क़ुरआन ईश्वरीय चमत्कार 893
सूरए फ़ुस्सेलत आयतें 1-7
सूरए फ़ुस्सेलत आयत नंबर 1 से 4
حم (1) تَنْزِيلٌ مِنَ الرَّحْمَنِ الرَّحِيمِ (2) كِتَابٌ فُصِّلَتْ آَيَاتُهُ قُرْآَنًا عَرَبِيًّا لِقَوْمٍ يَعْلَمُونَ (3) بَشِيرًا وَنَذِيرًا فَأَعْرَضَ أَكْثَرُهُمْ فَهُمْ لَا يَسْمَعُونَ (4)
इन आयतों का अनुवाद हैः
हा मीम [41:1] (ये किताब) रहमान व रहीम ख़ुदा की तरफ़ से नाज़िल हुई है ये (वह) किताब अरबी क़ुरान है। [41:2] जिसकी आयतें समझदार लोगों के वास्ते विस्तार से बयान कर दी गयी हैं। [41:3] (नेक लोगों के लिए) ख़़ुशख़बरी देने वाली और (बदकारों को) डराने वाली है इस पर भी उनमें से अक्सर ने मुँह फेर लिया और वे सुनते ही नहीं। [41:4]
हम इससे पहले भी यह बात कर चुके हैं कि क़ुरआन के 29 सूरे ऐसे हैं जो एक दूसरे से अलग कुछ अक्षरों से शुरू होते हैं और जिन्हें हुरूफ़े मुक़त्तेआत कहा जाता है। सूरए फ़ुस्सेलत भी इन्हीं सूरों में शामिल है। इसकी शुरुआत हा मीम से हुई है। इसके बाद यह बात की गई है कि क़ुरआन रहमते परवरदिगार के सोते से निकला है। इसलिए इसकी आयतें सारे इंसानों के लिए रहमत का पैग़ाम लाई हैं। अलबत्ता मोमिन बंदे इसकी रहमत का फ़ायदा उठाते हैं और काफ़िर ख़ुद को वंचित रखते हैं।
यहां यह बताना ज़रूरी है कि क़ुरआन की आयतें लिखित रूप में नाज़िल नहीं हुईं। यह नहीं कि पैग़म्बर ने अपने हाथों से इन आयतों को लिखा हो। बल्कि अल्लाह के रसूल तो अल्लाह की तरफ़ से आने वाले पैग़ाम यानी वहि को लोगों के सामने पढ़ दिया। इसीलिए इसका नाम क़ुरआन पड़ा जिसका अर्थ होता है पढ़ा हुआ। पैग़म्बर के आदेश पर उनके चार सहाबियों ने उनके ज़रिए पढ़ी जाने वाली आयतों को लिखा। इसीलिए इसका दूसरा नाम किताब है यानी जिसे लिखा गया हो।
क़ुरआन अरबी ज़बान में बिल्कुल अलग अंदाज़ की इबारतों और आयतों के साथ नाज़िल हुआ। इसकी आयतें जिसके सामने पढ़ी जाती हैं उसे सच्चाई का पता लग जाता है। अलबत्ता क़ुरआन जानकारी, ज्ञान और मारेफ़त प्रदान करने के साथ ही ख़ुशख़बरी और चेतावनी के ज़रिए लोगों को भले कर्म अंजाम देने के लिए प्रोत्साहित करता है और बुरे काम अंजाम देने और नाशुक्री करने से रोकता है।
पैग़म्बरों ने जब सत्य और हक़ का पैग़ाम दिया तो बहुत से लोगों ने मुंह फेर लिया। क्योंकि यह शिक्षाएं उनकी आंतरिक इच्छाओं के रास्ते में रुकावट बन जाती हैं और उन्हें यह अनुमति नहीं देतीं कि जो जी में आए बोलें या जो दिल में आए करें।
इन आयतों से हमने सीखाः
क़ुरआन अल्लाह का कलाम है, पैग़म्बरे इस्लाम का नहीं। इस किताब की विषयवस्तु अल्लाह की असीम रहमत से प्रवाहित होती है। क़ुरआन के शब्द भी और उसका पैग़ाम और मंतव्य भी सब कुछ अल्लाह की तरफ़ से है जो बड़ा मेहरबान है। ज़ाहिर है कि अगर इन शिक्षाओं पर अमल किया जाएगा तो इससे मानव समाज की तरक़्क़ी होगी।
क़ुरआन में इंसान के विकास और मार्गदर्शन में जिन चीज़ों का असर होता है उन्हें अलग अलग रूपों में पेश कर दिया गया है। कहीं पिछली क़ौमों की कहानी बयान की गई है, कहीं पाठदायक बातों का ज़िक्र है, कहीं अल्लाह की नेमतों, आदेशों मनाही की चीज़ो का ज़िक्र है। सभ्यताओं के पतन और विनाश की वजहें बयान की गई हैं, क़यामत के दिन के हालात, शिष्टाचारिक उपदेश सब कुछ है।
क़ुरआन इंसान को इल्म, जानकारी और प्रकाश देता है। जो भी सच्चाई और हक़ीक़त को समझना चाहता है उसे क़ुरआन की बातों पर मंथन करना चाहिए।
प्रशैक्षणिक उसूलों के हिसाब से डर, उम्मीद, ख़ुशख़बरी और चेतावनी यह सारी चीज़ें एक साथ होनी चाहिए। एक पर ध्यान देने और दूसरे को नज़रअंदाज़ करने से बड़ा नुक़सान पहुंचता है।
आयत संख्या 5
وَقَالُوا قُلُوبُنَا فِي أَكِنَّةٍ مِمَّا تَدْعُونَا إِلَيْهِ وَفِي آَذَانِنَا وَقْرٌ وَمِنْ بَيْنِنَا وَبَيْنِكَ حِجَابٌ فَاعْمَلْ إِنَّنَا عَامِلُونَ (5)
इस आयत का अनुवाद हैः
और कहने लगे कि जिस चीज़ की तरफ़ तुम हमें बुलाते हो उससे तो हमारे दिल पर्दों में हैं (कि बात दिल को नहीं लगती) और हमारे कानों में भारीपान (बहरापन है) कि कुछ सुनायी नहीं देता और हमारे तुम्हारे दरमियान एक पर्दा है तो तुम (अपना) काम करो हम (अपना) काम करते हैं।[41:5]
यह आयत पैग़म्बरे इस्लाम की तरफ़ से इस्लाम की दावत दिए जाने के जवाब में मक्के के नास्तिकों की प्रतिक्रिया को बयान करती है। आयत कहती है कि जब पैग़म्बर ने उनके सामने क़ुरआन की तिलावत की तो उन्होंने उससे सुनने और उस पर ध्यान देने के बजाए पैग़म्बर को निराश करने के लिए कहते थे कि हे मुहम्मद व्यर्थ कोशिश न कीजिए। हमारे कान तुम्हारी बातों को नहीं सुन रहे हैं और जो बात हमारे कान सुनते हैं वह हमारे दिल तक नहीं जाती। यानी हमारे और तुम्हारे बीच एक प्रकार की दीवार है जिसकी वजह से हम आपकी बात स्वीकार नहीं कर सकते। तो हमें हमारे हाल पर छोड़ दो हम जो चाहें करें। हम भी आपको आपके हाल पर छोड़ देंगे और आप जो दिल चाहे कीजिए।
इस आयत से हमने सीखाः
क़ुरआन की आयतें ज़मीन पर गिरने वाली बारिश की बूंदों की तरह हैं जो ज़मीन को हरा भरा कर देती हैं मगर पत्थर पर गिरती हैं तो भीतर नहीं जातीं। ज़िद्दी लोगों के दिल भी इन्हीं पत्थरों की तरह हैं जिन पर आयतों का कोई असर नहीं होता।
अगर कोई व्यक्ति सत्य बात स्वीकार न करने की ठान कर बैठा हो तो उस पर अल्लाह और पैग़म्बर की बातों का भी असर नहीं होता तो दूसरों की बातों का ज़िक्र ही क्या।
द्वेष और अंधा अनुसरण इंसान के दिल पर पर्दा डाल देता है जिसकी वजह से वह सत्य को समझने और स्वीकार करने से वंचित रहता है।
आयत संख्या 6 और 7
قُلْ إِنَّمَا أَنَا بَشَرٌ مِثْلُكُمْ يُوحَى إِلَيَّ أَنَّمَا إِلَهُكُمْ إِلَهٌ وَاحِدٌ فَاسْتَقِيمُوا إِلَيْهِ وَاسْتَغْفِرُوهُ وَوَيْلٌ لِلْمُشْرِكِينَ (6) الَّذِينَ لَا يُؤْتُونَ الزَّكَاةَ وَهُمْ بِالْآَخِرَةِ هُمْ كَافِرُونَ (7)
इन आयतों का अनुवाद हैः
(ऐ रसूल) कह दो कि मैं भी बस तुम जैसा आदमी हूँ (मगर फ़र्क ये है कि) मुझ पर 'वहि' आती है कि तुम्हारा माबूद बस (वही) अनन्य ख़ुदा है तो सीधे उसकी तरफ़ ध्यान दो और उसी से क्षमा की दुआ माँगो, और अनेकेश्वरवादियों पर अफ़सोस है। [41:6] जो ज़कात नहीं देते और आख़ेरत के भी क़ायल नहीं। [41:7]
नास्तिक और अनेकेश्वरवादी ज़िद में जो बातें करते थे उसके जवाब में पैग़म्बरे इस्लाम कहते हैं कि मैं भी तुम्हारी तरह एक इंसान हूं, मैं ख़ुदाई का दावा नहीं करता, न यह कहता हूं कि तुम सबसे श्रेष्ठ हूं, मैं तुम्हारी ही नस्ल से और तुम्हारे की क़बीले से हूं। मेरे और तुम्हारे बीच बस एक फ़र्क़ है कि मेरे हृदय पर वहि के रूप में अल्लाह का संदेश आता है कि कुफ़्र और शिर्क से दूर रहूं और तुम्हें भी अनन्य ख़ुदा की इबादत की दावत दूं।
तुम मुझसे इस अंदाज़ में बात करते हो तो जान लो कि मैं तुम्हें अपनी बात मानने के लिए मजबूर नहीं करता बल्कि मैं बस सत्य का रास्ता तुम्हें दिखा देना चाहता हूं कि और तुमसे कहता हूं कि अल्लाह के रास्ते पर चलो और अपने पिछले कामों से बाज़ आ जाओ ताकि अल्लाह तुम्हारी ग़लतियों को माफ़ कर दे।
आयत के आख़िर में अनेकेश्वरवादियों को चेतावनी दी गई है कि शिर्क पर ही क़ायम रहने का बहुत बुरा अंजाम होगा। इसके बाद अनेकेश्वरवादियों के बारे में बात करते हुए उनकी दो खासियतों को बयान किया गया है। एक क़यामत का इंकार और दूसरे ज़रूरतमंदों को नज़र अंदाज़ करना और उनके लिए हरगिज़ ख़र्च न करना यह भी क़यामत के इंकार की ही निशानी है। क्योंकि जिसे अल्लाह पर अक़ीदा नहीं है वह हर चीज़ हड़प लेने की कोशिश करता है, दूसरों के लिए ख़र्च करने की उसकी इच्छा कभी नहीं होती।
इन आयतों से हमने सीखाः
पैग़म्बर लोगों को अल्लाह की तरफ़ बुलाते हैं, अपनी तरफ़ नहीं। उनका मक़साद इंसानों को बाहरी सरकश ताक़तों और आंतरिक इच्छाओं के चंगुल से आज़ाद कराना है।
अल्लाह को एक मानने के अक़ीदे का असर जीवन के हर क्षेत्र में होना चाहिए। तौहीद केवल एक अक़ीदा नहीं है बल्कि एक जीवनशैली है।
मोमिन इंसान तौहीद की राह में मज़बूत क़दमों के साथ आगे बढ़ता है। वह हमेशा पिछली ग़लतियों की भरपाई की फ़िक्र में रहता है। ताकि अल्लाह की राह पर टिका रहे और सत्य के मार्ग से न हटे।
ईमान के लिए सिर्फ़ दावा काफ़ी नहीं है, जो मोमिन इंसान ज़कात नहीं देता उसके वजूद में शिर्क और कुफ़्र का असर होता है।