Nov १०, २०२१ २०:२० Asia/Kolkata

सूरए साफ़्फ़ात आयतें 102-105

فَلَمَّا بَلَغَ مَعَهُ السَّعْيَ قَالَ يَا بُنَيَّ إِنِّي أَرَى فِي الْمَنَامِ أَنِّي أَذْبَحُكَ فَانْظُرْ مَاذَا تَرَى قَالَ يَا أَبَتِ افْعَلْ مَا تُؤْمَرُ سَتَجِدُنِي إِنْ شَاءَ اللَّهُ مِنَ الصَّابِرِينَ (102)

फिर जब इस्माईल उनके साथ दौड़-धूप करने की उम्र को पहुँच गए तो (एक दिन) इब्राहीम ने कहाः हे मेरे लाल! मैं सपने में देखता हूँ कि तुम्हें क़ुर्बान कर रहा हूँ। तो अब बताओ कि तुम्हारा क्या विचार है? उन्होंने कहाः हे मेरे पिता! जो कुछ आपको आदेश दिया जा रहा है, उसे कर डालिए। अगर अल्लाह ने चाहा तो आप मुझे धैर्यवानों में पाएँगे। (37:102)

पिछले कार्यक्रम में बताया गया कि हज़रत इब्राहीम अलैहिस्सलाम ने ईश्वर से दुआ की कि वह उन्हें नेक संतान प्रदान करे। यह आयत कहती है कि ईश्वर ने जो बेटा उन्हें प्रदान किया वह जब किशोरावस्था में पहुंचा तो सपने के माध्यम से अल्लाह ने हज़रत इब्राहीम को आदेश दिया कि वे उसे उसकी राह में क़ुर्बान कर दें।

स्वाभाविक सी बात है कि इस काम के लिए पिता के राज़ी होने के साथ ही साथ बेटे का भी राज़ी होना ज़रूरी था। इसी लिए हज़रत इब्राहीम ने अपने बेटे इस्माईल से कहा कि मुझे इस तरह का आदेश दिया गया है, क्या तुम इस कठिन काम को स्वीकार करने की तैयारी रखते हो? तुम्हारी क्या राय है?

स्वाभाविक रूप से आम लोग इस ईश्वरीय आदेश के बारे में इस तरह की बातें करते हैं। हे ईश्वर! तू मुझसे यह क्या चाह रहा है? अगर तू यही चाहता था तो तूने मुझे बेटा दिया ही क्यों? और अगर यही तै है कि मेरा यह बेटा तेरी राह में मारा जाए तो मुझसे, जो उसका बाप हूं, यह काम क्यों कराया जा रहा है?

लेकिन पैग़म्बर, पैग़म्बर होने से पहले ईश्वर के बंदे और उसके आदेश के सामने नतमस्तक होते हैं। उनकी दृष्टि में वह ज्ञानी व तत्वदर्शी ईश्वर है और वह जो भी आदेश देता है उसके असीम ज्ञान व तत्वदर्शिता के आधार पर होता है। इस लिए इस बात की कोई वजह नहीं है कि मैं अपने सीमित ज्ञान के साथ, उसके आदेश के तर्क को पूरी तरह समझ जाऊं।

किशोर इस्माईल का जवाब भी यही था कि पिता जी! जो आदेश ईश्वर ने दिया है, उसे अंजाम दीजिए और बाप-बेटे के संबंध और इंसानी भावनाओं को अलग रख कर अपने दायित्व को अंजाम देने की सोच में रहिए। हालांकि यह काम बहुत कठिन है लेकिन अनन्य ईश्वर के आदेश के पालन की राह में मैं सभी कठिनाइयों को हंसते हंसते सह लूंगा और धैर्य व संयम का प्रदर्शन करूंगा।

इस आयत से हमने सीखा कि पैग़म्बरों के सपने, एक प्रकार से उनके पास भेजे गए ईश्वरीय संदेश होते हैं लेकिन अन्य लोगों के संबंध में ऐसा नहीं है। इस लिए आम लोग जो सपने देखते हैं उनके आधार पर वे अपने या दूसरों के लिए दायित्व का निर्धारण नहीं कर सकते।

संतान से प्यार, ईश्वरीय आदेशों के पालन में रुकावट और पाप या ईश्वर की अवज्ञा करने का कारण नहीं बनना चाहिए।

दायित्व के पालन के लिए संयम व प्रतिरोध की ज़रूरत है। काम के कठिन होने की वजह से ईश्वर के आदेश की अवहेलना नहीं करनी चाहिए।

आइये अब सूरए साफ़्फ़ात की आयत नंबर 103, 104 और 105 की तिलावत सुनें।

فَلَمَّا أَسْلَمَا وَتَلَّهُ لِلْجَبِينِ (103) وَنَادَيْنَاهُ أَنْ يَا إِبْرَاهِيمُ (104) قَدْ صَدَّقْتَ الرُّؤْيَا إِنَّا كَذَلِكَ نَجْزِي الْمُحْسِنِينَ (105)

अन्ततः जब दोनों (ईश्वर के आदेश के आगे) नतमस्तक हो गए और इब्राहीम ने इस्माईल को माथे के बल लिटा दिया (ताकि ज़िबह कर दें)। (37:103) और हमने उन्हें पुकाराः हे इब्राहीम! (37:104) बेशक तुमने सपने को सच कर दिखाया (और हमारा आज्ञापालन किया)। निःसंदेह हम भले कर्म करने वालों को इसी प्रकार प्रतिफल देते हैं। (37:105)

जब हज़रत इस्माईल ने ईश्वरीय आदेश को लागू करने के लिए अपनी तैयारी की घोषणा कर दी, जो अल्लाह के सामने बाप-बेटे दोनों ही के पूरी तरह से नतमस्तक होने की निशानी थी, तो हज़रत इब्राहीम ने अपने बेटे को ज़िबह करने के लिए ज़मीन पर लिटा दिया और छुरी वग़ैरा तैयार करने लगे, तभी ईश्वर की ओर से आवाज़ आई कि हे इब्राहीम! हम यह नहीं चाहते थे कि तुम अपने बेटे का सिर काट दो बल्कि हम चाहते थे कि तुम बेटे की मुहब्बत का सिर काट दो और तुम इस इम्तेहान में सफल रहे। जो कुछ हमने सपने में तुम्हें आदेश दिया था, उसका तुमने पूरी तरह से पालन किया और दिखा दिया कि तुम ईश्वरीय आदेश के पालन की भावना भी रखते हो और इस राह में किसी तरह की ढिलाई भी नहीं करोगे।

यद्यपि इस्माईल ज़िबह नहीं हुए लेकिन हज़रत इब्राहीम की नीयत तो यही थे कि वे ईश्वर की राह में अपने बेटे को ज़िबह कर दें। उनकी यही नीयत काफ़ी थी और उनके अमल की जगह उनकी नीयत ईश्वर ने स्वीकार कर ली। सैद्धांतिक रूप से धर्म की संस्कृति में किसी भी काम का मूल्य उसे करने की नीयत व भावना से जुड़ा होता है, यहां तक कि किसी अच्छे काम के लिए मोमिन की नीयत को, ख़ुद उस काम से ज़्यादा मूल्यवान बताया गया है।

इन आयतों से हमने सीखा कि ईश्वर व उसके आदेशों के सामने सिर झुकाए रखना, पैग़म्बरों और ईश्वर के प्रिय बंदों की अहम विशेषताओं में से एक है। मूल रूप से वही काम, प्रशंसनीय है जो ईश्वर के सामने सिर झुका कर और उसकी प्रसन्नता के लिए किया जाए।

कभी कभी ईश्वर के आदेश, इंसान का इम्तेहान लेने के लिए होते हैं।

आध्यात्मिक परिपूर्णता तक पहुंचने की कोई सीमा नहीं है। कभी इस्माईल जैसा कोई किशोर बड़ी तेज़ी से परिपूर्णता के चरण तै कर सकता है और इस राह में ईश्वर के बड़े पैग़म्बर हज़रत इब्राहीम अलैहिस्सलाम के क़दम से क़दम मिला कर आगे बढ़ सकता है।

नेक काम का सिर्फ़ आर्थिक पहलू नहीं है, बल्कि ईश्वर की राह में जान न्योछावर कर देना भी भलाई है।

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