Jul २१, २०२० १९:४२ Asia/Kolkata

कार्यक्रम में बैतुल मुक़द्दस अभियान की तय्यारी और ख़र्रम शहर की आज़ादी पर चर्चा करेंगे।

८० के दशक में इराक़ के बासी शासन के अतिक्रमण के मुक़ाबले में ईरानी राष्ट्र की आठ साल की पवित्र के वर्णन पर आधारित कार्यमक्रम की एक और कड़ी के साथ आपकी सेवा में हाज़िर हैं। आपको याद होगा कि पिछले कार्यक्रम में हमने फ़त्हुल मुबीन नामक अभियान के आंतरिक व क्षेत्रीय प्रभाव के बारे में बताया था।

ईरान ने इस रणनीति को लागू कर कम से कम नुक़सान उठाने और सद्दाम के ­­­­­बासी शासन को ज़्यादा नुक़सान पहुंचाने की मिसाल स्थापित कर दी। ये सभी लक्ष्य सामेनुल आइम्मा अलैहिस्सलाम , तरीक़ुल क़ुद्स और फ़त्हुल मुबीन नामक तीन अभियान में हासिल हुए। इन तीन अभियान में जहां एक ओर इराक़ी सेना की टुकड़िया का ताना बाना बिखार गया और उनकी रक्षा पंक्ति छिन्न भिन्न हो गयी, वहीं दूसरी ओर ईरानी फ़ोर्सेज़ की शक्ति में वृद्वि हुयी।

एक ईरानी वीर जवान कहता है:

जंग के मोर्चों पर जनता में ख़ास तौर पर युवा वर्ग की मौजूदगी कई अभियान की सफलता से और बढ़ गयी। अगर जनता का समर्थन न होता तो यह सफलता नहीं मिलती। जंग के संचालन की शैली जनता की भागीदारी वाली जंग जैसी थी जिसे पहले सीमित स्तर पर तरीक़ुल क़ुद्स नामक अभियान में लागू किया गया जो फ़त्हुल मुबीन नामक अभियान में विस्तृत रूप में लागू हुयी।

इराक़ की बासी सेना से इस्लामी गणतंत्र के जियालों की लड़ाई पारंपरिक जंग की तरह नहीं बल्कि एसी लड़ाई थी जिसमें जनता ने भाग लिया था । इराक़ी सेना को हर अभियान के बाद जिसमें उसे बहुत से सिपाही मारे जाते और उसके सैन्य उपकरण ध्वस्त होते , पूर्वी और पश्चिमी ब्लाक के ५६ देशों की तुरंत सैन्य मदद मिलती और वे अगली बार आधुनिक उपकरणों से लैस होकर मैदान में आती।

ईरानी सेना में किसान, मज़दूर, कर्मचारी, छात्र व शिक्षक सहित समाज के सभी वर्ग के लोग शामिल थे। ईरानी जवानों की माएं अपने सपूतों को रणक्षेत्र भेजने के साथ साथ जंग की तय्यारियों में भी मदद करती थीं। पवित्र प्रतिरक्षा के आठ साल की जंग, पूरी तरह से जनता के योगदान पर आधारित जंग थी और इसने शौर्य की एसी मिसाल पेश की जो दुनिया की जंगों के इतिहास में बहुत कम मिलती है।

फ़त्हुल मुबीन अभियान की समाप्ति के बाद इराक़ी सेना यह समझ गयी थी कि ईरानी सेना का अगला लक्ष्य ख़ुर्रमशहर और पश्चिमी कारून क्षेत्र होगा। फ़त्हुल मुबीन अभियान के अंत से बैतुल मुक़द्दस के आरंभ तक सिर्फ़ एक महीने का समय था। इसलिए इस कम समय में पेशेवराना रंगरूट तय्यार करना आईआरजीसी के आश्चर्यजनक कारनामों  था। लेकिन इस अभियान का अहम बिन्दु जो इराक़ी फ़ोर्सेज़ की हार का मुख्य कारण था, वह अभियान की विशेष युक्ति अर्थात कारून नदी को पार करने की विशेष टैक्टिक थी।

राष्ट्र के सपूतों को तय्यार करने के लिए एक कमान्डर उन्हें इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के असत्य के ख़िलाफ़ कर्बला के अभियान की याद दिलाता और इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम द्वारा अपने प्रिय मित्र हज़रत हबीब बिन मज़ाहिर को कूफ़ा शहर भेजे गए ख़त का हवाला देता है जिसमें इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम हज़रत हबीब को सत्य के अभियान की तरफ़ जल्दी करने के लिए प्रेरित करते हैं।

इराक़ की बासी सेना के अतिक्रमण के आरंभ में ख़ुर्रमशहर की रक्षा करने वालों का ३४ दिवसीय प्रतिरोध का पूरी ईरानी जनता ख़ास तौर पर योद्वाओं व जियालों के कम मन पर बहुत गहरा असर हुआ था।

२२ सितंबर १९८० को दोपहर के बाद ख़ुर्रमशहर की बंदरगाह इराक़ी सेना की भीषण गोलाबारी के निशाने पर थी। शहर पर दुश्मन के तोप और मार्टर गोलों की भीषण वर्षा हो रही थी। शहर आग में जल रहा था और हर क्षण धमाके की आवाज़ सुनाई देती थी। थोड़ी ही देर में अस्पताल घायलों और शहीदों के शव से भर गए।

 

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