Feb ०६, २०२२ १८:३६ Asia/Kolkata

सूरए साद आयतें 20-25

وَشَدَدْنَا مُلْكَهُ وَآَتَيْنَاهُ الْحِكْمَةَ وَفَصْلَ الْخِطَابِ (20)

इस आयत का अनुवाद हैः

हमने उनकी सलतनत को मज़बूत किया और उन्हें तत्वदर्शिता, न्यायपूर्ण और निर्णायक संवाद शक्ति प्रदान की। [38:20]

पिछले कार्यक्रम में हमने हज़रत दाऊद के बारे में बात की। वह पैग़म्बर जो अल्लाह की बारगाह में बहुत दुआ और प्रार्थना करते थे और उनके साथ पहाड़, पक्षी और आकाश भी अल्लाह की तसबीह करते थे।

यह आयत कहती है कि अल्लाह ने हज़रत दाऊद को तत्वदर्शिता के साथ ही जो सभी पैग़म्बरों को प्रदान की, सलतनत और फ़ैसला करने का ओहदा भी दिया। दूसरे शब्दों में हज़रत दाऊद उन पैग़म्बरों में थे जिनके पास पैग़म्बरी भी थी और हुकूमत भी थी। इससे पता चलता है कि धर्म और राजनीति दोनों को एक साथ जमा किया जा सकता है और पैग़म्बरों की केवल यह ज़िम्मेदारी नहीं कि वह अल्लाह का संदेश पहुंचाकर ख़ामोश हो जाएं। बल्कि जहां भी मुमकिन था उन्होंने ख़ुद ही अल्लाह के निर्देशों को लागू करने की ज़िम्मेदारी संभाली। वह केवल मस्जिद तक सीमित नहीं रहते थे और केवल उपदेश देने को पर्याप्त नहीं समझते थे। बल्कि ज़रूरत पड़ने पर शासक का स्थान संभालते थे और जज या क़ाज़ी के स्थान पर बैठ कर फ़ैसले सुनाते थे।

इस आयत से हमने सीखाः

हुकूमत न्याय और तत्वदर्शिता के आधार पर होनी चाहिए ताकि अल्लाह और आम इंसानों सब के अधिकारों का ख़याल रखा जाए।

हुकूमत और सत्ता तभी वैध होगी जब वह अल्लाह के नेक बंदों के हाथ में हो।

अब आइए सूरए साद की आयत संख्या 21 से 25 तक की तिलावत सुनते हैं,

وَهَلْ أَتَاكَ نَبَأُ الْخَصْمِ إِذْ تَسَوَّرُوا الْمِحْرَابَ (21) إِذْ دَخَلُوا عَلَى دَاوُودَ فَفَزِعَ مِنْهُمْ قَالُوا لَا تَخَفْ خَصْمَانِ بَغَى بَعْضُنَا عَلَى بَعْضٍ فَاحْكُمْ بَيْنَنَا بِالْحَقِّ وَلَا تُشْطِطْ وَاهْدِنَا إِلَى سَوَاءِ الصِّرَاطِ (22) إِنَّ هَذَا أَخِي لَهُ تِسْعٌ وَتِسْعُونَ نَعْجَةً وَلِيَ نَعْجَةٌ وَاحِدَةٌ فَقَالَ أَكْفِلْنِيهَا وَعَزَّنِي فِي الْخِطَابِ (23) قَالَ لَقَدْ ظَلَمَكَ بِسُؤَالِ نَعْجَتِكَ إِلَى نِعَاجِهِ وَإِنَّ كَثِيرًا مِنَ الْخُلَطَاءِ لَيَبْغِي بَعْضُهُمْ عَلَى بَعْضٍ إِلَّا الَّذِينَ آَمَنُوا وَعَمِلُوا الصَّالِحَاتِ وَقَلِيلٌ مَا هُمْ وَظَنَّ دَاوُودُ أَنَّمَا فَتَنَّاهُ فَاسْتَغْفَرَ رَبَّهُ وَخَرَّ رَاكِعًا وَأَنَابَ (24) فَغَفَرْنَا لَهُ ذَلِكَ وَإِنَّ لَهُ عِنْدَنَا لَزُلْفَى وَحُسْنَ مَآَبٍ (25)

इन आयतों का अनुवाद हैः

और क्या तुम्हें उन याचियों की ख़बर मिली है? जब वे दीवार पर चढ़कर (दाऊद के) मेहराब मे आ पहुँचे [38:21] जब वे दाऊद के पास पहुँचे तो वह उनसे सहम गए। वे बोले, "डरिए नहीं, हम दो याची हैं। हममें से एक ने दूसरे पर ज़्यादती की है; तो आप हमारे बीच न्याय से फ़ैसला कर दीजिए। और अन्याय न कीजिए और हमें ठीक मार्ग बता दीजिए [38:22] यह मेरा भाई है। इसके पास निन्यानबे भेड़ें हैं और मेरे पास एक भेड़ है। अब इसका कहना है कि इसे (यह एक भेड़) भी मुझे सौप दो और बातचीत में इसने मुझे दबा लिया।" [38:23] उन्होंने कहा, "इसने अपनी भेड़ों के साथ तुम्हारी भेड़ को मिला लेने की माँग करके निश्चय ही तुम पर ज़ुल्म किया है। और निस्संदेह बहुत-से साथ मिलकर रहनेवाले एक-दूसरे पर ज़्यादती करते है, सिवाय उन लोगों के जो ईमान लाए और उन्होंने अच्छे कर्म किए। किन्तु ऐसे लोग थोड़े ही है।" अब दाऊद समझ गए कि यह तो हमने उन्हें परीक्षा में डाला है। अतः उन्होंने अपने परवरदिगार से क्षमा-याचना की और झुककर (सजदे में) गिर पड़े और तौबा की [38:24]तो हमने उनका वह क़सूर माफ़ कर दिया। और निश्चय ही हमारे यहाँ उनके लिए अनिवार्यतः सामिप्य और बेहतरीन ठिकाना है[38:25]

 

पिछली आयत में बताया गया कि फ़ैसला करने का अधिकार अल्लाह ने हज़रत दाऊद को दिया। इसके बाद यह आयतें एक घटना का ज़िक्र करती हैं। दो प्रतिवादी हज़रत दाऊद के पास गए और उनसे मांग कि उनके झगड़े का फ़ैसला करें। अलबत्ता उनके आने का तरीक़ा सामान्य नहीं था। वह जानते थे कि हज़रत दाऊद के अंगरक्षक उन्हें हज़रत दाऊद के पास जाने नहीं देंगे। इसलिए नमाज़ के समय जब वह मेहराब में इबादत में लीन थे मेहराब के पीछे की दीवार चढ़कर वह अचानक हज़रत दाऊद के पास पहुंच गए। इसी वजह से हज़रत दाऊद घबरा गए। उन्हें महसूस हुआ कि यह दोनों बुरे इरादे से आए हैं और उन्हें क़त्ल कर देना चाहते हैं। लेकिन उन दोनों ने कहा कि हे दाऊद डरिए नहीं, हम दोनों शिकायत लेकर आए हैं और आपसे चाहते हैं कि आप हमारे बीच इंसाफ़ से फ़ैसला कर दीजिए।

दोनों प्रतिवादियों का अचानक आ पहुंचना और उससे उत्पन्न होने वाले हंगामे से जो हालात बने उनमें हज़रत दाऊद ने शिकायत करने वाले की बात सुनी और दूसरे व्यक्ति की बात सुने बग़ैर ही फ़ैसला सुना दिया उसने याचीकर्ता के साथ अन्याय किया है और वह चीज़ मांगी है जिसका वह हक़दार नहीं है।

रोचक बात यह है कि आरोपी ने भी कुछ नहीं कहा और दोनों हज़रत दाऊद के पास से चले गए। दोनों के चले जाने के बाद हज़रत दाऊद को एहसास हुआ कि उन्होंने क़ाज़ी के दायित्व के अनुसार अमल नहीं किया है और आरोपी की बात सुने बग़ैर फ़ैसला सुना दिया। इसलिए उन्होंने अल्लाह की बारगाह में तौबा की और अल्लाह ने उनकी तौबा क़ुबूल की।

 

इन आयतों से हमने सीखाः

विवाद के दोनों पक्षों को चाहिए कि क़ाज़ी से मांग करें कि वह न्याय के साथ उनके बीच फ़ैसला करे। यह न हो कि कोई भी पक्ष क़ाज़ी पर दबाव डालकर अपने पक्ष में फ़ैसला करवाए।

समाज में न्याय की स्थापना आम इंसानों की सीधे रास्ते की ओर रहनुमाई का ज़रिया है जो उन्हें सीमाओं को लांघने से बचाती है।

इंसान लालची और लोभी होता है कभी भी दुनिया की दौलत से उसका दिल नहीं भरता। यही वजह है कि दौलतमंद लोग दूसरों से ज़्यादा धन जमा करने की फ़िक्र में रहते हैं।

न्यायपूर्ण फ़ैसले के लिए शांत वातावरण की ज़रूरत होती है। हंगामे और घबराहट की हालत में फ़ैसला नहीं करना चाहिए क्योंकि इससे फ़ैसले में जल्दबाज़ी हो सकती है जिसके नतीजे में हो सकता है कि बाद में पछताना पड़े।

अच्छी अर्थ व्यवस्था ईमान और नेक अमल के ज़रिए ही तैयार हो सकती है। इसलिए अगर समाज के लोग अल्लाह पर ईमान न रखते हों तो हो सकता है कि अधिक लाभ हासिल करने के लिए दूसरों का हक़ छीनें।

श्रोताओ कार्यक्रम का समय यहीं पर समाप्त होता है अगली मुलाक़ात तक हमें अनुमति दीजिए।

 

 

टैग्स