Nov १५, २०२१ २०:१३ Asia/Kolkata

सूरए साफ़्फ़ात की आयतें 161-173

 

فَإِنَّكُمْ وَمَا تَعْبُدُونَ (161) مَا أَنْتُمْ عَلَيْهِ بِفَاتِنِينَ (162) إِلَّا مَنْ هُوَ صَالِ الْجَحِيمِ (163)

इन आयतों का अनुवाद हैः

अतः तुम और जिनको तुम पूजते हो वे, (37:161) तुम सब अल्लाह के विरुद्ध किसी को बहका नहीं सकते, (37:162) सिवाय उसके जो जहन्नम की भड़कती आग में पड़ने ही वाला हो (37:163)

पिछले कार्यक्रम में हमने फ़रिश्तों और जिन्नातों के बारे में अनेकेश्वरवादियों की ग़लत आस्थाओं के बारे में बात की थी। इसके बाद इन आयतों में कहा गया है कि तुम मूर्ति की पूजा करने वाले लोग अपनी ग़लत सोच से दूसरों को गुमराह नहीं कर सकते। क्योंकि अक़्ल, विवेक और पाकीज़ा दिल रखने वाले लोग तुम्हारी बातों को हरगिज़ स्वीकार नहीं करेंगे, तुम्हारी तर्कहीन बातों को क़ुबूल नहीं करेंगे।

अलबत्ता जो लोग जहन्नमी लोगों के रास्ते पर चलना चाहते हैं वे अपनी इच्छा से, अनेकेश्वरवादियों का अनुसरण कर सकते हैं और उनके ग़लत रास्ते पर चल सकते हैं।

 

इन आयतों से हमने सीखाः

अल्लाह ने इंसान को आज़ाद पैदा किया है। इंसान अपने रास्ते और जीवनशैली के चयन में अपने इरादे और इच्छा के अनुसार अमल कर सकता है, उसे कोई भी किसी अन्य रास्ते के चयन पर मजबूर नहीं कर सकता।

रास्ता चुनने का अख़तियार इंसान को है। लेकिन जो रास्ता भी इंसान चुनेगा उसकी मंज़िल और अंजाम वही होगा जो उस रास्ते पर चलने वालों का होता है। इसलिए यह नहीं हो सकता कि इंसान ज़ुल्म और नास्तिकता के रास्ते पर चले और यह उम्मीद रखे कि जन्नत में पहुंच जाएगा।

 

अब आइए सूरए साफ़्फ़ात की आयत संख्या 164 से 166 तक की तिलावत सुनते हैं,

وَمَا مِنَّا إِلَّا لَهُ مَقَامٌ مَعْلُومٌ (164) وَإِنَّا لَنَحْنُ الصَّافُّونَ (165) وَإِنَّا لَنَحْنُ الْمُسَبِّحُونَ (166)

 

इन आयतों का अनुवाद हैः

और हमारी ओर से उसके लिए अनिवार्यतः एक ज्ञात और नियत स्थान है (37:164) और हम ही पंक्तिबद्ध करते है। (37:165) और हम ही तसबीह करते है (37:166)

अनेकेश्वरवादी फ़रिश्तों के बारे में ग़लत धारणा रखते थे। वह बेटियों को कमज़ोर और पस्त समझते थे और फ़रिश्तों को अल्लाह की बेटियां समझते थे और इस तरह उन्हें अल्लाह से जोड़ते थे।

यह आयतें फ़िरिश्तों की ज़बानी यह बात कहती हैं कि तुम्हारी धारणा के ख़िलाफ़ हम फ़रिश्ते लड़के या लड़कियां नहीं हैं, हम मज़बूत मख़लूक़ हैं और हमारे हर समूह के लिए अल्लाह ने कुछ ज़िम्मेदारियां तय कर दी हैं और हम उसकी आज्ञापालन के लिए तैयार हैं। हम अल्लाह को तुम अनेकेश्ववादियों की सारी ग़लत सोच और आस्थाओं से पवित्र जानते हैं और हमेशा उसके नाम का जाप और गुणगान करते रहते हैं।

इन आयतों से हमने सीखाः

अल्लाह दुनिया के मामलों का संचालन भौतिक और आध्यात्मिक कारकों के ज़रिए करता है और दुनिया के मामलों के संचालन में फ़रिश्तों की महत्वपूर्ण भूमिका है।

फ़रिश्ते अल्लाह की संतान नहीं वह अल्लाह की रचनाएं हैं जिनके ज़िम्मे अल्लाह के फ़रमान को अमली जामा पहनाना है। वह इस ज़िम्मेदारी के लिए बहुत व्यवस्थित रूप में पंक्तिबद्ध रहते हैं।

फ़रिश्तों की दुनिया में हर फ़रिश्ते के लिए ख़ास स्थान और ज़िम्मेदारी है और महत्व के हिसाब से उनके बीच एक निर्धारित क्रम पाया जाता है।

 

अब आइए सूरए साफ़्फ़ात की आयत संख्या 167 से 170 तक की तिलावत सुनें,

 

وَإِنْ كَانُوا لَيَقُولُونَ (167) لَوْ أَنَّ عِنْدَنَا ذِكْرًا مِنَ الْأَوَّلِينَ (168) لَكُنَّا عِبَادَ اللَّهِ الْمُخْلَصِينَ (169) فَكَفَرُوا بِهِ فَسَوْفَ يَعْلَمُونَ (170)

 

इन आयतों का अनुवाद हैः

वे तो कहा करते थे, (37:167) "यदि हमारे पास पिछलों की कोई शिक्षा होती (37:168) तो हम अल्लाह के चुने हुए बन्दे होते।" (37:169) किन्तु उन्होंने इनकार कर दिया, तो अब जल्द ही वे जान लेंगे (37:170)

रिवायतों में आया है कि पैग़म्बरे इस्लाम के आने और क़ुरआन नाज़िल होने से पहले मक्के के अनेकेश्वरवादी अरब जगत में बसने वाले यहूदियों और ईसाइयों से कहते थे कि अगर अल्लाह हमारे लिए पैग़म्बर और किताब भेजे तो हम भी उस पर ईमान लाएंगे और उसका अनुपालन करेंगे।

यह आयतें कहती हैं कि अल्लाह ने यही किया और उनकी हिदायत के लिए क़ुरआन नाज़िल किया। लेकिन फिर भी वह अलग अलग बहाने करके हक़ बात मानने से इंकार करने लगे तो वह बहुत जल्द अपने इस कर्म का ख़मियाज़ा भुगतेंगे।

इन आयतों से हमने सीखाः

अल्लाह ने इंसानों को अपने तर्क से लाजवाब कर देने के लिए पैग़म्बरों और आसमानी किताबों को भेजा ताकि किसी के भी पास हक़ का रास्ता छोड़ कर नास्तिकता और अनेकेश्वरवाद के रास्ते पर जाने का कोई बहाना न रहे और वह अपने कर्मों के लिए अल्लाह को दोषी न ठहरा सकें।

झूठे दावे करने वाले तो बहुत होते हैं। कुछ तो ऐसे हैं कि जो ज़बान से तो दावा करते हैं कि वह दीन को मानते हैं लेकिन अमल में वह हक़ बात को नहीं मानते और धर्म का विरोध करते हैं।

 

अब आइए सूरए साफ़्फ़ात की आयत संख्या 171 से 173 तक की तिलावत सुनें,

وَلَقَدْ سَبَقَتْ كَلِمَتُنَا لِعِبَادِنَا الْمُرْسَلِينَ (171) إِنَّهُمْ لَهُمُ الْمَنْصُورُونَ (172) وَإِنَّ جُنْدَنَا لَهُمُ الْغَالِبُونَ (173)

 

 

इन आयतों का अनुवाद हैः

और हमारे अपने उन बन्दों के हक़ में, जो रसूल बनाकर भेजे गए, हमारी बात पहले ही निश्चित हो चुकी है (37:171) कि निश्चय ही उन्हीं की सहायता की जाएगी। (37:172) और निश्चय ही हमारी सेना ही हावी रहेगी (37:173)

पिछली आयतों की बात को आगे बढ़ाते हुए जिनमें अनेकेश्वरवादियों के इंकार की बात कही गई, यह आयतें आगे कहती हैं कि ईमान वाले अपनी आस्था में या अपने अमल में कोई कमज़ोरी या ढील न आने दें। क्योंकि अल्लाह ने वादा किया है कि अगर ईमान लाने वाले लोग पैग़म्बरों का अनुसरण करते हुए अपने मार्ग पर डटे रहें और मज़बूती से खड़े रहें तो आख़िरकार सत्य की विजय होगी और असत्य पराजित होगा।

 

इन आयतों से हमने सीखाः

अल्लाह की परम्परा यह है कि सत्य को असत्य पर और ईमान को कुफ्र पर विजय हासिल होती है।

पैग़म्बरों और उनकी विचारधारा का अन्य विचारधाराओं पर हावी होना तय है। दूसरे शब्दों में यह कहें कि मानवता का भविष्य यह है कि पैग़म्बरों को उनके दुश्मनों पर विजय हासिल होगी।

मोमिन हो सकता है कि संख्या में कम हों लेकिन अल्लाह की मदद उनके साथ है जबकि नास्तिकों को इस तरह की मदद नहीं मिलती।

 

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