Jul ०१, २०२२ १५:४८ Asia/Kolkata
  • एक ऐसा विवाह जिसपर ज़मीन से आसमान तक मनाई गई ख़ुशियां, अच्छे जीवन के लिए मासूमीन के सिद्धांतों पर अमल ज़रूरी  

आज इस्लामी कैलेंडर के अंतिम महीने ज़िल्हिज्जा की पहली तारीख़ है। आज का दिन इतना शुभ दिन है कि दुनिया भर में लोग ख़ुशियां मना रहे हैं। इस दिन को ख़ास बनाया है पैग़म्बरे इस्लाम (स) की सुपुत्री हज़रत फ़ातेमा ज़हरा (स) और हज़रत अली अलैहिस्सलाम की शादी ने।

आज पैग़म्बरे इस्लामी की प्राणप्रिय बेटी हज़रत फ़ातेमा ज़हरा सलामुल्लाह अलैहा और हज़रत अली अलैहिस्सलाम की शादी की तारीख़ है। यह एक आसमानी मिलन, आत्मा की गहराईयों का एक रिश्ता और ज़िंदगी का एक ऐसा बंधन था जिसकी ख़ुशी ज़मीन पर भी मनाई गई और आसमान पर भी, एक ऐसा निकाह जो जन्नत में फ़रिश्तों के सरदार ने फ़रिश्तों के बीच पढ़ा और ज़मीन पर नबियों के सरदार ने इंसानों के बीच पढ़ा। हज़रत फ़ातेमा ज़हरा एक ऐसी महान महिला थीं जिन के फ़रिश्ते भी नौकर थे, कभी फ़रिश्ते आप की चक्की चलाने आते, कभी आप के बेटों का झूला झुलाने आते। स्वर्ग की मालिक हज़रत ज़हरा ने पैग़म्बरे इस्लाम (स) के साए में परवरिश पाई। जब उनकी आयु शादी की हुई तो उनसे शादी की इच्छा रखने वालों की लंबी लाईनें लग गईं थी। हज़रत ज़हरा से विवाह की तमन्ना रखने वालों को पैग़म्बरे इस्लाम ने कोई जवाब नहीं दिया और उन्होंने इस मुद्दे पर ख़ामोशी इख़्तियार कर ली। लेकिन जैसे हज़रत अली अलैहिस्सलाम ने अपने इच्छी ज़ाहिर की तो उसी समय पैग़म्मबरे इस्लाम (स) ने फ़रमाया कि ख़ुद मुझे अल्लाह ने आदेश दिया है कि हम ने फ़ातेमा की शादी आसमान पर अली से कर दी है इसलिए तुम भी फ़ातेमा की शादी ज़मीन पर अली से कर दो। उस वक़्त पैग़म्मबरे इस्लाम (स) ने यह भी कहा कि अगर अली न होते तो फ़ातेमा का कोई हमसर (कुफ़्व) न होता।

वह इंसान जो पूर्णता तक पहुंचना चाहता और जिसे वह वैवाहिक ज़िंदगी से प्राप्त करता है, ऐसा इंसान अगर चाहता है कि अपने जीवन की कठिनाइयों को पार कर ले तो उसे चाहिए कि हज़रत फ़ातेमा और हज़रत अली के वैवाहिक जीवन के बारे में ज़रूर पढ़े और जाने। जो सिद्धांत उनके जीवन में पाए जाते थे उन सिद्धांतों के अनुसार ज़िंदगी गुज़ारें तो हमें वह कमाल भी हासिल हो जाएंगे और ज़िंदगी की कठिनाइयों से मुक़ाबला करने का तरीक़ा भी आ जाएगा।

आज के ज़माने में हज़रत अली (अ) और हज़रत फ़ातेमा ज़हरा (स) को कैसे आदर्श बनाया जाए? एक महत्वपूर्ण सवाल यह उठाया जाता है कि हम आज से चौदह सौ साल पहले ज़िंदगी बसर करने वाली उन हस्तियों को कैसे अपने आदर्श बना सकते हैं? वह एक ख़ास ज़माने में और अरब के एक विशेष माहौल में ज़िंदगी बसर कर रहे थे, जहां की मांगें और हालात आज की मांगों और परिस्थितियों से बिल्कुल अलग थीं, तो हम उन जैसी ज़िंदगी कैसे गुज़ार सकते हैं? इसका संक्षिप्त उत्तर यह है कि हमें उनकी जैसी ज़िंदगी नहीं जीना है। निसंदेह आज के हालात और आज की मांगें, उस ज़माने से अलग हैं। तो हमें करना क्या है? उन महान हस्तियों के जीवन से लेना क्या है? इसका जवाब यह है कि इंसानी ज़िंदगी के कुछ ऐसे सिद्धांत होते हैं जो हमेशा साबित रहते हैं, कभी बदलते नहीं हैं, कभी उनमें बदलाव नहीं आता बल्कि हमेशा एक जैसे रहते हैं। जैसे सच्चाई एक ऐसा सिद्धांत है जो हर युग में एक साबित सिद्धांत था, ऐसा नहीं है कि कल सच्चाई की ज़रूरत थी, आज नहीं है। या वफ़ादारी ज़िंदगी का एक साबित सिद्धांत है, ऐसा नहीं है कि कल वफ़ादारी अच्छी बात थी और आज बेवफ़ाई अच्छी हो गई हो या वफ़ादारी बुरी बात समझी जाती है। हमें पैग़म्बरे इस्लाम (स) और उनके परिजनों की ज़िंदगी से इस तरह के सिद्धांत लेने हैं और उनके अनुसार आज की मांगों और ज़रूरतों को ध्यान में रखते हुए ज़िंदगी गुज़ारनी है। (RZ)

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