Feb १२, २०२० २०:१० Asia/Kolkata
  • क़ुरआनी क़िस्सेः हज़रत इब्राहीम अपनी पत्नी और बेटे को काबे के पास निर्जन स्थान पर छोड़कर चले गए!

सूरे बक़रा की आयत संख्या 158 के नाज़िल होने की दास्तान बहुत दिलचस्प और पाठदायक है। इस आयत में सफा और मरवा का उल्लेख है। 

सफ़ा और मरवा दो पहाड़ियां हैं जो मक्के में मौजूद हैं।  हाज़ियों के लिए ज़रूरी है कि वे हज के दौरान इन पहाड़ियों के बीच सात चक्कर लगाएं।  सफ़ा और मरवा को पवित्र क़ुरआन में ईश्वर की निशानियां बताया गया है।  ईश्वरीय निशानियां वे होती हैं जो पवित्र घटनाओं की याद ताज़ा कराती हैं। 

 

सफा और मरवा, इस्माईल की तन्हाई, हाजरा के आंसुओं, लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए अथक प्रयास और ईश्वरीय परीक्षा की याद दिलाते हैं।  सफा और मरवा के बीच किये जाने वाले प्रयास या "सई" से यह पाठ भी मिलता है कि अगर ईश्वर की प्रशंसा के लिए निष्ठा के साथ काम किया जाए तो वह एक एसा आदर्श बन जाता है जो बाद तक बाक़ी रहता है।   आइए देखते हैं कि इसकी पृष्ठभूमि क्या है?

हज का इतिहास शताब्दियों पुराना है अर्थात शताब्दियों से हज होता चला आ रहा है। हज़रत इब्राहीम अलैहिस्सलाम के काल से आरंभ होने वाले हज में विभिन्न कालों के नादान और मूर्ति पूजकों द्वारा हज में अनेक अनुचित बातें शामिल कर दी गई थीं। इस्लाम ने इस महान उपासना के मूल रूप की सुरक्षा करते हुए उसे बुराइयों से दूर किया।

हज का एक भाग सफ़ा व मरवा की बीच "सई" करना है अर्थात मस्जिदुल हराम के समीप स्थित इन दो पहाड़ियों के बीच चक्कर काटना है। परन्तु मूर्ति पूजा करने वालों ने इन दोनों पर्वतों के ऊपर मूर्तियां रख दी थीं।  वे लोग सई करने के दौरान इन मूर्तियों के भी चक्कर काटा करते थे।  जब मुसलमान हज करना चाहते थे तो उन्हें इस बात के कारण सई करने में हिचकिचाहट होती।  वे यह सोचते थे कि इन दोनों पर्वतों पर अतीत में मूर्तियां रखे जाने के कारण उनके बीच सई नहीं करनी चाहिए।

इस्लाम की जो अनिवार्य उपासनाए हैं उनमें से एक हज है।  हज एसी उपासना है जिसे जीवन में एक बार करना प्रत्येक सक्षम मुसलमान पर अनिवार्य है।  हज जैसी अनिवार्य उपासना में एक काम जो सारे हाजियों के लिए अनिवार्य है वह है "सई" करना।  सई करने का अर्थ है कि "सफ़ा" और "मरवा" नामक पहाड़ियों के बीच में तेज़ चलना। 

सफा और मरवा दो पहाड़ियां हैं जो काबे के पास स्थित हैं।  सफा एक पहाड़ी है जो मस्जिदुल हराम के निकट "अबू क़ुबैस" पर्वत श्रंखला का हिस्सा है।  इसका शाब्दिक अर्थ होता है प्लेन कठोर पत्थर।  "मरवा" भी एक पहाड़ी का नाम है जो काबा के उत्तर में स्थित है।  मरवा नामक पहाड़ी "क़ईक़आन" पर्वत श्रंखला का एक भाग है।  मरवा शब्द का अर्थ होता है सफेद रंग का कठोर पत्थर।  इस पत्थर से आग जलाया करते थे।

 

हज़रत इब्राहीम अलैहिस्सलाम जब बूढे हो गए तो ईश्वर ने उनको एक पुत्र दिया जिसका नाम इस्माईल रखा गया।  हज़रत इब्राहीम अलैहिस्साम ने अपने जीवन में विभिन्न प्रकार के ईश्वरीय इम्तेहान दिये।  ईश्वर ने हज़रत इब्राहीम से जो इम्तेहान लिए उनमें से एक यह था कि वे अपनी बीवी और एकमात्र पुत्र को एसे स्थान पर छोड़ दें जहां पर दाना-पानी कुछ भी न हो।  ईश्वरीय इम्तेहान को पूरा करने के लिए जब वे अपनी पत्नी को सुनसान क्षेत्र में अकेला छोड़कर आ रहे थे तो उस समय उनकी धर्मपत्नी हज़रत हाजेरा बहुत व्याकुल होकर उनके पीछे-पीछे आईं। 

हाजरा ने इब्राहीम से पूछा कि आप कहां जा रहे हैं? आप हमको उस स्थान पर छोड़कर क्यों जा रहे हैं जहां पर न तो खाने-पीने की कोई चीज़ है और न ही कोई दूसरी चीज़।  उन्होंने यह सवाल कई बार हज़रत इब्राहीम से पूछा ताकि अपना फ़ैसला बदल कर वहीं पर रुक जाएं। मगर हज़रत इब्राहीम अपने इम्तेहान को पूरा करने के उद्देश्य से उन सब को निर्जन क्षेत्र में छोड़कर वापस चले गए।

जब हज़रत इब्राहीम वापस जाने लगे तो हज़रत हाजेरा ने उनसे पूछा कि क्या ईश्वर ने आपसे एसा करने के लिए कहा है तो उन्होंने जवाब में कहा कि हां।  इसपर हज़रत हाजेरा ने कहा कि अब अगर एसा ही है तो फिर ईश्वर हमारी ओर अवश्य ध्यान आकृष्ट करेगा।  इतना कहने के बाद वे उस स्थान की ओर बढ़ीं जहां पर इब्राहीम, उनको और उनके पुत्र इस्माईल को अकेला छोड़कर आए थे।

 

उधर हज़रत इब्राहीम भी अपनी पत्नी और बच्चे की जुदाई से बहुत ही दुखी थे।  वे थके हुए क़दमों से वापस जा रहे थे।  वे ईश्वर की बारगाह में कह रहे थेः प्रभुवर! मैंने अपनी संतान को इस बंजर भूमि में तेरे सम्मानीय घर के निकट बसा दिया है। प्रभुवर! (ऐसा मैंने इस लिए किया) ताकि वे नमाज़ स्थापित करें। कुछ लोगों के ह्रदय इनकी ओर झुका दे और विभिन्न प्रकार के फलों से इन्हें आजीविका दे ताकि ये तेरे प्रति कृतज्ञ रह सकें।  प्रभुवर! तू हर उस बात से अवगत है जिसे हम छिपाते या प्रकट करते हैं और धरती तथा आकाश की कोई भी वस्तु ईश्वर से छिपी हुई नहीं है।

हज़रत इब्राहीम के वापस जाने के बाद हज़रत हाजरा ने ईश्वर के आदेश का सम्मान करते हुए धैर्य से काम लिया।  हज़रत इब्राहीम अपनी पत्नी और इस्माईल के लिए खाने का जो सामान छोड़कर चले गए थे हाजरा ने उसका प्रयोग किया।  बाद में वह वस्तुएं भी समाप्त हो गईं और स्थिति यह बन गई कि उनका दूध भी सूख गया।  हाजरा ख़ुद भी भूखी और प्यासी थी और उनका बच्चा भी। 

भूख और प्यास के कारण इस्माईल लगातार रो रहे थे जिसके कारण उनकी माता हाजरा का धैर्य टूटने लगा था।  अब वे अपनी भूख और प्यास भूलकर बच्चे के लिए पानी की तलाश में निकलीं।  पानी की तलाश में वे पहले सफ़ा पहाड़ी की ओर गईं किंतु वहां पर उन्हें पानी दिखाई नहीं दिया।  उसके बाद उन्हें सूरज की रौशनी में एसा लगा कि जैसे वहां कुछ दूरी पर पानी दिखाई दे रहा है।  अब वे पानी की तलाश में मरवा पहाड़ी की ओर गईं किंतु उनको वहां पर भी पानी नहीं मिला।  इस प्रकार पानी की तलाश में सात बार सफा और मरवा पहाड़ियों के बीच इधर से उधर गईं। सातवीं बार जब वे चक्कर पूरा करके वापस आ रही थीं तो देखा कि उनका बेटा इस्माईल प्यास की वजह से ज़मीन पर अपनी एड़िंया रगड़ रहा है। 

 

इसी बीच एकदम उनकी नज़र अपने बेटे की एड़ियों के स्थान पर पड़ी तो देखा कि जहां पर इस्माईल एड़ियां रगड़ रहे थे वहां से पानी निकलना शुरू हुआ।  इस प्रकार वहां से पानी का सोता बहना शुरू हुआ।  हाजरा थकी हुई अपने बेटे की ओर बढ़ीं तो देखा की वास्तव में इस्माईल के एड़ियां रगड़ने के स्थान पर पानी दिखाई दे रहा था।  यह देखकर वे बहुत खुश हुईं।  इस पानी को देखते ही उनके मुंह से निकला "ज़मज़म"।  इस प्रकार से उस जलसोते का नाम ज़मज़म पड़ गया जो आज भी मौजूद है।  मां और बेटे ने ज़मज़म का पानी पीकर अपनी प्यास बुझाई। 

इस घटना के कुछ समय के बाद वहां पर परिंदे आने लगे और उन्होंने वहां से प्यास बुझानी शुरू की।  इस प्रकार से पक्षियों की संख्या बढ़ने लगी क्योंकि दूर-दूर तक वहां पर कहीं भी पानी नहीं था।  पक्षियों के वहां पर आने के साथ ही "जुरहुम" नामका क़बीला, जो निकट ही वास किया करता था ज़मज़म के पास आकर बस गया।  हाजरा ने उन लोगों को ज़मज़म की पूरी कहानी सुनाई।  समय बीतने के साथ ही साथ दूसरे क़बीले भी ज़मज़म के इर्दगिर्द आकर बसने लगे।  इस प्रकार मक्के का सुनसान क्षेत्र बसने लगा और वह क्षेत्र एक आबाद नगर में परिवर्तित होता गया।

 

कुछ वर्षों के बाद हज़रत इब्राहीम ने अपने बेटे इस्माईल के साथ मिलकर काबे का निर्माण किया और हज अदा किया।  हज में किये जाने वाले अनिवार्य कामों में से एक सई है जिसके अन्तर्गत हाजी सफा और मरवा के बीच सात बार चक्कर लगाता है।  सफा और मरवा के बीच सात बार आना और जाना वास्तव में किसी काम को लगातार जारी रखने के अर्थ में है।  इससे तात्पर्य है कि हाजी को यह बात समझना चाहिए कि समस्याओं के समय वह हिम्मत से काम ले और अपने प्रयास जारी रखे। 

वास्तव में "सई" यह उस महिला की आशा को व्यवहारिक बनाती है जिसने अपने बच्चे के लिए पानी ढूंढने के उद्देश्य से लगातार प्यास किये और हिम्मत नहीं हारी।  भीतर से व्याकुल होने के बावजूद उन्होंने अपने प्रयास जारी रखे और अंततः उन्हें अपनी मूराद ज़मज़म के रूप में हासिल हुई।  हाजरा ने उस स्थान पर पानी ढूंढने का प्रयास किया जहां पर दूर-दूर तक पानी नहीं था और लोगों के विचार में भी नहीं था कि वहां पर पानी हो सकता है। ईश्वर ने उनके प्रयास को सराहते हुए वहां से एसा जलसोता जारी किया जो शताब्दियों के बाद आज भी जारी है। 

 

ईश्वर के आदेश पर जो कोई भी काबे की ज़ियारत के लिए जाता है वह सफ़ा और मरवा के बीच हज़रत हाजेरा के प्रयासों की याद में सई करता है और उनके बलिदान को श्रद्धांजलि अर्पित करता है। यह कार्य,  निष्ठापूर्वक किये गए उस प्रयास पर ईश्वर की ओर से पारितोषिक दिए जाने की निशानी है जो हमें ये सिखाता है कि इंसान को लोगो के आभार व कृतज्ञता की प्रतीक्षा में नहीं रहना चाहिए क्योंकि ईश्वर हमारे भले कर्मों से परिचित भी है और वह बेहतरीन पारितोषिक देता है।

इस्लाम के उदय से पूर्व अज्ञानता के काल में भी लोग हज करने के लिए मक्का आया करते थे।  उस काल का हज अपने साथ कई प्रकार की कुरीतियां लिए हुए था।  हज़रत इब्राहीम अलैहिस्सलाम के काल से आरंभ होने वाले हज़ में विभिन्न कालों में नादान और मूर्तिपूजा करने वाले लोगों द्वारा अनेक अनुचित बातें शामिल कर दी गई थीं।

इस्लाम ने इस महान उपासना के मूल रूप की सुरक्षा करते हुए उसे बुराइयों से दूर किया।  अनेकेश्वरवादियों ने सफा नामक पहाड़ी पर एक मूर्ति रख दी थी जिसका नाम था "असाफ़" और उन्होंने मरवा पर एक अन्य मूर्ति रख दी जिसका नाम था "नाएला"।  अज्ञानता के काल के हज करने वाले सफा और मरवा के बीच चक्कर लगाते और इन मूर्तियों का आदर और सम्मान किया करते थे।

सुल्हे हुदैबिया के बाद पैग़म्बरे इस्लाम ने मक्के के अनेकेश्वरवादियों से यह शर्त रखी थी कि अगले साल वे हाजियों के लिए रास्ता खोल दें।  पैग़म्बरे इस्लाम ने उसी साल यह भी आदेश दिया था कि सफा और मरवा पर रखी हुई मूर्तियां हटा दी जाएं।  उन्होंने सफा और मरवा से मूर्तियों को हटा दिया किंतु जैसे ही पैग़म्बरे इस्लाम ने सई समाप्त की उसके बाद ही सफा और मरवा पर फिर मूर्तियां लगा दी गईं। 

 

पैग़म्बरे इस्लाम के साथी एक साल बाद जब वहां पर आए तो देखा कि उस स्थान पर तो मूर्तियां लगी हुई हैं।  यही कारण है कि वे तवाफ नहीं कर पाए।  वे सीधे पैग़म्बरे इस्लाम की सेवा में उपस्थित हुए और उन्होंने उनसे इसकी शिकायत की।  उसी समय सूरे बक़रा की आयत संख्या 158 उतरी जिसमें ईश्वर कहता है कि निःसन्देह, सफ़ा और मरवा ईश्वर की निशानियां हैं अतः जो भी ईश्वर के घर का हज या उमरा करे उसके लिए कोई बाधा नहीं है कि वो सफ़ा और मरवा के बीच तवाफ़ करे और जो कोई भले कार्यों में ईश्वर के आदेशों का पालन करे ईश्वर उसके कर्म को जानने वाला और पारितोषिक देने वाला है।

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