनाते और ख़ुद भी उनके बीच बैठते थे, उनके जैसा कपड़ा पहनते और उन्हीं के जैसा जीवन व्यतीत करते थे। वह मालिकों को दासों के साथ अच्छा व्यवहा करने और उन्हें आज़ाद करने के लिए प्रेरित करते थे। पैग़म्बरे इस्लाम (स) के इस व्यवहार का तत्कालीन मदीना के समाज पर बहुत असर पड़ा। इस बात में कोई शक नहीं है कि पैग़म्बरे इस्लाम के सामने एकेश्वरवाद के विस्तार और उसके आधार पर इस्लामी समाज में एकता पैदा करने के मार्ग में कुछ रुकावटें थीं जिनमें सबसे बड़ी रुकावट क़बायली व जातीय भेदभाव था। वह अपनी बातचीत और व्यवहार में अज्ञानता के दौर के इस विचार का कड़ाई से विरोध करते थे और ईश्वर से डर को एक दूसरे से बेहतर होने का मानदंड बताते हुए इसी परिप्रेक्ष्य में फ़रमाया थाः "मुसलमान आपस में भाई हैं और किसी को किसी पर वरीयता नहीं है।" पैग़म्बरे इस्लाम ने बिलाल हबशी को अपना मोअज़्ज़िन नियुक्त किया। वे अज़ान देते थे। इसी तरह पैग़म्बरे इस्लाम ने बहुत से लोगों को जिनका वंश मशहूर न था, अलग अलग तरह की ज़िम्मेदारियां सौंपी थीं और उन्हें वे अहमियत देते थे। शायद इन्हीं लोगों में सलमान फ़ारसी भी थे जिनकी महानता का पैग़म्बरे इस्लाम ने इन शब्दों में वर्णन किया हैः "सलमान हमारे परिजनों में हैं।"

कुल मिलाकर जब तक किसी समाज की मानसिकता व संस्कृति न बदले इस समय तक उसके सदस्यों के बीच एकता व समरस्ता पैदा करना मुमकिन नहीं है। यही वजह है कि पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल लाहो अलैहि व आलेही व सल्लम ने सबको ईश्वर की ओर बुलाया। उन्होंने लोगों को उस ईश्वर की ओर बुलाया जो अकेला है। जैसा कि पवित्र क़ुरआन के आले इमरान सूरे की आयत नंबर 103 में ईश्वर कह रहा है "ईश्वर की रस्सी को मज़बूती से पकड़ लो, पृथक मत रहो और ईश्वर की उस नेमत को याद करो कि तुम आपस में एक दूसरे के दुश्मन थे और उसने तुम्हारे मन में एक दूसरे के लिए प्रेम जगाया और उसकी नेमत की वजह से एक दसूरे के भाई बन गए।" इसीलिए यह पूरी तरह सच है कि इस्लाम के महान पैग़म्बर हज़रत मोहम्मद सल्लल लाहो अलैहि व आलेही व सल्लम का अस्तित्व विभिन्न युगों में मुसलमानों के लिए प्रेणा और एकता का स्रोत रहा है। आज भी, यह महान व्यक्तित्व दुनिया के सभी मुसलमानों में भावनाओं की धुरी और एकता की प्रेरणादायक शक्ति है।

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