क़ुरआनी क़िस्सेः ईश्वर का आदेश आया और मुसलमान बैतुल मुक़द्दस के स्थान पर काबे की ओर मुंह करके नमाज़ पढ़ने लगे
मुसलमान प्रतिदिन पांच बार नमाज़ पढ़ते हैं। दुनिया भर के मुसलमान काबे की ओर मुंह करके नमाज़ पढ़ते हैं जो पवित्र नगर मक्के में है। संसार में जितनी भी मस्जिदें पाई जाती हैं उन सबका रुख़ काबे की ओर होता है।
विशेष बात यह है कि इस्लाम में जितने भी पंथ हैं वे सबके सब इस मामले में एकमत हैं कि नमाज़ हमें काबे की ओर ही पढ़नी चाहिए। जो बात उल्लेखनीय है वह यह है कि काबे से पहले कुछ समय तक मुसलमानों ने बैतुल मुक़द्दस की ओर मुंह करके नमाज़ पढ़ी। बाद में ईश्वर का आदेश आया और मुसलमान बैतुल मुक़द्दस के स्थान पर काबे की ओर मुंह करके नमाज़ पढ़ने लगे। मुसलमानों के इस काम की आलोचना यहूदियों ने अधिक की और उन्होंने इसपर मुसलमानों को ताने देना शुरू कर दिये और पैग़म्बरे इस्लाम पर लांछन लगाए।
पूरे संसार का ही नहीं बल्कि पूरी सृष्टि का स्वामी ईश्वर है। पूरब और पश्चिम तथा सभी दिशाएं ईश्वर की हैं। सच्चा मार्गदर्शन ईश्वर के सीधे रास्ते पर चलने में है न यह कि हम सोचें कि ईश्वर, संसार के पूरब या पश्चिम में है और हम केवल उसी की ओर मुख करें। ईश्वर पूरे ब्रहमाण्ड में मौजूद है। इस्लामी विचारधारा संतुलन वाली विचारधारा है। ईश्वर केवल उन्हीं लोगों को जनता पर अपना गवाह बनाता है जो इस्लाम के सभी आदेशों का पालन करते हैं, केवल कुछ का नहीं। पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम और उनके परिजन ईश्वरीय आदेशों के सबसे बड़े ज्ञानी होने के कारण उत्तम उदाहरण थे। क़िबले के परिवर्तन का आदेश, ईश्वर के अन्य आदेशों की भांति एक ईश्वरीय परीक्षा थी जिसने ईश्वर के प्रति समर्पित रहने वालों को, अपनी मनमानी करने वालों से अलग कर दिया था क्योंकि जिन लोगों को ईश्वर का विशेष मार्गदर्शन प्राप्त नहीं हुआ था उनके लिए यह आदेश स्वीकार करना अत्यंत कठिन था और वे इसके समक्ष बहानेबाज़ी कर रहे थे।
यहूदियों द्वारा यह ताना दिए जाने के बाद कि मुसलमानों का अपना अलग क़िबला नहीं है, पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम क़िबले के परिवर्तन के आदेश की प्रतीक्षा में थे, यहां तक कि ज़ोहर की नमाज़ में ईश्वर ने यह आदेश उनके पास भेजा। बैतुलमुक़द्दस से मक्के की ओर दिशा परिवर्तन के कारण उनके पीछे नमाज़ पढ़ने वाले भी काबे की ओर घूम गए। रोचक बात यह है कि पिछली आसमानी किताबों में कहा गया था कि अन्तिम ईश्वरीय दूत की एक निशानी यह है कि वे दो क़िबलों की ओर नमाज़ पढ़ेंगे। यह आयत आसमानी किताब रखने वालों को सचेत करती है कि तुम क्यों उसपर आपत्ति करते हो, जिसके बारे में यह जानते हो कि यह आदेश सत्य है।
आधी रात गुज़र चुकी थी। पैग़म्बरे इस्लाम बहुत ही उदासी से आसमान की ओर देख रहे थे। पिछली रातों की ही भांति इस रात भी वे अपने घर से बाहर आए और आसमान की ओर देखने लगे। पैग़म्बरे इस्लाम ने, ईश्वर की ओर से अपने ईश्वरीय दूत होने की घोषणा के साथ ही, लोगों को अनन्य ईश्वर की उपासना का निमंत्रण देना आरंभ कर दिया था। वे सदैव ही अनेकेश्वरवाद का विरोध करते थे। उस समय पवित्र काबे में बहुत से बुत रखे हुए थे। आरंभ में मुसलमान, बैतुल मुक़द्दस की ओर मुंह करके नमाज़ पढ़ा करते थे जिसे पहला क़िबला कहा जाता है। उस समय यहूदी और ईसाई भी बैतुल मुक़द्दस की ओर मुंह करके अपनी उपासनाएं किया करते थे। यहूदी और ईसाई दोनों ही बैतुल मुक़द्दस की ओर रुख़ करके उपासना इसलिए किया करते थे कि उनकी गणना मूर्ति पूजकों में न की जाए।
पैग़म्बरे इस्लाम मक्के में इस प्रकार से नमाज़ पढ़ते थे कि काबा, बैतुल मुक़द्दस की दिशा में होता था हालांकि मदीना पलायन करने के बाद एसी स्थिति संभव नहीं थी और केवल बैतुल मुक़द्दस की ओर रुख़ करके नमाज़ पढ़ी जा सकती थी। मुसलमानों द्वारा बैतुल मुक़द्दस की ओर मुंह करके नमाज़ पढ़ने से संसार के तीन बड़े धर्मों के अनुयाई मुसलमान, यहूदी और ईसाई सारे ही बैतुल मुक़द्दस की ओर रुख़ करके उपासना करते थे जो एक सकारात्मक बात थी। जैसे-जैसे इस्लाम फैलने लगा यहूदी धर्मगुरूओं ने मुसलमानों को कमज़ोर करने के उद्देश्य से तरह-तरह से षडयंत्र करने आरंभ कर दिये। उन्होंने मुसलमानों से यह कहना शुरू कर दिया कि बैतुल मुक़द्दस की ओर मुंह करने नमाज़ पढ़ने का अर्थ यह है कि यहूदी धर्म सही है। यहूदी धर्मगुरू पैग़म्बरे इस्लाम का अपमान करने के लिए कहने लगे कि मुहम्मद यह दावा करते हैं कि वे एक धर्म लेकर आए हैं जो सच्चा है और पुराने धर्मों के स्थान पर उसे माना जाना चाहिए। हालांकि वे स्वयं ही अभी तक यहूदियों के उपासना स्थल की ओर मुंह करके नमाज़ पढ़ रहे हैं। उनकी इन बातों से पैग़म्बरे इस्लाम को तकलीफ तो होती थी किंतु वे ईश्वर के आदेश के अनुसार ही हर काम किया करते थे।
पैग़म्बरे इस्लाम मदीने के सलेमा मुहल्ले की मस्जिद में ज़ोहर की नमाज़ पढ़ रहे थे। वे दो रकअत नमाज़ पूरी कर चुके थे। इसी बीच ईश्वरीय दूत जिब्रईल ने सूरे बक़रा की आयत संख्या 144 पढ़कर उन्हें सुनाई जिसके एक भाग का अनुवाद हैः (हे पैग़म्बर) हमने तुम्हें देखा कि तुम वहि अर्थात ईश्वरीय संदेश की प्रतीक्षा में किस प्रकार आकाश की ओर अपना मुंह घुमा रहे थे, तो अब हम तुम्हें ऐसे क़िबले की ओर मोड़ देंगे जिससे तुम राज़ी रहो, तो तुम अपना मुख मस्जिदुल हराम की ओर करो और, हे मुसलमानो! तुम जहां भी रहो अपना मुख उसकी ओर मोड़ दो। इस आयत के पढ़ने के साथ ही जिब्रईल ने पैग़म्बरे इस्लाम के हाथ को पकड़कर उनका रुख़ काबे की ओर कर दिया। जो लोग पैग़म्बरे इस्लाम के पीछे नमाज़ पढ रहे थे उन्होंने भी अपना रुख़ बैतुल मुक़द्दस से काबे की ओर कर लिया। पैग़म्बरे इस्लाम की इस नमाज़ की आंरम्भिक 2 रकअतें बैतुल मुक़द्दस की ओर थीं जबकि दूसरी दो रकअतें काबे की ओर पढ़ी गईं। इस दिन से मुसलमान, काबे की ओर मुंह करके नमाज़ पढ़ने लगे। मदीने की जिस मस्जिद में पैग़म्बर उस समय नमाज़ अदा कर रहे थे वह आज भी मौजूद है और उसका नाम मस्जिदे "ज़ूक़िब्लतैन" अर्थात दो क़िबलों वाली मस्जिद है।
पैग़म्बरे इस्लाम को आरंभ से काबे से विशेष लगाव था। काबे का इतिहास अति प्राचीन है। इसका निर्माण तो हज़रत इब्राहीम ने किया था किंतु इसका अस्तित्व हज़रत आदम के काल से है। इस संबन्ध में पवित्र क़ुरआन में कहा गया है कि वह पहला घर जो मनुष्यों द्वारा ईश्वर की उपासना के लिए धरती पर बनाया गया वह काबा ही है। इस प्रकार कहा जा सकता है कि एकेश्वरवाद की उपासना का सबसे प्राचीन केन्द्र काबा है। पूरे अरब प्रायद्वीप में काबे को हमेशा से विशेष स्थान प्राप्त रहा है। अनेकेश्वरवाद से मस्जिदुल अक़सा को सुरक्षित रखने के उद्देश्य से हज़रत मूसा अलैहिस्सलाम ने ईश्वर के आदेश से उसे क़िब्ला बनाया था। पैग़म्बरे इस्लाम जानते थे कि बैतुल मुक़द्दस, मुसलमानों के लिए अस्थाई क़िब्ला है और इसमें बदलाव हो सकता है। इतना होने के बावजूद उन्होंने कभी भी इस बारे में कोई बात नहीं कही क्योंकि वे हमेशा ही ईश्वरीय आदेशों का पालन किया करते थे।
यहूदियों और ईसाईयों की किताबों में यह बात लिखी हुई थी कि अन्तिम ईश्वरीय दूत की एक विशेषता यह होगी कि वह दो क़िब्लों की तरफ मुंह करके नमाज़ पढ़ेगा। उन्होंने इस निशानी को अपनी आखों से देखा और उसके बावजूद वे ईमान नहीं लाए बल्कि इस विषय को उन्होंने इस्लाम को नुक़सान पहुंचाने का माध्यम बना दिया। उन्होंने मुसलमानों के बीच शंका उत्पन्न करने के उद्देश्य से यह कहना आरंभ कर दिया कि यदि यह क़िब्ला ठीक था तो उसे क्यों बदला गया। इसके बाद यहूदियों ने यह भी कहना शुरू किया कि अब उन मुसलमानों की नमाज़ों का क्या होगा जो उन्होंने बैतुल मुक़द्दस की ओर मुंह करके पढ़ी थीं। अगर बैतुल मुक़द्दस की ओर नमाज़ पढ़ना सही था तो फिर काबे की ओर रुख़ क्यों किया गया? इसके बाद यहूदियों ने यह दुष्प्रचार करना शुरू किया कि यह सब बातें इसलिए हुईं क्योंकि हज़रत मुहम्मद खु़द से ही सारी बातें कहते हैं। उन पर ईश्वर की ओर से कोई संदेश नहीं आता। वे सारी बातें ख़ुद से ही कहते रहते हैं। उन्होंने अपने आप ही क़िब्ले को बदलने की बात कही है। इसी बीच कुछ लोगों ने इस प्रकार की बातें बनाना आरंभ कर दिया जिसको ईश्वर ने सूरे आले इमरान की 72वीं आयत के रूप में पेश किया हैः आसमानी किताबें रखने वालों में से एक गुट ने (आपस में ) कहा, जो कुछ मुसलमानों पर उतारा गया है उसपर दिन के आरंभ में ईमान ले आओ और दिन के अंत में उसका इन्कार कर दो, शायद (इसी हथकण्डे से) वे लोग (इस्लाम से) पलट जाएं।
अनेकेश्वरवादी क़ुरैश ने मुसलमानों का मज़ाक़ उड़ाने के लिए पैग़म्बरे इस्लाम को संबोधित करते हुए कहा कि तुमने क्यों काबे से मुंह मोड़ लिया जोकि हमारे पूर्वजों का उपासना स्थल रहा है और बैतुल मुक़द्दस की ओर मुंह करके नमाज़ पढ़नी शुरू कर दी और बाद में फिर काबे की ओर मुड़ गए? इसी बीच कमज़ोर ईमान वाले कुछ मुसलमान क़िब्ले के इस परिवर्तन को राजनैतिक हितों के विरुद्ध समझने लगे। उन्होंने पैग़म्बरे इस्लाम से कहा कि वे अपना फैसला वापस ले लें। इस स्थिति में सूरे बक़रा की आयत संख्या 142 नाज़िल हुई जिसका अनुवाद इस प्रकार हैः कुछ मूर्ख लोग यह कहेंगे कि मुसलमान जिस क़िबले, (बैतुल मुक़द्दस) की तरफ पहले से सजदा करते थे उससे दूसरे क़िबले की तरफ मुड़ जाने का कारण क्या है? ऐ रसूल तुम उनके जवाब में कहो कि पूरब-पश्चिम सब ख़ुदा का है जिसे चाहता है सीधे रास्ते की तरफ हिदायत करता है।
क़िब्ले के बदले जाने का वास्तव में एक उद्देश्य यह था कि ईमान का दावा करने वालों में से सच्चों और झूठों की पहचान की जा सके। यह एक प्रकार से मुसलमानों की परीक्षा थी ताकि सच्चे ईमान वालों का पता चल सके। इस संबन्ध में पैग़म्बरे इस्लाम के एक पौत्र इमाम हसन असकरी अलैहिस्सलाम का कहना है कि मक्के के रहने वालों को इस बात की प्रतीक्षा थी कि काबे को क़िब्ले के रूप में मान्यता मिले। ईश्वर ने बैतुल मुक़द्दस को क़िब्ला बनाकर इस बात की प्ररीक्षा ली कि कौन सही ढंग से पैग़म्बरे इस्लाम का अनुयाई है।
इसी संदर्भ में ईश्वर पवित्र क़ुरआन के सूरे बक़रा की आयत संख्या 143 में कह रहा हैः और इस प्रकार हमने तुम्हें संतुलित समुदाय बनाया ताकि तुम लोगों पर गवाह रहो और पैग़म्बर तुम पर गवाह रहें। और (ऐ रसूल) जिस क़िबले की तरफ़ तुम पहले सज़दा करते थे हम ने उसको सिर्फ इस वजह से क़िबला क़रार दिया था कि जब क़िबला बदला जाए तो हम उन लोगों को जो रसूल की पैरवी करते हैं लोगों से अलग देख लें जो उलटे पांव फिरते हैं हालांकि ये उलट फेर सिवा उन लोगों के जिन की ख़ुदा ने हिदायत की है सब पर कठिन ज़रुर है और ख़ुदा ऐसा नहीं है कि तुम्हारे ईमान बरबाद कर दे बेशक ख़ुदा लोगों पर बड़ा ही कृपालु व मेहरबान है।