Nov १६, २०२२ १९:३२ Asia/Kolkata

ज़ोमर 22 व 23

أَفَمَنْ شَرَحَ اللَّهُ صَدْرَهُ لِلْإِسْلَامِ فَهُوَ عَلَى نُورٍ مِنْ رَبِّهِ فَوَيْلٌ لِلْقَاسِيَةِ قُلُوبُهُمْ مِنْ ذِكْرِ اللَّهِ أُولَئِكَ فِي ضَلَالٍ مُبِينٍ (22)

इस आयत का अनुवाद हैः

 

तो क्या वह शख़्स जिस के सीने को खुदा ने इस्लाम (क़ुबूल करने) के लिए कुशादा कर दिया है और वह अपने परवरदिगार (की हिदायत) की रौशनी पर (चलता) है  (वह कठोर दिल लोगों के समान हो सकता है?) अफसोस तो उन लोगों पर है जिनके दिल ख़ुदा की याद से (ग़ाफ़िल होकर) सख़्त हो गए हैं। वे खुली हुई गुमराही में हैं।  [39:22]

 

क़ुरआन और आसमानी संदेश बारिश की बूंदों के समान हैं जो दिल के पटल पर उतरती हैं। जिस तरह क्षमता रखने वाली उपजाऊ ज़मीन बारिश की जीवनदायक बूंदों से लाभ उठाती है उसी तरह अल्लाह की निशानियों और आयतों से भी उन्हीं दिलों को फ़ायदा पहुंचता है जो अल्लाह के करम और आत्म निर्माण की छाया में अपने अंदर क्षमता रखते हों।

हक़ और सत्य को स्वीकार करने के मामले में सारे इंसान एकसमान रुजहान नहीं रखते। क़ुरआन के अनुसार कुछ बड़े खुले दिल के साथ उसे गले लगाते हैं और कुछ तंगनज़री दिखाते हैं।

यह आयत अल्लाह पर ईमान रखने के इंसान की ज़िंदगी पर पड़ने वाले असर के बारे में बात करती है। आयत कहती है कि अगर कायनात को केवल भौतिक दुनिया तक सीमित कर दिया जाए तो इसके नतीजे में ज़िंदगी और उससे जुड़े अलग अलग पहलुओं के बारे में इंसान की सोच और नज़र बहुत सीमित हो जाएगी। अल्लाह के वुजूद का इंकार करने वाला व्यक्ति सांसारिक लज़्ज़त और आनंद को ही अपनी ख़ुश क़िस्मती का पैमाना समझता है। इसलिए उसकी आत्मा भी सीमित हो जाती है। लेकिन अल्लाह पर ईमान रखने वाला इंसान जो परालौकिक दुनिया का अक़ीदा रखता है वह दुनिया की ज़िंदगी को आख़ेरत की ज़िंदगी की भूमिका समझता है और उसकी रूह की क्षमता बहुत बढ़ जाती है।

अल्लाह पर ईमान इंसान की क्षमताओं को विस्तृत कर देता है और उसकी आंखें खोल देता है। इस इंसान की निगाहें केवल 70 या 80 साल की ज़िंदगी तक सीमित नहीं रहतीं जो बहुत जल्द ख़त्म हो जाने वाली है। बल्कि उसकी निगाह अनंत संसार पर केन्द्रित रहती है जो कभी समाप्त होने वाला नहीं है। इस प्रकार के इंसान की रूह और उसका मन बहुत विशाल होता है और वह हल्के से इशारे और नसीहत से जाग उठता है। वह अल्लाह की किताब से मिलने वाले नूर की रौशनी के सहारे दुनिया के अंधेरों और कठिनाइयों के बीच से गुज़रता चला जाता है और सही रास्ता तलाश कर लेता है और जीवन का सफ़र सलामती के साथ तय करता है।

इस समूह के दूसरी तरफ़ वे लोग हैं जो बिल्कुल पुख़्ता दलीलों और उपदेशों को भी क़ुबूल नहीं करते। उनकी आत्मा और सोच बहुत सीमित होती है। उनके वुजूद में जैसे सत्य को क़ुबूल करने की कोई गुंजाइश ही नहीं होती। वे संगदिल और अंधेरे में डूबे हृद्य के मालिक होते हैं जहां अल्लाह की रहनुमाई का प्रकाश नहीं पहुंचता।

अलबत्ता यह भी साफ़ है कि जो लोग अल्लाह के वुजूद का इंकार करते हैं और उसे भूल बैठते हैं, वे हमेशा बेचैन और परेशान रहते हैं। क्योंकि उनके लिए मौत हर चीज़ को गवां देने का मरहला होता है।

इस आयत से हमने सीखाः

अल्लाह पर ईमान रखने के नतीजे में इंसान का सीना और दिल बहुत विशाल और कुशादा हो जाता है और उसकी नज़र बहुत व्यापक हो जाती है। ईमान इंसान की क्षमताओं और वुजूद की गुंजाइश को बढ़ा देता है। जिसके पास ईमान हो वह हमेशा सत्य को स्वीकार करता है।

मोमिन इंसान अल्लाह के नूर की रौशनी में ज़िंदगी के उतार चढ़ाव से गुज़रता है, उसके फिसलने और भटकने की आशंका बहुत कम होती है।

अनेकेश्वरवाद और नास्तिकता तथा हक़ का इंकार करने से दिल कठोर बन जाता है। जब दिल कठोर हो जाए तो उस पर अल्लाह की हिदायत का नूर नहीं पहुंचता। इसके नतीजे में इंसान हमेशा अंधेरे और गुमराही में फंसा रहता है।

 

अब आइए सूरए ज़ोमर की आयत संख्या 23 की तिलावत सुनते हैं,

 

اللَّهُ نَزَّلَ أَحْسَنَ الْحَدِيثِ كِتَابًا مُتَشَابِهًا مَثَانِيَ تَقْشَعِرُّ مِنْهُ جُلُودُ الَّذِينَ يَخْشَوْنَ رَبَّهُمْ ثُمَّ تَلِينُ جُلُودُهُمْ وَقُلُوبُهُمْ إِلَى ذِكْرِ اللَّهِ ذَلِكَ هُدَى اللَّهِ يَهْدِي بِهِ مَنْ يَشَاءُ وَمَنْ يُضْلِلِ اللَّهُ فَمَا لَهُ مِنْ هَادٍ (23)

 

इस आयत का अनुवाद हैः

ये लोग सरीही गुमराही में (पड़े) हैं ख़ुदा ने बहुत ही अच्छा कलाम (यानी ये) किताब नाज़िल फरमाई (जिसकी आयतें) एक दूसरे से मिलती जुलती हैं और (एक बात कई-कई बार) दोहराई गयी है उस (के सुनने) से उन लोगों के रोंगटे खड़े हो जाते हैं जो अपने परवरदिगार से डरते हैं। फिर उनके जिस्म और उनके दिल ख़ुदा के ज़िक्र की तरफ़ मुतवज्जे हो जाते हैं। ये ख़ुदा की हिदायत है। इसी से जिसकी चाहता है हिदायत करता है और ख़ुदा जिसको गुमराही में छोड़ दे तो उसको कोई राह पर लाने वाला नहीं [39:23]

 

पिछली आयतों की बहस के सिलसिले को आगे बढ़ाते हुए यह आयत पहले क़ुरआन की कुछ विशेषताएं बयान करती है और उसके बाद मोमिनों और काफ़िरों के हालात की तुलना करती है जिसका ज़िक्र इससे पहले की आयतों में भी था।

क़ुरआन की आयतों में कोई विरोधाभास नहीं है। बल्कि यह आयतें एक दूसरे से समन्वित हैं। जिस तरह अल्लाह और मख़लूक़ की आपस में तुलना नहीं हो सकती उसी तरह अल्लाह के कलाम की तुलना भी बंदों की बातों से नहीं की जा सकती। क़ुरआन अल्लाह का कलाम और सबसे महान वाणी है। क़ुरआन में अल्लाह के कलाम और संवाद में एक विशेष लय और समन्वय है जो इस कलाम को दूसरे तमाम इंसानों यहां तक कि पैग़म्बर के कलाम से अलग अंदाज़ प्रदान करता है। क़ुरआन तो पैग़म्बर की ज़बान पर जारी हुआ, मुसलमानों ने क़ुरआन पैग़म्बर की ज़बान से सुना। लेकिन क़ुरआन की आयतों और पैग़म्बर के कथनों में बहुत स्पष्ट और गहरा फ़र्क़ नज़र आता है।

वैसे तो आयतें एक दूसरे से मिलती हैं और एक मक़सद पर ज़ोर देती हैं लेकिन क़ुरआन की शैली यह है कि बहुत से अवसरों पर क़ुरआन की आयतें एक ही विषय के दो विपरीत पहलुओं की समीक्षा करती हैं। यह उसूल यह है कि चीज़ों को उनकी विरोधाभासी और विपरीत चीज़ की मदद से पहचनवाया जाता है। क़ुरआन की शैली भी यह है कि हक़ और सत्य की तर्कसंगत और ठोस शिक्षाओं की तुलना ग़लत और कमज़ोर तर्कों से करता है। क़ुरआन इसी तरह सत्य और असत्य दोनों मार्ग के राहगीरों के अंजाम के बारे में बताता है। मिसाल के तौर पर कुछ आयतें ईमान और मोमिनों के बारे में हैं और कुछ आयतें कुफ़्र और काफ़िरों के बारे में हैं। कुछ आयतों का संबंध अल्लाह के इन आदेशों से है जिनमें हलाल और वाजिब के बारे में बताया गया है तो कुछ आयतों में हराम और ग़लत चीज़ों के बारे में बात की गई है। कुछ आयतें हिदायत और उसके कारकों और कुछ आयतें गुमराही और उसकी वजहों के बारे में बात करती हैं।

तुलनात्मक शैली की मदद से क़ुरआन इंसानों को हर चीज़ के सकारात्मक और नकारात्मक आयामों के बारे में बताता है और बेहतरीन मार्ग की निशानदेही करता है।

एक और बिंदु यह कि मोमिन बंदे डर और उम्मीद के बीच की स्थिति में जीवन गुज़ारते हैं। एक तरफ़ वे अपनी कमियों को देखते हैं तो डर जाते हैं लेकिन दूसरी ओर अल्लाह के करम पर उनकी नज़र पड़ती है तो उनके मन में आशा की रोशनी पैदा होती है और उनके दिलों को सुकून मिलता है।

यक़ीनन क़ुरआन की आयतें सारे इंसानों के लिए नाज़िल की गई हैं लेकिन इन की हिदायत से वही लाभ उठा पाते हैं जो सत्य और हक़ को स्वीकार करने वाले हों। जो लोग हक़ और सत्य का इंकार करते हैं अल्लाह की रहनुमाई से वे महरूम रह जाते हैं और गुमराही में पड़ जाते हैं।

इस आयत से हमने सीखाः

क़ुरआन सबसे अच्छा कलाम है।

क़ुरआन की आयतों के बीच कोई विरोधाभास नहीं सबका लक्ष्य एक है। वे एक दूसरे से समानता रखती हैं उनमें कोई असमन्वय और टकराव नहीं है।

ईमान वाले लोग जब अज़ाब की आयतों को पढ़ते हैं तो उन पर ख़ौफ़ छा जाता है और रहमत की आयतें पढ़कर उनके दिलों में उम्मीद पैदा होती है।

अल्लाह ने सारे इंसानों के लिए हिदायत की ज़रूरी चीज़ें मुहैया करा दी हैं। क़ुरआन किसी समूह विशेष की हिदायत के लिए नहीं है। क़ुरआन सबकी हिदायत की किताब है, सब उसकी पहुंच में हैं लेकिन इसके प्रकाश से वही लाभ उठा पाएंगे जो सत्य और हक़ को स्वीकार करने के लिए तैयार होंगे।

 

 

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