क़ुरआन ईश्वरीय चमत्कार-856
सूरए ज़ोमर आयतें 1-4
تَنْزِيلُ الْكِتَابِ مِنَ اللَّهِ الْعَزِيزِ الْحَكِيمِ (1) إِنَّا أَنْزَلْنَا إِلَيْكَ الْكِتَابَ بِالْحَقِّ فَاعْبُدِ اللَّهَ مُخْلِصًا لَهُ الدِّينَ (2)
इन आयतों का अनुवाद हैः
(इस) किताब (क़ुरान) का नाज़िल करना उस खुदा की बारगाह से है जो (सब पर) श्रेष्ठ तत्वज्ञान रखने वाला है [39:1] (ऐ रसूल) हमने किताब (कुरान) को बिल्कुल ठीक नाज़िल किया है तो तुम इबादत को उसी के लिए विशुद्ध करके खुदा की बन्दगी किया करो [39:2]
यह आयतें इस्लाम में क़ुरआन के महान स्थान का ज़िक्र करते हुए कहती है कि क़ुरआन अल्लाह का कलाम है, पैग़म्बर मुहम्मद का कथन नहीं। इसी तरह पिछले ज़मानों के आसमानी ग्रंथ भी हज़रत मूसा और हज़रत ईसा जैसे पैग़म्बरों का कथन नहीं थे बल्कि अल्लाह की किताबें थीं। पिछले ग्रंथों की तरह इस किताब यानी क़ुरआन को भी नाज़िल करने का मक़सद आम इंसानों का सही ज्ञान और अल्लाह तथा संसार के बारे में सही समझ की ओर मार्गदर्शन करना है और एकेश्वरवादी आस्था के संदर्भ में हर तरह के भ्रामक विचार को दूर करना रहा है।
इंसान को स्वाभाविक रूप से यह मालूम है कि दुनिया का एक रचयिता है लेकिन वह इस रचयिता की सही पहिचान में ग़लती कर बैठता है। वह चीज़ों और कुछ इंसानों को दुनिया पैदा करने की प्रक्रिया में अल्लाह का साझीदार मान लेता है या फिर दुनिया के संचालन में उन्हें अल्लाह का शरीक समझ बैठता है। इसीलिए क़ुरआन आया है कि दुनिया के असली रचयिता को हर प्रकार के अंधविश्वास से अलग हटकर सही रूप में पहचनवाए।
ज़ाहिर है कि जो किताब अल्लाह की तरफ़ से ज़मीन पर उतारी गई है उसकी बातें और विषयवस्तु पूरी तरह सत्य हैं उनमें कोई भी बात ग़लत और निराधार नहीं है। क्योंकि वह महान और तत्वज्ञानी है जिससे ज्ञान और तत्वज्ञान से हटकर कोई काम हो ही नहीं सकता।
इन आयतों से हमने सीखाः
बेशक हम ख़ुदा को अपनी आंख से तो नहीं देखते लेकिन क़ुरआन की आयतें पढ़कर हम अल्लाह की बातें ज़रूर सुनते हैं और उनमें चिंतन करके उसकी सत्यता से अवगत होते हैं।
असली इज़्ज़त ज्ञान और तत्वज्ञान से हासिल होती है और ज्ञान तथा इज़्ज़त एक दूसरे से जुड़े हुए हैं।
अल्लाह की बंदगी पूर्ण निष्ठा के साथ अस्ली धर्म के आधार पर होनी चाहिए इसमें किसी तरह का अनेकेश्वरवादी, नास्तिकतावादी और अंधविश्वासी विचार शामिल नहीं होना चाहिए।
अब आइए सूरए ज़ोमर की आयत संख्या 3 की तिलावत सुनते हैं,
أَلَا لِلَّهِ الدِّينُ الْخَالِصُ وَالَّذِينَ اتَّخَذُوا مِنْ دُونِهِ أَوْلِيَاءَ مَا نَعْبُدُهُمْ إِلَّا لِيُقَرِّبُونَا إِلَى اللَّهِ زُلْفَى إِنَّ اللَّهَ يَحْكُمُ بَيْنَهُمْ فِي مَا هُمْ فِيهِ يَخْتَلِفُونَ إِنَّ اللَّهَ لَا يَهْدِي مَنْ هُوَ كَاذِبٌ كَفَّارٌ (3)
इस आयत का अनुवाद हैः
आगाह रहो कि इबादत तो ख़ास खुदा ही के लिए है और जिन लोगों ने खुदा के सिवा (औरों को अपना) सरपरस्त बना रखा है और कहते हैं कि हम तो उनकी इबादत सिर्फ़ इसलिए करते हैं कि ये लोग खुदा की बारगाह में हमारा सामिप्य बढ़ा देगें इसमें शक नहीं कि जिस बात में ये लोग झगड़ते हैं (क़यामत के दिन) खुदा उनके दरमियान इसमें फैसला कर देगा बेशक खुदा झूठे नाशुक्रे को मंज़िल तक नहीं पहुँचाया करता [39:3]
पिछली आयत के ही क्रम में जो धर्म में सच्ची निष्ठा की बात पर ज़ोर देती है, यह आयत आगे कहती है कि विशुद्ध धर्म को केवल अल्लाह से ही हासिल किया जा सकता है। इंसान की सोच और दिमाग़ से जो चीज़ पैदा होती है उसमें अनेकेश्वरवाद और अंधविश्वास की मिलावट होती है। केवल अल्लाह ही इंसानों को अपना वास्तविक परिचय दे सकता है और उन्हें इबादत और बंदगी का सही तरीक़ा सिखा सकता है। इसी तरह यह भी है कि अल्लाह केवल विशुद्ध धर्म को ही क़ुबूल करता है। अगर सोच और अमल में किसी तरह की मिलावट या दिखावा है तो ऐसे में भले कर्म भी अल्लाह क़ुबूल नहीं करता। किसी व्यक्ति ने पैग़म्बरे इस्लाम से कहा कि हम अपना माल ज़रूरतमंदों को दे देते हैं ताकि लोगे हमें अच्छे अलफ़ाज़ में याद करें। पैग़म्बरे इस्लाम ने कहा कि अल्लाह तो केवल उस अमल को क़ुबूल करता है जो केवल उसी के लिए अंजाम दिया जाए।
आयत में आगे यह बताया गया है कि किस तरह धर्म में पूर्ण निष्ठा से कोई दूर हो जाता है। आयत कहती है कि अनेकेश्वरवादी इस ग़लतफ़हमी में कि, इंसान प्रत्यक्ष रूप से अल्लाह को पुकार नहीं सकता और उससे संपर्क नहीं साध सकता, कुछ चीज़ों को पवित्र और अपने तथा अल्लाह के बीच संपर्क का माध्यम समझकर उनकी इबादत करते थे और अल्लाह की इबादत में उन्हें शामिल करते थे। जबकि अल्लाह ने कदापि इसकी अनुमति नहीं दी है। वे लोग ग़लत सोच और अनेकेश्वरवादी रुजहान के आधार पर अल्लाह के बारे में इस प्रकार की बातें करते थे और अल्लाह के अलावा दूसरों की उपासना करते थे।
इन आयतों से हमने सीखाः
इंसान के बनाए हुए मत चाहे जितने आध्यात्मिक हों उनमें कुछ न कुछ वैचारिक अंधविश्वास और ग़लत रीति रिवाज शामिल हो ही जाते हैं, शुद्ध और पाक धर्म केवल अल्लाह की ओर से ही नाज़िल होता है।
वैचारिक रूप से भटके हुए लोग अपनी गुमराही के भी तर्क देते हैं ताकि दूसरों को अपने रास्ते की ओर आकर्षित कर सकें। मूर्तियों की पूजा करने वाले लोग मूर्तियों को अपने और अल्लाह के बीच माध्यम बना लेते हैं।
अल्लाह के क़रीब होना सबको पसंद है लेकिन इस मंज़िल को हासिल करने का सही रास्ता समझने में बहुतों से ग़लती हो जाती है।
अब आइए सूरए ज़ोमर की आयत संख्या 4 की तिलावत सुनते हैं,
لَوْ أَرَادَ اللَّهُ أَنْ يَتَّخِذَ وَلَدًا لَاصْطَفَى مِمَّا يَخْلُقُ مَا يَشَاءُ سُبْحَانَهُ هُوَ اللَّهُ الْوَاحِدُ الْقَهَّارُ (4)
इस आयत का अनुवाद हैः
अगर खुदा किसी को (अपना) बेटा बनाना चाहता तो अपनी रचनाओं में से जिसे चाहता चुन लेता (मगर) वह तो इस तरह की चीज़ों से पाक व पाकीज़ा है वह तो अनन्य और बहुत महान शक्तिमान है। [39:4]
पिछली आयत के बाद जिसमें अल्लाह की इबादत में किसी अन्य को शामिल करने की मिसाल पेश की गई, अब यह आयत कहती है कि कुछ अनेकेश्वरवादी फ़रिश्तों को अल्लाह की बेटियां समझ बैठते हैं और उनकी इबादत करने लगते हैं। इसी तरह ईसाइयों ने हज़रत ईसा को जो हज़रत मरयम के बेटे हैं अल्लाह का बेटा समझकर उनकी इबादत शुरू कर दी थी।
हालांकि अल्लाह की कोई संतान नहीं है और वह इससे बहुत महान है कि कोई उसका बेटा हो। अगर वह अपने पैदा किए हुए लोगों में से किसी को अपनी संतान बनाना चाहता तो इसका एलान करता ताकि सब उसको पहचान लेते और उसकी इबादत करते।
इसके अलावा अल्लाह तो अनन्य और बेमिसाल है कोई भी चीज़ उसके जैसी और उसके समान नहीं हो सकती जो उसकी संतान समझी जाए। वह हर चीज़ से श्रेष्ठ है और उसके समक्ष किसी की कोई शक्ति नहीं है वह अपने किसी समकक्ष, या संतान का मोहताज नहीं है।
इस आयत से हमने सीखाः
अल्लाह की कोई संतान नहीं है और न कोई मुंहबोली औलाद। क्योंकि संतान की चाहत ज़रूरतमंदी को ज़ाहिर करती है। हालांकि अल्लाह तो हरगिज़ किसी भी तरह ज़रूरतमंद नहीं है और अपनी किसी रचना को अपनी औलाद बनाने की उसे ज़रूरत नहीं है।
अल्लाह अनन्य और बेमिसाल है और कोई भी चीज़ उसके जैसी नहीं है। इसलिए अगर किसी भी मत और विचारधारा में किसी चीज़ को अल्लाह के समान बताया जाए तो वह एकेश्वरवाद से विरोधाभास रखती और सिरे से ख़ारिज कर दी जानी चाहिए।