Nov १५, २०२१ १९:४८ Asia/Kolkata

सूरए साफ़्फ़ात आयतें 133-138

وَإِنَّ لُوطًا لَمِنَ الْمُرْسَلِينَ (133) إِذْ نَجَّيْنَاهُ وَأَهْلَهُ أَجْمَعِينَ (134) إِلَّا عَجُوزًا فِي الْغَابِرِينَ (135) ثُمَّ دَمَّرْنَا الْآَخَرِينَ (136)

इन आयतों का अनुवाद हैः

और निश्चय ही लूत भी रसूलों में से थे (37:133) याद करो, जब हमने उन्हें और उनके सभी लोगों को बचा लिया, (37:134) सिवाय एक बुढ़िया के, जो पीछे रह जानेवालों में से थी (37:135) फिर दूसरों को हमने तहस-नहस करके रख दिया (37:136)

पिछले कार्यक्रम में कुछ पैग़म्बरों की कहानी बयान की गई। इसके बाद इन आयतों में संक्षेप में हज़रत लूत और उनकी क़ौम की घटना को बयान किया गया है। यह क़ौम हेजाज़ इलाक़े के उत्तरी भाग में मक्के से शाम के रास्ते में आबाद थी। व्यापारियों के कारवां हर दिन इस रास्ते से गुज़रते थे और उनकी बस्ती के क़रीब से जाते थे।

एतिहासिक नज़र से देखा जाए तो क़ुरआन की आयतों के अनुसार हज़रत लूत उसी ज़माने में थे जिस ज़माने में हज़रत इब्राहीम थे। वह भी हज़रत इब्राहीम के ही धर्म का प्रचार कर रहे थे।

इन आयतों के आख़िरी भाग में हज़रत लूत और उनकी क़ौम का ज़िक्र करते हुए कहा गया है कि जब इस गुनहगार क़ौम पर अल्लाह का अज़ाब आया तो जो लोग ईमान लाए थे और हज़रत लूत के साथियों में गिने जाते थे उन्हें अल्लाह का अज़ाब आने की ख़बर हो गई। वह लोग हज़रत लूत के साथ शहर से निकल गए और बच गए। लेकिन जो लोग बाक़ी रह गए थे और जो भ्रष्ट लोग थे उन्हें अज़ाब आने की ख़बर नहीं मिली। वह अपने घरों में रहे गए और अज़ाब की चपेट में आ गए। ज़मीन और आसमान से झपट पड़ने वाले प्रकोप ने उन्हें अपनी चपेट में ले लिया और उनके घर ध्वस्त हो गए और वह मलबे में दब गए।

आयतों में आगे जाकर इस बिंदु की ओर संकेत किया गया है कि हज़रत लूत की पत्नी इस गुनहगार क़ौम का साथ देने और उनकी हरकतों से सहमत होने के कारण उसी दर्दनाक अंजाम का शिकार हुई। पैग़म्बर के घर से उसका रिश्ता उसे बचा न पाया। इसलिए कि अल्लाह के अज़ाब या कृपा का पैमाना धार्मिक और नैतिक उसूलों पर अमल होता है, रिश्तेदारी और पारिवारिक रिश्ते की इसमें कोई भूमिका नहीं होती।

इन आयतों से हमने सीखाः

क़ुरआन में पिछली क़ौमों के अंजाम और घटनाओं का ज़िक्र दर हक़ीक़त अल्लाह की उस परम्परा की ओर इशारा है जो पूरे इतिहास में मौजूद रही है ताकि अलग अलग नस्लों को यह देखकर सबक़ मिलता रहे।

पैग़म्बरों का हिसाब किताब अलग है और उनकी पत्नियों और संतानों का अलग है। पारवारिक संबंध और रिश्ते की वजह से इंसानों का अंजाम निर्धारित नहीं होता। दूसरे शब्दों में इस तरह कहना चाहिए कि केवल रिश्ते की बुनियाद पर कोई मुक्ति और मोक्ष हासिल नहीं कर सकता। पैग़म्बरों पर ईमान लाने वाले और उनकी शिक्षाओं और उसूलों पर अमल करने वाले लोग मुक्ति और कल्याण हासिल करते हैं फिर चाहे उनका संबंध किसी भी वंश और जाति से हो। जबकि पैग़म्बरों की पत्निंया और संतानें अगर ईमान न रखते हों तो वह भी पैग़म्बर के कुटुंब वाले नहीं रह जाएंगे।

अब आईए सूरए साफ़्फ़ात की आयत संख्या 137 और 138 की तिलावत सुनते हैं।

وَإِنَّكُمْ لَتَمُرُّونَ عَلَيْهِمْ مُصْبِحِينَ (137) وَبِاللَّيْلِ أَفَلَا تَعْقِلُونَ (138)

इन आयतों की अनुवाद हैः

और निःसंदेह तुम उनपर (उनके क्षेत्र) से गुज़रते हो कभी सुबह के समय (37:137) और रात में भी। तो क्या तुम बुद्धि से काम नहीं लेते? (37:138)

 

इससे पहले की आयतों के संदर्भ में हमने बताया कि हज़रत लूत की क़ौम मक्का से शाम जाने वाले व्यापारिक कारवानों के रास्ते में आबाद थी। यह आयतें कहती हैं कि इस क़ौम पर जब अज़ाब उतरा तो उसके बाद इस रास्ते से गुज़रने वाले कारवां देखते थे कि किस तरह इस शहर के निवासी मल्बे में दबकर रह गए और अपनी जानें दे दीं। यह क़ौम समलैंगिक और कुकर्मी थी। उसके भीतर कुछ लोग जो ख़ुद तो इस कुकर्म में लिप्त नहीं थे लेकिन यह सब देखकर चुप रहते थे और इस भयानक बुराई को रोकने की कोई कोशिश नहीं करते थे। इसी लिए वह भी अज़ाब की चपेट में आ गए।

हज़रत लूत की क़ौम का यह हाल था कि इतने भयानक कुकर्म को वह लोग बुरा नहीं समझते थे। यही नहीं वह  लोग तो हज़रत लूत को भी जो क़ौम को इस गंदे काम से रोकते थे और उन्हें प्राकृतिक वैवाहित जीवन की दावत देते थे धमकियां देते थे।

कितनी हैरत की बात है कि उस दौर को गुज़रे हज़ारों साल हो गए हैं और आज इस ज़माने का इंसान जो सभ्य और विकसित होने का सबसे बड़ा दावेदार है और धर्मों को ख़ुराफ़ात और अंध विश्वास का नाम देता है ख़ुद इतनी घटिया और निंदनीय हरकतों में लिप्त है। इससे भी हैरत की बात यह है कि आधुनिक सभ्यता के दावेदार अलग अलग देशों में इस कुकर्म को दुरुस्त और क़ानूनी ठहराने और इस सोच को लोकतंत्र और मानवाधिकार के मैदान में प्रगति की निशानी ज़ाहिर करने की कोशिश करते हैं।

इस बात पर ध्यान देना ज़रूरी है कि वास्तविक मानवाधिकार इंसान की प्राकृतिक ज़रूरतों के दायरे में और उसकी शारीरिक स्थिति से समन्वित होता है। शारीरिक रूप से पुरुष और महिला की रचना इस प्रकार की गई है कि यौन संबंध महिला और पुरुष के बीच हो सकता है समलैंगिकता की कहीं कोई गुंजाइश नहीं रखी गई है। इसलिए अगर स्वाभाविक तौर तरीक़े से हटकर यह संबंध बनाए जाएं तो यह इंसान के शरीर की प्रकृति और स्वभाव के विपरीत है और पूरी कायनात में रचना का जो नेज़ाम है इसके ख़िलाफ़ है।

संभव है कि कुछ लोग यह कहें कि कुछ लोगों में समलैंगिक रुजहान होता है तो उन्हें इस रुजहान से वंचित नहीं किया जा सकता। इसका स्पष्ट जवाब यह है कि क्या हम दूसरी चीज़ों में कुछ विशेष लोगों के व्यक्तिगत रुजहान जैसे नशे की आदत को मान्यता और क़ानूनी हैसियत दे सकते हैं?

दूसरे शब्दों में यह कहा जाए कि क़ानून कुछ गिने चुने लोगों के निजी रुजहान पर निर्भर नहीं हो सकता बल्कि इसके विपरीत क़ानून की ज़िम्मेदारी यह होती है कि ग़ैर प्राकृतिक और अस्वाभाविक रुजहानों पर अंकुश लगाए।

मिसाल के तौर पर आजकल कुछ लोग जानवरों से यौन संबंध बनाने की लत में पड़ जाते हैं। तो क्या इस हरकत को क़ानूनी दर्जा दिया जा सकता है? आम लोग विशेष रूप से जानवरों के अधिकारों के लिए काम करने वाले लोग इस हरकत को अस्वाभाविक और प्रकृति के नियमों के विपरीत मानते हैं। इसलिए इसका खुलकर विरोध करते हैं। अतः चंद लोगों का किसी काम के बारे में रुजहान इस बात की दलील नहीं है कि वह काम दुरुस्त है और इस रुजहान को आधार बनाकर कोई क़ानून नहीं बनाया जा सकता।

आज इंसान ने खान पान, पोशक, रिहाइश और दुसरे अनेक संसाधनों की दृष्टि से तो बहुत तरक़्क़ी कर ली है अपनी सुविधा की बहुत सारी चीज़ें और साधन बना लिए हैं लेकिन मानवीय संबंधों में वह उचित रूप से उन्नति नहीं कर सका है। यही नहीं कुछ मामलों में तो वह पिछड़ भी गया है इसका एक उदाहरण समलैंगिकों की शादी है।

इन आयतों से हमने सीखाः

एतिहासिक और प्रचीन स्थलों की यात्रा करके जो अतीत की क़ौमों की निशानियों के रूप में मौजूद हैं या उन क़ौमों की दास्तान पढ़ कर हम आज के जीवन के लिए अच्छा सबक़ हासिल कर सकते हैं।

पाठ दायक चीज़ें और घटनाएं कम नहीं हैं। समस्या यह है कि हम इन घटनाओं और चीज़ों को देखने के बाद भी लापरवाही से गुज़र जाते हैं उनसे पाठ नहीं लेते।

 

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