क़ुरआन ईश्वरीय चमत्कार-858
ज़ोमर आयतें 7 व 8
إِنْ تَكْفُرُوا فَإِنَّ اللَّهَ غَنِيٌّ عَنْكُمْ وَلَا يَرْضَى لِعِبَادِهِ الْكُفْرَ وَإِنْ تَشْكُرُوا يَرْضَهُ لَكُمْ وَلَا تَزِرُ وَازِرَةٌ وِزْرَ أُخْرَى ثُمَّ إِلَى رَبِّكُمْ مَرْجِعُكُمْ فَيُنَبِّئُكُمْ بِمَا كُنْتُمْ تَعْمَلُونَ إِنَّهُ عَلِيمٌ بِذَاتِ الصُّدُورِ (7)
इस आयत का अनुवाद हैः
अगर तुमने उसकी नाशुक्री की तो (याद रखो कि) खुदा तुम्हारा मुहताज नहीं है और अपने बन्दों से कुफ्र और नाशुक्री को पसन्द नहीं करता और अगर तुम शुक्र करोगे तो वह उसको तुम्हारे वास्ते पसन्द करता है और (क़यामत में) कोई किसी (के गुनाह) का बोझ (अपनी गर्दन पर) नहीं उठाएगा फिर तुमको अपने परवरदिगार की तरफ लौटना है तो (दुनिया में) जो कुछ (भला बुरा) करते थे वह तुम्हें बता देगा वह यक़ीनन दिलों के राज़ (तक) से ख़ूब वाक़िफ है [39:7]
पिछले कार्यक्रम में उन आयतों की बात हुई जिनमें अल्लाह ने इंसानों और मवेशियों की रचना के तहत दी गई नेमतों का उल्लेख किया है। अब यह आयत शुक्र अदा करने का विषय उठाते हुए कहती है कि कुछ लोग नेमतों को अल्लाह की देन मानते हैं और हर हाल में उसका शुक्र अदा करते रहते हैं। मगर कुछ लोग या तो नेमतों से पूरी तरह ग़ाफ़िल हैं और यूं ही उनका इस्तेमाल किए जाते हैं या अगर नेमतों की तरफ़ उनकी तवज्जो है भी तो उन्हें अल्लाह की देन नहीं मानते। वे समझते हैं कि जो नेमतें उन्हें हासिल हैं वह उनकी मेहनतों का नतीजा हैं। इसलिए वे इन नेमतों पर शुक्र अदा नहीं करते।
यह बात तो बिल्कुल साफ़ है कि अल्लाह इंसान के शुक्र और आभार का मोहताज नहीं है। मतलब यह कि अगर दुनिया के सारे इंसान कुफ़्र का रास्ता अपना लें और अल्लाह के अस्तित्व का इंकार कर दें या उसकी नाशुक्री करें तो उसे कोई फ़र्क़ पड़ने वाला नहीं है। क्योंकि अल्लाह को हमारे वुजूद की भी ज़रूरत नहीं है तो फिर हमारे शुक्र और आभार की उसे क्या ज़रूरत हो सकती है।
सच्चाई तो यह है कि अगर अल्लाह ने इंसानों को नेमतों पर शुक्र अदा करने की ज़िम्मेदारी सौंपी है तो इसकी वजह यह नहीं कि उसे इस शुक्र और आभार की ज़रूरत है। बल्कि इस वजह से है कि शुक्रगुज़ारी का जज़्बा इंसान के नैतिक और आध्यात्मिक विकास का रास्ता साफ़ करता है। इसी लिए क़ुरआन अल्लाह का शुक्र अदा करने के आदेश के साथ ही यह भी कहता है कि अपने माता पिता की मेहनतों का भी शुक्रिया अदा करो सुरए लुक़मान की आयत संख्या 14 में अल्लाह कहता है कि मेरा शुक्र अदा करो और अपने मां-बाप का शुक्र अदा करो।
इस आयत में आगे जाकर मानव स्वभाव के एक उसूल को बयान करते हुए कहा गया है कि हर कोई अपने काम की ज़िम्मेदारी संभाले और अपने किए का जवाब दे। किसी को यह अधिकार नहीं कि अपने कामों की ज़िम्मेदारी किसी और की गरदन पर डालकर ख़ुद को ज़िम्मेदारी से बचा ले। इसलिए कि अल्लाह भी क़यामत के दिन किसी का गुनाह दूसरे के सिर हरगिज़ नहीं डालेगा। बल्कि इंसानों के कर्मों और अंदरूनी रुजहान के बारे में अपनी जानकारी के मुताबिक़ उनसे सवाल करेगा।
इस आयत से हमने सीखाः
नमाज़ रोज़ा और अन्य धार्मिक चीज़ों का आदेश इसलिए नहीं है कि अल्लाह को इन इबादतों की ज़रूरत है बल्कि जिस तरह उस्ताद अपने शिक्षार्थियों को ज्ञान देने के लिए उन्हें कुछ अभ्यास देता है उसी तरह अल्लाह ने भी इंसानों के आध्यात्मिक उत्थान के लिए निर्देश दिए हैं।
अल्लाह अपने बंदों से न्याय के अनुसार बर्ताव करता है। हर व्यक्ति को अपने किए का इनाम या दंड मिलेगा। इसीलिए क़यामत में सामुदायिक, नस्ली और पारिवारिक रिश्ते काम नहीं आएंगे।
अल्लाह को हम इंसानों की नीयत और सोच की पूरी जानकारी है और अपनी जानकारी के आधार पर हमसे हमारे कर्मों का हिसाब लेगा।
अब आइए सूरए ज़ोमर की आयत संख्या 8 की तिलावत सुनते हैं,
وَإِذَا مَسَّ الْإِنْسَانَ ضُرٌّ دَعَا رَبَّهُ مُنِيبًا إِلَيْهِ ثُمَّ إِذَا خَوَّلَهُ نِعْمَةً مِنْهُ نَسِيَ مَا كَانَ يَدْعُو إِلَيْهِ مِنْ قَبْلُ وَجَعَلَ لِلَّهِ أَنْدَادًا لِيُضِلَّ عَنْ سَبِيلِهِ قُلْ تَمَتَّعْ بِكُفْرِكَ قَلِيلًا إِنَّكَ مِنْ أَصْحَابِ النَّارِ (8)
इस आयत का अनुवाद हैः
और आदमी (की हालत तो ये है कि) जब उसको कोई तकलीफ पहुँचती है तो उसी की तरफ लौटकर अपने परवरदिगार से दुआ करता है (मगर) फिर जब खुदा अपनी तरफ से उसे नेमत अता फ़रमा देता है तो जिस काम के लिए पहले उससे दुआ करता था उसे भुला देता है और बल्कि खुदा का शरीक बनाने लगता है ताकि (उस ज़रिए से और लोगों को भी) उसकी राह से गुमराह कर दे (ऐ रसूल ऐसे शख्स से) कह दो कि थोड़े दिनों और अपने कुफ्र (की हालत) में चैन कर लो यक़ीनन तुम जहन्नम वालों में से हो। [39:8]
पिछली आयत में इंसान की नाशुक्री की बात की गई। इसके बाद यह आयत इसका एक उदाहरण पेश करते हुए कहती है कि कुछ लोग जीवन में जब कठिनाई में पड़ जाते हैं जैसे कोई बीमार पड़ जाता है या आर्थिक कठिनाइयों में घिर जाता है तो अल्लाह को ख़ूब पुकारता है, याद करता है। अल्लाह से फ़रियाद करता है कि उसे इस मुश्किल से मुक्ति दिला दे और अगर गुनाह या ग़फ़लत के नतीजे में यह कठिनाई पैदा हुई है तो उस गुनाह को माफ़ कर दे।
लेकिन जैसे ही मुश्किल दूर हुई या अल्लाह की ओर से कोई नई नेमत मिली वह अल्लाह और उसकी नेमतों सब को भूल बैठता है और सांसारिक कामों में व्यस्त हो जाता है।
कभी वे लोग दुनिया में इतना डूब जाते हैं कि अल्लाह को पूरी तरह भूल जाते हैं और यह समझ बैठते हैं कि उनके जीवन पर दूसरों का निर्णायक असर है। इसलिए वे दूसरों को ही अल्लाह का रास्ता छोड़कर इन्हीं लोगों की ओर आने की दावत देते हैं और दूसरों को भी गुमराह करते हैं।
इस आयत से हमने सीखाः
मौसमी और अस्थायी ईमान जो केवल कठिनाई के समय पैदा होता है उसके तहत इंसान अपने जीवन में कभी कभार अल्लाह को याद करता है जबकि पूरे जीवन में अल्लाह को भूला रहते है। इस तरह का ईमान प्रभावशाली और कारगर नहीं होता।
हालांकि ज़िंदगी की मुश्किलें हर इंसान के लिए बहुत कठिन होती हैं लेकिन इनसे उसे फ़ायदा भी पहुंचता है। कठिनाइयों का एक फ़ायदा यह है कि इंसान को ग़फ़लत से दूर करती हैं और वह अपने रचयिता और अंजाम की ओर तवज्जो देना शुरू करता है।
कम ज़र्फ़ इंसान को जब थोड़ा आराम मिल जाता है तो वह पिछली कठिनाइयों और समस्याओं के समाधान में अल्लाह की मदद को भूल जाता है।
दुनिया की हर कामयाबी इंसान की ख़ुशक़िस्मती की निशानी नहीं है। हो सकता है कि नास्तिकों और काफ़िरों को जिनके पास बहुत सारी नेमतें और सुविधाएं हैं परलोक में इतनी बड़ी नाकामियों का सामना करना पड़े जिनके सामने दुनिया की सफलताएं नगण्य हों।