Nov १६, २०२२ १९:१८ Asia/Kolkata

सूरा ज़ोमर आयतें 9 व 10

أَمْ مَنْ هُوَ قَانِتٌ آَنَاءَ اللَّيْلِ سَاجِدًا وَقَائِمًا يَحْذَرُ الْآَخِرَةَ وَيَرْجُو رَحْمَةَ رَبِّهِ قُلْ هَلْ يَسْتَوِي الَّذِينَ يَعْلَمُونَ وَالَّذِينَ لَا يَعْلَمُونَ إِنَّمَا يَتَذَكَّرُ أُولُو الْأَلْبَابِ (9)

इस आयत का अनुवाद हैः

(क्या यह व्यक्ति बेहतर है) या वह शख़्स जो रात की घड़ियों में कभी सजदा करके और कभी खड़े होकर ख़ुदा की इबादत करता है और आख़ेरत से डरता है और अपने परवरदिगार की रहमत की उम्मीद रखता है? (ऐ रसूल) तुम पूछो तो कि भला कहीं जानने वाले और न जानने वाले लोग बराबर हो सकते हैं? (मगर) नसीहत तो बस अक़्लमन्द लोग ही मानते हैं [39:9] 

पिछले कार्यक्रम में क़ुरआन ने इंसान के बारे में बात की कि वे केवल कठिनाई के समय अल्लाह को याद करते हैं। जब यह स्थिति न हो तो अल्लाह को भूल जाते हैं या उसका इंकार कर देते हैं। यह आयत तुलना करते हुए कहती है कि क्या ऐसा इंसान या वह व्यक्ति जो हर तरह के हालात में कठिनाइयों के दौर में भी और आसानियों के दौर में भी अल्लाह को याद करता है दोनों बराबर हो सकते हैं? वह व्यक्ति जो आधी रात को बिस्तर से उठ खड़ा होता है और नमाज़ व इबादत में व्यस्त हो जाता है ताकि अल्लाह की कृपा का पात्र बने और जहन्नम के अज़ाब से सुरक्षित रहे।

अल्लाह के ख़ास बंदों की एक विशेषता रातों को उठ कर नमाज़ें और दुआएं पढ़ना और क़ुरआन की तिलावत करना है। कुछ आम इंसान वाजिब नमाज़ भी बेदिली से पढ़ते हैं और बड़ी मजबूरी में रोज़ा रखते हैं। जबकि इस तरह के लोगों के विपरीत सच्चे मोमिन बंदे जो अल्लाह और क़यामत पर पुख़्ता ईमान रखते हैं केवल वाजिब नमाज़ और रोज़ा ही नहीं बल्कि दूसरी वाजिब इबादतों को भी बड़े उत्साह और चाहत के साथ अंजाम देते हैं। यही नहं मुसतहेब नमाज़ें भी वे रात की नींद से उठकर अंजाम देते हैं और अल्लाह की बारगाह में दुआ और प्रार्थना में लीन हो जाते हैं।

स्वाभाविक है कि इस तरह के लोग अल्लाह की रममत की उम्मीद भी रखते हैं और उसके दंड से डरते भी हैं। वे उम्मीद और भय के बीच की हालत में जीवन गुज़ारते हैं। इस हालत की वजह से वे न तो अल्लाह की रहमत की ओर से मायूस होते हैं और न ही अल्लाह की असीम रहमत को देखकर निश्चिंत और घमंडी बनते हैं।

यह आयत आगे जाकर पैग़म्बरे इस्लाम को संबोधित करते हुए कहती है कि लोगों को बता दीजिए अक़्लमंद इंसान नादान इंसानों के बराबर नहीं हैं। सदबुद्धि रखने वाले इंसान ही इन दोनों समूहों के इंसानों के बीच अंतर को समझते हैं। इस तरह के लोग नसीहतों को सुनते हैं और ख़ुश क़िस्मती की डगर पर सफ़र करते हैं।

इस आयत से हमने सीखाः

क़ुरआन की संस्कृति में रात केवल सोने और आराम करने के लिए नहीं है बल्कि अकेले में अल्लाह से दिल की बातें बयान करने के लिए भी यह बड़ा अच्छा मौक़ा है।

वास्तविक ज्ञानी और अक़्लमंद इंसान अल्लाह का इबादत गुज़ार बंदा भी होता है।

अल्लाह के अज़ाब से डर और उसकी रहमत की उम्मीद के मसले में हमेशा संतुलन और बीच का रास्ता चुनना चाहिए। जिस तरह अल्लाह के ख़ास बंदे आख़ेरत का डर भी रखते हैं और अल्लाह की रहमत की उम्मीद भी दिल में रखते हैं।

अब आइए सूरए ज़ोमर की आयत संख्या 10 की तिलावत सुनते हैं, 

قُلْ يَا عِبَادِ الَّذِينَ آَمَنُوا اتَّقُوا رَبَّكُمْ لِلَّذِينَ أَحْسَنُوا فِي هَذِهِ الدُّنْيَا حَسَنَةٌ وَأَرْضُ اللَّهِ وَاسِعَةٌ إِنَّمَا يُوَفَّى الصَّابِرُونَ أَجْرَهُمْ بِغَيْرِ حِسَابٍ (10)

इस आयत का अनुवाद हैः

(ऐ रसूल) तुम कह दो कि ऐ मेरे ईमानदार बन्दो! अपने परवरदिगार (ही) से डरते रहो (क्योंकि) जिन लोगों ने इस दुनिया में नेकी की उन्हीं के लिए (आख़ेरत में) भलाई है और खुदा की ज़मीन तो विशाल है (जहाँ इबादत न कर सको उसे छोड़ दो) सब्र करने वालों का बदला बेहिसाब और संपूर्ण रूप से दिया जाएगा। [39:10]  

पिछली आयतों में घमंडी और नशुक्रे इंसानों और दूसरी ओर नेक और आज्ञाकारी इंसानों की तुलना की गई है। इस तरह ज्ञानी और अज्ञानी व्यक्तियों की भी तुलना पेश की गई है। अब यह आयत अल्लाह के सच्चे बंदों की कुछ विशेषताएं बताती है। इन विशेषताओं में सबसे प्रमुख तक़वा को बताया गया है। इसके बाद आयत कहती है कि ईमान वालों की पहिचान अल्लाह से डरना है। इस स्थिति की वजह से इंसान को अल्लाह से शर्म आती है और वह गुनाह तथा दूसरे नामुनासिब कामों से ख़ुद को दूर रखता है।

लेकिन केवल तक़वा काफ़ी नहीं है इसके साथ नेक और भले कर्म भी ज़रूरी हैं। तक़वा कंट्रोल करने वाले सिस्टम की तरह काम करता है और इंसान को ख़तरों और फिसलनों से सुरक्षित रखता है जबकि भले कर्म ताक़तवर इंजन का काम करते हैं और इंसान को आगे बढ़ाते हैं।

अच्छी बातें और अच्छा अमल अल्लाह पर ईमान के साथ ज़रूरी चीज़ें हैं। इसलिए अगर कोई ईमान का दावा करता हो लेकिन उसका रवैया और बातचीत का अंदाज़ ठीक न हो तो उसका दावा सही नहीं है। ऐसे इंसान का दावा अल्लाह की बारगाह में स्वीकार नहीं किया जाएगा और उसे अपने कर्मों का का आख़ेरत में कोई बदला नहीं मिलेगा।

आयत का अगला हिस्सा अल्लाह की राह में हिजरत के लिए ईमान वालों के हमेशा तैयार रहने का ज़िक्र करता है। आयत कहती है कि जब किसी शहर या बस्ती में तुम अपने ईमान की रक्षा करने में असमर्थ हो जाओ तो पलायन करके कहीं और चले जाओ। अपने शहर और वतन से दिली लगाव इतना ज़्यादा न हो जाए कि तुम्हारे धर्म को नुक़सान पहुंच जाए। जैसा कि पैग़म्बरे इस्लाम के सहाबियों ने ढेरों कठिनाइयों की वजह से मक्के से मदीने की ओर पलायन किया ताकि नास्तिकों के वर्चस्व से निजात मिल जाए और वे अल्लाह के दीन की मदद कर सकें।

बेशक जन्म स्थान और वतन से दूसरी जगह पलायन करने में बड़ी कठिनाइयां होती हैं। इसीलिए आयत का अगला हिस्सा कहता है कि जिन लोगों ने अल्लाह की ख़ुशी के लिए यह कठिनाइयां बर्दाश्त कीं और संयम दिखाया अल्लाह अपने करम से उन्हें संपूर्ण और बेहिसाब बदला देगा। यानी केवल उतना इनाम नहीं दिया जाएगा जितना उनका कर्म होगा।

इस आयत से हमने सीखाः

ईमान, तक़वा और नेक काम एक दूसरे से जुड़े हुए हैं और इंसान अगर कल्याण चाहता है तो उसके पास यह तीनों ही चीज़ें होनी चाहिएं।

अगर ईमान की रक्षा के लिए घर से पलायन करना पड़े तो अल्लाह की ख़ातिर हमें यह काम करना चाहिए और इस काम की कठिनाइयों को भी बर्दाश्त करना चाहिए ताकि हम अल्लाह के करम के पात्र बन सकें।

अल्लाह का इनाम हमारी मेहनत के बदले में मिलता है। जन्नत बहानेबाज़ी से नहीं मिलने वाली है। मेहनत और दृढ़ता के नतीजे में इंसान का व्यक्तित्व विकसित होता है और ऊंचे स्थानों तक पहुंचता है।

 

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