शौर्य गाथा- 10
हमने ईरान के ख़ुर्रमशहर पर इराक़ के बासी शासन की सेना के अतिक्रमण के मुक़ाबले में शहर की रक्षा में इस शहर की औरतों और बेटियों की वीरता का वर्णन किया था।
वर्णन के दौरान हमने सय्यदा ज़हरा हुसैनी नामी एक 17 वर्षीय लड़की की वीरता का उल्लेख किया था जिसकी वीरता 8 वर्षीय पवित्र रक्षा के साहित्य में अमर हो गयी है। सय्यदा ज़हरा हुसैनी की ख़ुर्रमशहर की रक्षा की यादों का सय्यदा आज़म हुसैनी ने “दा” नामक किताब में उल्लेख किया है। कुर्दी भाषा में दा का अर्थ मां है। सय्यद ज़हरा हुसैनी का परिवार ईरानी था जो इराक़ के बसरा शहर बस गया था लेकिन उसे ईरान में इस्लामी क्रान्ति की सफलता से पहले इराक़ से निकाला दिया गया जिसके बाद वह ख़ुर्रमशहर में बस गया। सय्यदा ज़हरा हुसैनी की ख़ुर्रमशहर की रक्षा करने वालों के प्रतिरोध के दिनों की वीरता व बलिदान की यादें, एक अपराधी शासन के अतिक्रमण के मुक़ाबले में इस्लामी क्रान्ति और अपने वतन की रक्षा के लिए ईरानी जनता के प्रतिरोध का एक छोटा सा पहलू है। ख़ूज़िस्तान की जनता का प्रतिरोध और इस प्रतिरोध के केन्द्र ख़ुर्रमशहर की जनता का प्रतिरोध ता जंग की शुरुआत के दिनों में ईरानी वायु व नौसेना की कई कार्यवाही से इराक़ी सेना और ख़ुद सद्दाम के अतिक्रमण को जारी रखने की ओर से हौसले पस्त हो गए। ईरान की नौसेना ने इराक़ के व्यापक हमले के सिर्फ़ कुछ दिनों के भीतर तेल के अलअमिया और अलबक्र नामी दो प्लेटफ़ार्म को हमला करके निष्कीय बना दिया था। इस तरह फ़ार्स की खाड़ी से इराक़ का तेल निर्यात 1988 में जंग ख़त्म होने तक प्रभावित रहा। ईरान की वायु सेना ने जंग शुरु होने के तुरंत बाद कमान 99 नामक अभियान में 140 लड़ाकू विमान से इराक़ के संवेदनशील व रणनैतिक दृष्टि से अहम केन्द्रों पर कार्यवाही की।
कमान-99 नामी कार्यवाही में ईरानी वायु सेना की इराक़ के बासी शासन और उसके समर्थकों पर वरीयता पूरी तरह साबित हो गयी। इस कार्यवाही में ईरान की वायु सेना के आधुनिक लड़ाकू विमान के चालकों ने यह साबित कर दिया कि वे अमरीकी सलाहकारों के बिना दुनिया के आधुनिक लड़ाकू विमान उड़ाने में सक्षम हैं और उन्होंने एक विशाल हवाई कार्यवाही अंजाम दी। इस्लामी गणतंत्र ईरान की वायु व नौसेना की देश पर सद्दाम शासन के अतिक्रमण पर प्रतिक्रिया और शहरों व गावों में सशस्त्र बल व जनता के प्रतिरोध ने दर्शा दिया कि सद्दाम शासन का इस्लामी गणतंत्र ईरान की सैन्य क्षमता के बारे में अंदाज़ा ग़लत था।
27 सितंबर 1980 को द गार्डियन अख़बार ने इस बारे में लिखाः “इराक़ी सशस्त्र बल के लिए पिछल हफ़्ता अच्छा नहीं रहा। न तो उन्हें उल्लेखनीय और न ही मामूली सफलता मिली।” इस बारे में जर्मन रेडियो ने अपने कार्यक्रम में कहाः “इराक़ मौजूदा निरर्थक जंग में जिसका लक्ष्य इमाम ख़ुमैनी के शासन को गिराना था, किसी भी नतीजे तक नहीं पहुंच सका। इस जंग से इराक़ की कल्पना के विपरीत ईरान की स्थिति बहुत मज़बूत हुयी है।”
फ़ायनेन्शल टाइम्ज़ ने पहली अक्तूबर 1980 को एक रिपोर्ट में लिखाः “जिस चीज़ की ओर इराक़ी नेताओं का ध्यान नहीं गया वह ईरानी जनता की क्षमता और उसकी अपनी क्रान्ति के प्रतीकों की रक्षा के लिए तय्यारी थी। जिसके मन में एक धार्मिक व राजनैतिक आंदोलन का जोश भरा हुआ था।”
इराक़ी सेना का एक कमान्डर इस देश की सेना की असफलता की समीक्षा में इस बात पर बल देते हुए कि इराक़ी सेना को ईरानी जनता के प्रतिरोध के संबंध में सही जानकारी नहीं थी, कहता हैः “अगर कमान चाहती थी कि ईरान पर हमला करे तो ज़रूरी था कि हमला करने वाली इकाइयों के सटीक जानकारी हो, जबकि संभावित प्रतिरोध के बारे में जो सूचनाएं थीं, वह सही नहीं थीं।”
इस्लामी गणतंत्र ईरान पर हमले के समय इराक़ के बासी शासन की सैन्य क्षमता ईरान की क्रान्तिकारी जनता के प्रतिरोध, ईरान की भौगोलिक स्थित, विशाल क्षेत्रफल और अन्य प्राकृतिक रुकावटों के मद्देनज़र उसके लक्ष्य से मेल नहीं रखती थी। इसलिए दुश्मन की वॉर मशीन जंग के आरंभिक दिनों में विशाल ख़ूज़िस्तान प्रांत में तितर बितर हो गयी जिसकी वजह से प्रभावी हमला करने का अवसर उसके हाथ से निकल गया। इराक़ के बासी शासन की सेना, जिसकी फ़ोर्सेज़ केन्द्रित नहीं हो पा रही थीं और उसे अतिरिक्त फ़ोर्स की कमी का सामना था, दक्षिणी मोर्चे को मज़बूत नहीं कर सकी और उसकी तीसरी ब्रिगेड बहमन शीर नदी को पार न कर सकी। इराक़ी फ़ोर्सेज़ के तितर बितर होना, सशस्त्र बल की कमी और व्यापक मोर्चों पर प्रतिरोध ने उसे प्रभावी प्रगति करने से रोक दिया। इस तरह इराक़ी फ़ोर्सेज़ रक्षात्मक मुद्रा में आकर रक्षात्मक मोर्चे बनाने पर मजबूर हो गयीं। यही वजह थी कि सद्दाम ने इस्लामी गणतंत्र ईरान पर हमले के एक हफ़्ते बाद 29 सितंबर 1980 को जंग की स्थिति की समीक्षा के बाद एलान कियाः “इराक़ ने क्षेत्रीय लक्ष्य हासिल कर लिया है और वह दुश्मनी छोड़ कर बातचीत के लिए तय्यार है।” सैन्य टीकाकारों ने जंग शुरू होने के एक हफ़्ते बाद जो समीक्षाएं पेश कीं वह इस्लामी गणतंत्र पर हमले में इराक़ की रणनैतिक पराजय की सूचक थीं। हालांकि इराक़ी फ़ोर्सेज़ ने ध्यादातर मोर्चों पर कुछ सफलताएं हासिल की थीं लेकिन उनकी रफ़्तार बहुत सुस्त थी। सद्दाम की ओर से एकपक्षीय रूप से जंग बंदी का एलान इसी सच्चाई की गवाही दे रहा था। इस बारे में इराक़ी सेना के एक कमान्डर का कहना हैः “सद्दाम ने 28 सितंबर 1980 को जिस समय संघर्ष विराम का निवेदन किया, उस समय वह यह बात अच्छी तरह समझ गया था कि इराक़ी सेना में कार्यवाही करने की क्षमता नहीं है।”
अख़बार द फ़ायनेन्शल टाइम्ज़ ने 18 अक्तूबर 1980 को इराक़ी तानाशाह के संघर्ष विराम के एलान के बारे में लिखा थाः “ईरान-इराक़ जंग टैक्टिक और रणनैतिक दोनों ही नज़र से बंद गली में पहुंच गयी है। यही वजह है कि इराक़ हर देश का दरवाज़ा खटखटा रहा है ताकि दोनों लड़ने वाले पक्षों के बीच संघर्ष विराम का मध्यस्थ बनने के लिए कोई देश तय्यार हो जाए।”
जर्मन पत्रिका स्पीगल इराक़ की हार के बारे में लिखती हैः “ जंग जिस तरह सद्दाम को अपेक्षा थी, न तो ईरानी शासन के पतन की वजह बनी और न ही ईरान के ख़िलाफ़ बग़दाद का समर्थन करने के लिए ख़ूज़िस्तान के अरबों ने बग़ावत की। इराक़ी फ़ोर्सेज़ महीनों से सीमावर्ती क्षेत्रों में लक्ष्यहीन कार्यवाही में व्यस्त हैं। इराक़ियों के पास सही योजना न होने की वजह से ईरानियों को ज़रूरी समय मिल गया कि वे क्रान्ति के समय के अस्त व्यस्त हालात को अपने नियंत्रण में लेकर मोर्चों के लिए ज़रूरी रसद व कुमक भेजें।”