Apr १७, २०१९ १६:२३ Asia/Kolkata

कार्यक्रम की पिछली कड़ियों में हमने ईरान में इस्लामी क्रांति की सफलता के केवल 19 महीने बाद ईरान पर सद्दाम की सैन्य चढ़ाई के बारे में चर्चा की थी।

इराक़ी सेना को ईरान में कड़े प्रतिरोध का सामना करना पड़ा। इराक़ के पूर्व तानाशाह सद्दाम ने यह कल्पना भी नहीं की थी कि आधुनिक हथियारों से लैस इराक़ी सेना के मुक़ाबले में ईरानी राष्ट्र ऐसा प्रतिरोध करेगा। इराक़ी तानाशाह का मानना था कि तेल से समृद्ध ईरानी प्रांत ख़ुज़िस्तान पर क़ब्ज़ा करने के लिए इराक़ी सेना को केवल तीन दिन लेगेंगे। लेकिन केवल ख़ुर्रमशहर के मोर्चे पर ईरानी प्रतिरोधकर्ताओं ने सद्दाम की सेना को 34 दिनों तक रोके रखा।

सद्दाम ने प्रतिरोध की ऐसी स्थिति देखकर युद्ध विराम का प्रस्ताव दिया, ताकि कम से कम 1975 के अलजीरिया समझौते की समाप्ति को औपचारिकता मिल सके। ईरान के हज़ारों किलोमीटर के इलाक़ों पर इराक़ के क़ब्ज़े के बावजूद, ईरान में किसी एक नेता ने भी इस प्रस्ताव को गंभीरता से नहीं लिया। यह देखते हुए सद्दाम ने ईरान में आपसी फूट डालने का प्रयास किया, ताकि जिन इलाक़ों पर क़ब्ज़ा हो चुका है वह उन पर अपनी पकड़ मज़बूत बना सके। अमरीकी नौसेना के एक कमांडर विलियम एफ़ हेकमन इस बारे में कहते हैं, युद्ध के दूसरे चरण में अर्थात 1981 में नवम्बर से गर्मियों तक के बीच की अवधि में लड़ाई बंद गली में पहुंच गई थी। इस दौरान इराक़ी सेना रक्षात्मक स्थिति में आ गई थी और दूसरी ओर तेहरान में सत्ता की खींचातानी की वजह से ईरान लड़ाई के मोर्चों को मज़बूत करने में विफल हो गया था। इराक़ की अपने उद्देश्यों की प्राप्ति में विफलता और अपने इलाक़ों को वापस लेने में ईरान की नाकामी के कारण युद्ध बंद गली में पहुंच गया। ऐसी स्थिति में इराक़ ने उन इलाक़ों पर अपनी पकड़ मज़बूत बनाने का फ़ैसला किया, जिन पर वह पहले ही क़ब्ज़ा कर चुका था।

राजनीतिक अस्थिरता और मोर्चों की विशेष परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए यहां यह सवाल पैदा होता है कि दुश्मन के हमला करने के बाद से क़ब्ज़ा किए गए इलाक़ों को आज़ाद कराने की प्रक्रिया तक इस्लामी गणतंत्र ईरान की क्या स्थिति थी? दूसरे शब्दों में ईरान की राजनीतिक एवं सामरिक स्थिति क्या थी और दुश्मन इस स्थिति से क्या नतीजा हासिल कर रहा था। इस्लामी क्रांति की सफलता से पहले तक समस्त धड़ों का एक ही उद्देश्य था और वह था शाह का पतन, इसी वजह से आपसी मतभेद कम ही खुलकर सामने आते थे। लेकिन इसमें कोई शक नहीं है कि इस्लामी आंदोलन का नेतृत्व इमाम ख़ुमैनी के पास था। शाही व्यवस्था के ख़िलाफ़ समस्त राजनीतिक धड़ों का आंदोलन, इमाम ख़ुमैनी के आंदोलन की छत्रछाया में जारी था।

इस्लामी क्रांति की सफलता के बाद, समस्त राजनीतिक धड़े जब तक कि उन्होंने नई इस्लामी व्यवस्था के ख़िलाफ़ कोई दुश्मनी ज़ाहिर नहीं की थी, स्वतंत्र रूप से अपनी गतिविधियां अंजाम दे रहे थे। पहले संसदीय एवं राष्ट्रपति चुनावों में समस्त राजनीतिक धड़ों की उपस्थिति उल्लेखनीय थी। लेकिन कम्यूनिस्ट रूझान रखने वाले और इस्लामी गणतंत्र के विरोधी राजनीतिक धड़ों ने धीरे धीरे इस्लामी क्रांति के प्रति अपनी दुश्मनी ज़ाहिर करनी शुरू कर दी। 1980 के अंत में छात्रों ने तेहरान स्थित अमरीकी दूतावास पर निंयत्रण कर लिया था, जिसके बाद ऐसे बहुत से दस्तावेज़ सामने आए जिससे यह रहस्योद्घाटन हुआ कि कौन लोग और राजनीतिक धड़े इस्लामी गणतंत्र के विरोधी हैं और इस्लामी क्रांति को जड़ से उखाड़ फेंकने की साज़िश रच रहे हैं। यही कारण है कि अमरीकी दूतावास जासूसी के अड्डे के रूप में प्रसिद्ध हो गया था। ऐसे लोग और धड़े इस्लामी गणतंत्र के कुछ संवेदनशील विभागों में अपनी पैठ बना चुके थे, लेकिन समय बीतने के साथ साथ उनकी वास्तविकता से पर्दा उठता गया।

 

तेहरान स्थित अमरीकी दूतावास पर छात्रों के निंयत्रण के बाद, इस्लामी शासन विरोधी समस्त तत्वों एवं राजनीतिक धड़ों ने जब यह देखा कि देश में उनके वजूद को ख़तरा है तो उन्होंने व्यवस्थित रूप से इस्लामी क्रांति से टकारने की रणनीति तैयार कर ली। नई नई इस्लामी व्यवस्था के पतन के लिए इन धड़ों ने अमरीका के साथ सहयोग करना शुरू कर दिया। बनी सद्र के राष्ट्रपति बनने के बाद यह धड़े इस्लामी क्रांति से टकराने के लिए पूर्ण रूप से व्यवस्थित हो गए और यह अवसर इनके लिए बहुत महत्वपूर्ण साबित हुआ। इस्लामी क्रांति की सफलता से कुछ समय पहले ही बनी सद्र इमाम ख़ुमैनी के चाहने वालों में शामिल हुए थे। वास्तव में फ़्रांस में इमाम ख़ुमैनी के प्रवास के दौरान बनी सद्र उनके निकट आए थे और इसी वजह से उन्होंने लोकप्रियता हासिल की थी। इसी लोकप्रियता के कारण 1981 में आयोजित हुए पहले राष्ट्रपति चुनाव में बनी सद्र ने सफलता हासिल कर ली थी। हालांकि बनी सद्र के विचारों और इमाम ख़ुमैनी के विचारों में काफ़ी अंतर था। राष्ट्रपति चुनाव में सफलता के बाद बनी सद्र का मानना था कि इस्लामी क्रांति की सफलता के शोर शराबे और लोगों की भावनाओं से लाभ उठाकर अपने उद्देश्यों और विचारों को आगे बढ़ाना आसान हो जाएगा। बनी सद्र का प्रयास था कि अमरीकी दूतावास पर निंयत्रण के बाद इमाम ख़ुमैनी के पद चिन्हों पर चलने वालों का जो एक वर्ग सामने आया है, उसे रास्ते से हटा दे। लेकिन युद्ध और देश में इमाम ख़ुमैनी का अनुसरण करने वालों की नई स्थिति के कारण बनी सद्र को अपने उद्देश्यों की प्राप्ति में कठिनाईयों का सामना होने लगा। देश में सामरिक अव्यवस्था एवं चीफ़ कमांडर होने के कारण, बनी सद्र इमाम ख़ुमैनी के वफ़ादार एवं क्रांतिकारी बलों को हाशिये पर डालना चाहता था।

इस्लामी क्रांति की सफलता के बाद देश के राजनीतिक एवं सामरिक ढांचे में बदलाव और सुधारों के कारण देश में राजनीतिक अस्थिरता के साथ ही सुरक्षा बलों के लिए परिस्थितियां अनुकूल नहीं थीं। सेना के अस्तित्व पर ही सवाल खड़े किए जाने लगे। सैन्य समझौतों को ठंडे बस्तों में डाल दिया गया। विशेष रूप से क्रांति विरोधी तत्वों ने सेना के विघटन की मांग के समर्थन में नारे बाज़ी शुरू कर दी, जिससे सेना और सुरक्षाबलों की स्थिति बहुत कमज़ोर हो गई। इस अव्यवस्था के साथ ही क्रांति के विरोधियों ने देश के कई इलाक़ों में विशेषकर गुंबद, कुर्दिस्तान, ख़ुज़िस्तान और ब्लूचिस्तान में हिंसात्मक कार्यवाहियां शुरू कर दीं और आम लोगों पर एवं सुरक्षा बलों पर हमले शुरू कर दिए। सेना में इसी अव्यवस्था और क्रांति के विरोधियों के मुक़ाबले के लिए सुरक्षा बलों की कार्यवाही से सद्दाम को यह आशा हो गई कि वह ईरान के अवैध अधिकृत इलाक़ों पर अपना क़ब्ज़ा मज़बूत कर सकता है। हालांकि सद्दाम का मुख्य उद्देश्य इस्लामी गणतंत्र का पतन था, लेकिन कम से कम वह ईरान के कुछ भाग को उससे अलग करना चाहता था।                                  

 

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