Apr २७, २०१९ १४:५९ Asia/Kolkata

वर्ष 1980 में इराक़ के सद्दाम शासन के ईरान पर अतिक्रमण के पहले ही साल ईरानी फ़ोर्सेज़ और स्वयंसेवी बल के ऐतिहासिक प्रतिरोध ने बासी शासन की सेना को ईरान के बहुत भीतर आने से रोक दिया।

हालांकि सद्दाम की सेना ईरान के दक्षिण और पश्चिम के कुछ शहरों तथा ईरान की हज़ारों वर्ग किलोमीटर भूमि का अतिग्रहण कर लिया लेकिन ईरानी फ़ोर्सेज़ और स्वयंसेवी बल की दृढ़ता ने देश के भीतर बासी सेना को आगे बढ़ने से रोक दिया। इसी तरह ईरानी फ़ोर्सेज़ ने अतिग्रहित इलाक़ों को बचाने के लिए रणनीति बनायी। जिस समय इराक़ के तानाशाह सद्दाम ने ईरान पर हमला किया, ईरान में इस्लामी क्रान्ति को सफल हुए सिर्फ़ 19 महीने गुज़रे थे और नवस्थापित इस्लामी व्यवस्था, 2500 साल पुरानी शाही व्यवस्था के पतन के बाद, प्रशासनिक तंत्रों को मज़बूत करने में जुटी हुयी थी।

इस्लामी क्रान्ति के दुश्मनो ने ईरान के भीतर की ढांवाडोल स्थिति की वजह से सद्दाम को ईरान पर अतिक्रमण के लिए उकसाया ताकि इस्लामी क्रान्ति व्यवस्था गिर जाए। इस साज़िश का रचनाकार अमरीका था जिसके हाथ से ईरान में शाही शासन के पतन और इस्लामी क्रान्ति के सफल होने से रणनैतिक दृष्टि से बहुत अहम फ़ार्स की खाड़ी क्षेत्र में एक घटक चला गया था। अमरीका की साज़िश ईरान की सीमाओं से बाहर सीमित नहीं थी बल्कि इस साज़िश की जंजीर की कड़ी ईरान के भीतर भी मौजूद थी। तेहरान में अमरीकी दूतावास पर, इमाम ख़ुमैनी का अनुसरण करने वालों छात्रों द्वारा नियंत्रण से इस साज़िश के एक भाग का पर्दाफ़ाश हुआ जिसे ईरान की क्रान्तिकारी व क्रान्ति की वफ़ादार फ़ोर्से ने नाकाम बना दिया। ईरान में अमरीकी दूतावास बाद में जासूसी के अड्डे के नाम से कुख्यात हुआ। ईरान का पहला राष्ट्रपति बनी सद्र भी उन्हीं लोगों में था जिसने इमाम ख़ुमैनी से दूरी बनायी और इस्लामी गणतंत्र ईरान के ख़िलाफ़ अमरीकी साज़िश के जाल में फंसा और इस तरह वह क्रान्ति और उसकी आकांक्षाओं से दूर तथा क्रान्ति विरोधी प्रक्रिया के निकट हो गया।  

                

बनी सद्र ही सारी फ़ोर्सेज़ के प्रमुख थे और वह सेना तथा क्रान्तिकारी संगठनों के बीच फूट डालने में लगे हुए थे। सद्दाम के अतिक्रमण के संबंध में उनकी नीतियों की वजह से सेना और क्रान्तिकारी संगठनतं के बीच गहरे मतभेद पैदा हुए और बासी सेना से निपटने के लिए ईरान की पूरी सैन्य क्षमता के इस्तेमाल में कठिनाई पैदा हुयी। ईरानी सेना, इस्लामी क्रान्ति की सफलता के बाद कुछ सैन्य कमान्डरों के फ़रार होने की वजह से उत्पन्न हालात से पूरी तरह उबर नहीं पायी थी और क्रान्ति के बाद के हालात से समन्वित नहीं हो सकी थी। ईरान के राजनैतिक व सैन्य ढांचे में मूल भूत बदलाव और उसके स्वाभाविक परिणाम की वजह से राजनैतिक अस्थिरता के साथ साथ सैन्य बल भी असहज महसूस कर रहा था। सेना के वजूद के ज़रूरी रहने के संबंध में संदेह, ईरान के सैन्य उपकरणों की ख़रीदारी के मार्ग में रुकावट पैदा करने की कोशिश तथा क्रान्ति के विरोधियों की ओर से सेना को भंग करने के नारे की वजह से ईरानी सेना की स्थिति बहुत कमज़ोर हो गयी थी। इस्लामी क्रान्ति से पहले ईरान ने अमरीका के साथ एक बड़ा सैन्य सौदा किया था जो तत्कालीन आधुनिक लड़ाकू विमान एफ़-14 की ख़रीदारी का था जिसे अमरीका ने किसी भी देश को नहीं बेचा था। क्रान्ति के बाद कुछ अधिकारी सैन्य समझौतों के रद्द करने और सेना को भंग करने का आग्रह कर रहे थे। ईरान के राजनैति मंच पर इस तरह के माहौल के साथ साथ ईरान के कुछ क्षेत्रों जैसे कुर्दिस्तान, ख़ूज़िस्तान और बलोचिस्तान में क्रान्ति के विरोधी सशस्त्र तत्वों से निपटने की ज़रूरत सामने आयी। इस बीच आंतरिक अशांति से निपटने के लिए इमाम ख़ुमैनी के निर्देश से  क्रान्तिकारी विशेषताओं के साथ इस्लामी क्रान्ति संरक्षक बल आईआरजीसी का मूल स्वरूप गठित हुआ और मई 1979 में क्रान्ति परिषद में आईआरजीसी के गठन के बिल के पारित होने के साथ ही इस सैन्य संगठन को आधिकारिक रूप से मान्यता मिली।

आईआरजीसी को इस्लामी क्रान्ति की उपलब्धियों की रक्षा की ज़िम्मेदारी मिली और इसके लिए वह विभिन्न मंचों पर सक्रिय हुयी और उसने क्रान्ति विरोधी तत्वों के ख़िलाफ़ संघर्ष किया। इस प्रक्रिया में इस्लामी क्रान्ति के संस्थापक इमाम ख़ुमैनी रहमतुल्लाह अलैह ने दूरदर्शिता का परिचय देते हुए सेना को बाक़ी रखने पर बल दिया और इस सैन्य संगठन का हर तरह का समर्थन करने के साथ ही सेना की स्थिति की समीक्षा और उसमें सुधार के लिए एक समिति गठित की। इस क़दम के साथ साथ ईरान के साथ अमरीका के संभावित टकराव और विश्व साम्राज्य के ख़िलाफ़ लड़ाई के भविष्य के मद्देनज़र इमाम ख़ुमैनी ने आईआरजीसी को हर तरह से मज़बूती प्रदान करने के साथ ही फ़रमाया थाः "जितना भी चीख़ना चिल्लाना है अमरीका पर चिल्लाइये। जो भी प्रदर्शन करना है अमरीका के ख़िलाफ़ कीजिए। अपनी सेनाओं को सशस्त्र कीजिए, सैन्य ट्रेनिंग लीजिए और दोस्तो को ट्रेनिंग दीजिए। इस्लामी शासन को सैन्य दृष्टि से पूरी तरह ट्रेन्ड होना चाहिए।" 

इमाम ख़ुमैनी की यह बात स्वंयसेवी बल बसीज के गठित होने और उसके आईआरजीसी से ट्रेनिंग पाने का आधार बनी। इस्लामी क्रान्ति के वरिष्ठ नेता आयतुल्लाहिल उज़्मा ख़ामेनई ने जो उस समय इमाम ख़ुमैनी की तरफ़ से आईआरजीसी में प्रतिनिधि थी, एक इंटरव्यू में कहाः "भाइयों और बहनों को उन केन्द्रों में व्यापक सैन्य ट्रेनिंग मिलेगी जिन केन्द्रों को आईआरजीसी निर्धारित करेगी।" इस तरह इराक़ के हमले के अवसर पर इस्लामी गणतंत्र व्यवस्था के सैन्य बल का स्वरूप इस तरह का था कि एक ओर सेना पारंपरिक सैन्य बल के रूप में मौजूद थी तो दूसरी ओर आईआरजीसी व स्वंय सेवी बल बसीज मौजूद था। पारंपरिक सेना आंतरिक मामलों ख़ास तौर पर जुलाई 1980 के नक़ाब नामी विद्रोह की नाकामी के मानसिक व भावनात्मक प्रभाव में उलझी हुयी थी। यह विद्रोह ईरान पर इराक़ के हमले शुरु होने से 40 दिन पहले नाकाम हुया था। दूसरी ओर आईआरजीसी और क्रान्तिकारी बल क्षमता के बावजूद, पर्याप्त मात्रा में सैन्य उपकरण के अभाव की वजह से ईरान की हर तरह से रक्षा करने की ज़िम्मेदारी क़ुबूल करने की हद तक सक्षम नहीं हुई थी।

 

ईरान की रक्षा फ़ोर्सेज़ का स्वरूप पारंपरिक सेना, आईआरजीसी और स्वंयसेवी बल बसीज पर आधारित था। यह स्वरूप कुछ आंतरिक संकटों से निपटने में सफल रहा लेकिन धूर्त बनी सद्र की साज़िश की वजह से इन फ़ोर्सेज़ के बीच व्यापक सहयोग नहीं हो पा रहा था। सेना में क्रान्तिकारी भावना रखने वाले सैनिक मौजूद थे और उन्होंने क्रान्तिकारी बल और स्वंयसेवी बल को ट्रेनिंग व सशस्त्र करने में बहुत बड़ा योगदान दिया था लेकिन यह क़दम पदक्रम के अनुसार व सुव्यवस्थित रूप में नहीं था। देश के पारंपरिक सैन्य तंत्र की उपयोगिता के अभाव और इसी तरह फ़ोर्सेज़ को काम में लाने वाले एक सक्षम व केन्द्रित कमान के न होने की वजह से, ईरान पर इराक़ के हमले के आरंभ में नवस्थापित क्रान्तिकारी संगठनों व सैन्य बलों ने कम से कम सैन्य सुविधाओं के साथ सबसे ज़्यादा प्रतिरोध व दृढ़ता का प्रदर्शन किया। इसकी एक मिसाल इराक़ की थल सेना और बक्तर बंद टुकड़ी के मुक़ाबले में ख़ुर्रमशहर को बचाने वालों का 34 दिनों तक प्रतिरोध था। यह संकटमय दौर स्वंयसेवी बल बसीज के प्रतिरोध के ज़रिए गुज़र गया और अंततः दुश्मन जिसमें आगे बढ़ने की क्षमता नहीं थी, अपनी मर्ज़ी की शांति की प्राप्ति की उम्मीद में ईरान के अतिग्रहित इलाक़ों में ठहर गया।

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