Nov १६, २०२२ १९:२७ Asia/Kolkata

ज़ोमर आयतें 17-21

وَالَّذِينَ اجْتَنَبُوا الطَّاغُوتَ أَنْ يَعْبُدُوهَا وَأَنَابُوا إِلَى اللَّهِ لَهُمُ الْبُشْرَى فَبَشِّرْ عِبَادِ (17) الَّذِينَ يَسْتَمِعُونَ الْقَوْلَ فَيَتَّبِعُونَ أَحْسَنَهُ أُولَئِكَ الَّذِينَ هَدَاهُمُ اللَّهُ وَأُولَئِكَ هُمْ أُولُو الْأَلْبَابِ (18)

इन आयतों का अनुवाद हैः

और जिन (भाग्यशाली) लोगों ने झूठे ख़ुदाओं की पूजा से ख़ुद को बचाया और ख़ुदा ही की तरफ़ अपना रुख़ बाक़ी रखा उनके लिए (जन्नत की) ख़ुशख़बरी है    तो (ऐ रसूल) तुम मेरे (ख़ास) बन्दों को खुशख़बरी दे दो [39:17] जो बात को जी लगाकर सुनते हैं और फिर उसमें से अच्छी बात पर अमल करते हैं यही वे लोग हैं जिनकी खुदा ने हिदायत की और यही लोग अक्लमन्द हैं। [39:18] 

क़ुरआन ने इन आयतों में तुलना की शैली अपनाई है। पिछले कार्यक्रम में नास्तिकों और अनेकेश्वरवादियों की बात थी जो ज़िद और अड़ियल रवैए की वजह से सत्य और हक़ बात स्वीकार करने पर तैयार नहीं थे और अल्लाह पर ईमान नहीं लाना चाहते थे। मगर यहां उन बंदों की बात है जो सत्य की तलाश में हैं और अगर उन्हें हक़ और सत्य नज़र आ जाता है तो उसे स्वीकार करके अल्लाह के रास्ते पर चल पड़ते हैं जिसके नतीजे में उन पर अल्लाह की रहमत नाज़िल होती है।

अलबत्ता अस्ली ईमान का दारोमदार इस पर है कि अल्लाह के अलावा दूसरी हर चीज़ की इबादत से दूर रहा जाए। चाहे वो लकड़ी और पत्थर की मूर्तियां हों, या आंतरिक इच्छाएं हों। चाहे वह ज़ालिम और कुकर्मी शासकों के आज्ञापालन की बात हो या अल्लाह की निर्धारित की हुई सीमाओं को लांघने का मामला हो। क़ुरआन की संस्कृति में दुष्ट ताक़तों से दूर रहने का मतलब है हर तरह की मूर्ति पूजा और इच्छाओं की ग़ुलामी से दूर रहा जाए और ज़ालिम शासकों और विस्तारवादी ताक़तों के सामने हथियार न डालना।

यह आयतें इसके बाद अल्लाह के बंदों के एक विशेष समूह का ज़िक्र करती हैं जिसने तर्कहीन ज़िद छोड़कर हर तरह के विचारों को ध्यान से सुना और फिर अपने विवेक को इस्तेमाल करते हुए बेहतरीन विचार को अपनाया। वे लोग सच्चाई के खोजी हैं। उन्हें जहां भी सत्य नज़र आ जाए अपने वजूद से उसे क़ुबूल कर लेते हैं, वे सच्चाई का साफ़ पानी पीते और सेराब होते हैं। वे केवल सत्य और हक़ के खोजी नहीं बल्कि सत्य और हक़ में भी जो सबसे अच्छा विकल्प होता है उसे चुनते हैं और उसका अनुपालन करते हैं।

दरअस्ल यह आयतें अलग अलग विषयों में मुसलमानों की आज़ाद सोच और सही चयन की बात करती हैं। अक़्लमंद लोग सच बात का विरोध करने के बजाए उसे ग़ौर से सुनते हैं और जब समझ लेते हैं कि सत्य यही है तो उसे मान लेते हैं। यह भी समझदारी की निशानी है।

क़ुरआन के शब्दों यह लोग वही हैं जिनकी हिदायत अल्लाह ने की है।

 

इन आयतों से हमने सीखाः 

अल्लाह पर सच्चे ईमान की शर्त दुष्ट ताक़तों के वर्चस्व को नकारना और उनसे ख़ुद को दूर रखना है।

जब अलग अलग विचार और बातें सामने हों तो उनके अर्थ और विषयवस्तु पर ग़ौर करना चाहिए। इस पर ध्यान नहीं देना चाहिए कि उसे कौन बयान कर रहा है। इन बातों में जो सबसे अच्छी बातें और विचार हैं उन्हें अपनाना चाहिए।

अक़्ल तथा ईश्वरीय संदेश वहि के बीच कोई विरोधाभास नहीं है। दोनों अल्लाह के ठोस तर्क हैं जो इंसान को कल्याण और मुक्ति का रास्ता दिखाते हैं।

इस्लाम आज़ाद रूप से सोचने का पक्षधर है और खुली आंखों के साथ सही चयन दरअस्ल समझदारी वाला जीवन है।

 

अब आए सूरए ज़ोमर की आयत संख्या 19 और 20 की तिलावत सुनते हैं,

 

أَفَمَنْ حَقَّ عَلَيْهِ كَلِمَةُ الْعَذَابِ أَفَأَنْتَ تُنْقِذُ مَنْ فِي النَّارِ (19) لَكِنِ الَّذِينَ اتَّقَوْا رَبَّهُمْ لَهُمْ غُرَفٌ مِنْ فَوْقِهَا غُرَفٌ مَبْنِيَّةٌ تَجْرِي مِنْ تَحْتِهَا الْأَنْهَارُ وَعْدَ اللَّهِ لَا يُخْلِفُ اللَّهُ الْمِيعَادَ (20)

 

इन आयतों का अनुवाद हैः

तो (ऐ रसूल) भला जिस शख्स पर अज़ाब का वादा पूरा हो चुका हो तो क्या तुम उस शख्स को छुड़ा सकते है?  जो आग में (पड़ा) हो [39:19] मगर जो लोग अपने परवरदिगार से डरते रहे उनके ऊँचे-ऊँचे महल हैं (और) बाला ख़ानों पर बालाख़ाने बने हुए हैं जिनके नीचे नहरें जारी हैं ये खुदा का वायदा है (और) अल्लाह वायदा ख़िलाफी नहीं किया करता [39:20] 

चूंकि पैग़म्बर की दिली चाहत और भरपूर कोशिश यह थी कि सारे इंसान यहां तक कि गुमराह और नास्तिक लोग भी सही रास्ते पर आ जाएं। उन्हें लोगों की गुमराही और ग़लत रास्ते पर जाने का बड़ा दुखा रहता था। इसलिए यह आयतें पैग़म्बरे इस्लाम को संबोधित करते हुए कहती हैं कि क्या तुम समझते हो कि उन लोगों को जो अपने ग़लत चयन के नतीजे में जहन्नम के रास्ते पर चल पड़े हैं जहन्नम की आग से निजात दिला सकते हो? यह संभव नहीं है। जिन लोगों ने अल्लाह से अपना हर संपर्क तोड़ लिया है उनकी निजात की कोई संभावना नहीं है। यहां तक कि पैग़म्बर भी उनके लिए कुछ नहीं कर सकते।

जबकि इसके विपतरी जो ईमान और तक़वा के रास्ते पर चलने वाले लोग हैं क़यामत में उन्हें उच्च स्थान हासिल होगा और वे जन्नत के बाग़ों में आनंद उठा रहे होंगे। जन्नत में उनकी ज़िंदगी हर प्रकार के दुख, ग़म और पीड़ा से दूर होगी और वे मुकम्मल संतोष और शांति के माहौल में जीवन गुज़ारेंगे।

इन आयतों से हमने सीखाः

पैग़म्बरों की असली ज़िम्मेदारी इंसानों को सत्य और अल्लाह का रास्ता दिखाना और सही ढंग से जीवन गुज़ारने का तरीक़ा सिखाना था। लेकिन इसके साथ ही यह भी सच्चाई है कि इंसानों का कल्याण और निजात पैग़म्बरों के हाथ में नहीं है बल्कि यह ख़ुद इंसानों के अपने कर्म पर निर्भर है।

जो लोग द्वेष, दुश्मनी और ज़िद में पड़कर सत्य के रास्ते को अपने लिए बंद कर लेते हैं वे दरअस्ल अपनी मुक्ति और निजात का रास्ता बंद कर लेते हैं।

अगर अल्लाह पर ईमान है तो जन्नत और जहन्नम के बारे में उसके वादों पर यक़ीन होना चाहिए और इसके आधार पर अपने कर्मों के बारे में हमें हमेशा सतर्क रहना चाहिए।

 

अब आइए सूरए ज़ोमर की आयत संख्या 21 की तिलावत सुनते हैं,

 

أَلَمْ تَرَ أَنَّ اللَّهَ أَنْزَلَ مِنَ السَّمَاءِ مَاءً فَسَلَكَهُ يَنَابِيعَ فِي الْأَرْضِ ثُمَّ يُخْرِجُ بِهِ زَرْعًا مُخْتَلِفًا أَلْوَانُهُ ثُمَّ يَهِيجُ فَتَرَاهُ مُصْفَرًّا ثُمَّ يَجْعَلُهُ حُطَامًا إِنَّ فِي ذَلِكَ لَذِكْرَى لِأُولِي الْأَلْبَابِ (21)

 

 

इस आयत का अनुवाद हैः

 

क्या तुमने इस पर ग़ौर नहीं किया कि खुदा ही ने आसमान से पानी बरसाया फिर उसको ज़मीन में जलसोते बनाकर जारी किया फिर उसके ज़रिए से रंग बिरंग (के गल्ले) की खेती उगाता है फिर (पकने के बाद) सूख जाती है तो तुम को वह ज़र्द दिखायी देती है फिर खुदा उसे चूर-चूर भूसा कर देता है बेशक इसमें अक्लमन्दों के लिए (बड़ी) इबरत व नसीहत है [39:21] 

 

काफ़िरों और मोमिन बंदों के अंजाम की तुलना के बाद यह आयत दोबारा तौहीद या एकेश्वरवाद और क़यामत के विषय की ओर पलटती है और तौहीद की दलीलें पेश करते हुए आसमान से होने वाली बारिश का ज़िक्र करती है। क्योंकि ज़मीन पर जीवन इसी बारिश पर निर्भर है। अगर यह उपक्रम न होता यानी समुद्र का पानी भाप बनकर बादलों के रूप में न बदलता और फिर यह बादल अलग अलग जगहों पर जाकर पानी न बरसाते या हिमपात न करवाते तो ज़मीन के अधिकतर हिस्से सूख जाते और वहां जीवन का बाक़ी रह पाना कठिन बल्कि असंभव हो जाता।

यहां तक कि समुद्रों और नदियों के क़रीब बसने वाले लोग भी खेती और पीने के लिए पानी हासिल न कर पाते। क्योंकि समुद्र का पानी खारा और लवण युक्त होता है उसे इस्तेमाल के क़ाबिल बनाने के लिए बहुत मेहनत करनी पड़ती है और बड़ा पैसा ख़र्च होता है। चूंकि पानी का अधिकतर भाग खेती में इस्तेमाल होता है इसलिए यह संभव नहीं है कि इस बड़े पैमाने पर खारे पानी को मीठा किया जाए।

मगर प्रकृति में इस जटिलता को हैरतअंगेज़ रूप से हल कर लिया गया है। इस तरह से कि जब समुद्र का पानी भाप बन कर ऊपर उठता है तो लवण और अन्य पदार्थ उसके साथ नहीं जाते। नतीजे में पानी का विशुद्धीकरण हो जाता है और वह हिम या बर्फ़ तथा बारिश के रूप में ज़मीन पर गिरता है जो शुद्ध पानी होता है और इस्तेमाल के क़ाबिल होता है। यक़ीनन यह अल्लाह का इंतेज़ाम है कि इस तरह पानी को प्राकृतिक रूप से मीठा कर देता है और उसमें शामिल लवण तथा अन्य पदार्थों को अलग कर देता है ताकि इंसान और दूसरे प्राणी उसे इस्तेमाल कर सकें।

बारिश का पानी भूमिगत तहों में और बर्फ़ पहाड़ों के ऊपर जमा हो जाती है। समय गुज़रने के साथ वह पानी धीरे धीरे जलसोतों और नदियों के माध्यम से बहता है और इस्तेमाल में आता है।

अल्लाह की इस बड़ी नेमत के बारे में ग़ौर करके जो ज़मीन पर सारे प्राणियों और वनस्पतियों के जीवन का आधार है, इंसान अल्लाह की महानता और महिमा को किसी हद तक समझ सकता है।

इस आयत से हमने सीखाः

प्राकृतिक तथ्यों की शिनाख़्त और उनके बारे में चिंतन अल्लाह की पहिचान हासिल करने का तरीक़ा है। इसलिए ग़फ़लत में पड़कर इन तथ्यों को नज़रअंदाज़ नहीं करना चाहिए।

एक ही मिट्टी और पानी से रंग बिरंगे पेड़ पौधे, फूल और फल हासिल होते हैं। यह अल्लाह की ताक़त और महानता की निशानी है।

अक़्लमंदी यह है कि प्राकृतिक घटनाक्रमों की शिनाख़्त हासिल करने के साथ ही यह भी समझा जाए कि इन परिवर्तनों की वजह कौन सी हस्ती है।

 

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